Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 54
________________ मार्गदर्श ज्ञानांकुशता ** "आत्माचरण सागर आत्मा सत्यं परिज्ञाय, सर्वकर्मपरित्यजेत् । आत्मानन्तत्ववद् भावं, ज्ञानकर्मसमाचरेत् ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ : (आत्मा) आत्मा (सत्यम् ) सत्य है ऐसा (परिज्ञाय) जानकर (सर्व) समस्त (कर्म) कर्मों का (परित्यजेत् ) त्याग करें। (आत्मा) आत्मा (अनन्तत्ववत् ) अनन्त है, ऐसे (भावम्) भावरूप ( ज्ञानकर्म) ज्ञानकर्म का ( समाचरेत् ) आचरण करें। आत्मा । अर्थ : आत्मा सत्य है ऐसा परिज्ञान करके सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करें। आत्मा अनन्त है ऐसे भावरूप ज्ञानकर्म का आचरण करें। भावार्थ: आत्मा को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री ब्रह्मदत्त ने लिखा अत् धातु सातत्य गमनेऽर्थे वर्तते । गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते । सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति वचनात् । तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते । अथवा शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैर्यथासंभवं तीव्रमन्दादि रूपेण आसमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा । अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्तादतति वर्तते यः स (बृहद द्रव्यसंग्रह - ५७) : अर्थात् अत् धातु निरन्तर गमन करने के अर्धरूप में है । सम्पूर्ण * गमनार्थक धातु नियम से ज्ञानार्थक होती हैं- इस सूत्र वचन से यहाँ गमन 'शब्द से ज्ञान अर्थ ग्रहण किया जाना चाहिये। इसकारण से जो यथासंभव ज्ञानसुखादि गुणों में चारों ओर से वर्तन करता है उसे आत्मा कहते हैं। ********** ** ********** ४४

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