Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ ******** ******** * परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयं ति पण्णतं। * तम्हा धम्म परिणदो, आदा धम्मो मुणेयव्यो।। (प्रवचनसार- ८)* * अर्थात् - द्रव्य जब जिस रूप से परिणमन करता है, तब वह वही * कहलाता है। इसलिए धर्म को परिकार गमती कहलाता है। यदि आत्मा त्रिकाल में शुद्ध ही है - ऐसा एकान्त किया जायेगा *तो आत्मा के अबन्धक होने का प्रसंग आयेगा तथा इससे सांख्यमत का * ही पोषण होगा। इसलिए आत्मा को सत्यरूप से जानना चाहिये। * सर्वकर्मपरित्यजेत् (सर्व कर्मों का त्याग करें) परद्रव्य में * अपनत्व का भाव ही प्रीति या राग है। रत्तो बंधदि कम्मा (समयसार - १५०) राग से कर्मबन्ध होता है। जब आत्मा सत्य है ऐसी प्रतीति हो जायेगी तो परद्रव्य से आसक्ति का नाश हो जायेगा। राग का विनाश * होने पर कर्मबन्ध नहीं होगा व पूर्वबद्ध कर्म नष्ट हो जायेंगे। आमामन्तवदम्यावर आत्मा अनन्त है ऐसा भाव) आत्मा * * का न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। इसलिए आचार्यों ने आत्मा * को अनादिमध्यान्त कहा है। अनादिमध्यान्त का अर्थ अविनाशी है। इसप्रकार के भावों से युक्त होकर - जानकर्मसपाचरेत (ज्ञानमय कर्म में आचरण करें। क्रिया *दो तरह की होती है ज्ञानमय और रागमय। परद्रव्य सापेक्ष क्रिया रागमय * कहलाती है। रागमय क्रियाएँ संसारवर्धिनी क्रियाएँ हैं तथा ज्ञानमय * * क्रियाएँ मोक्षदायिनी क्रियाएँ हैं। अतः रागमय क्रियाओं का पूर्णरूपेण न परित्याग करके ज्ञानमय क्रियाएँ करनी चाहिये। जिसने ज्ञान और राग के मध्यवर्ती अन्तर को समझ लिया है * ऐसे भव्यात्मा को सहजतया ही आत्मतत्त्व में स्थिरता प्राप्त हो जाती है। * यही कारण है कि आत्मतत्त्वविचक्षण ध्याता को बाह्यक्रियाएँ बन्ध का * कारण नहीं होती। * इसप्रकार ज्ञानमय आचरण जिस आत्मा का बन जाता है वह आत्मा अपने ऊपर लगे हुए समस्त कलिमलों का उच्चाटन करके अपने * वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। आत्मा के वास्तविक स्वरूप * की उपलब्धि ही मोक्ष है। **********४६ ********** 张张张张张张***杂杂杂杂张路路路路路杂杂杂杂杂非非染染染整染染法染染

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135