Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 52
________________ ******** rivern ******** * कषाय कहते हैं। इन्हें नोकषाय इसलिए कहा गया है कि जीवों की * * स्वाभाविक जन्मजात प्रवृत्तियाँ जो जीवों में उत्पन्न होती रहती हैं, वे स्वयं तो कषायरूप नहीं है, परन्तु इन वृत्तियों के उत्पन्न होने पर मनुष्य इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए रागादि से प्रेरित होकर क्रोधादिक से मलिन * हो जाता है और नाना प्रकार के उद्यम करता है। इसलिए उन्हें कषाय *नहीं. नोकषाय कहा है। म हाम, पति, अर, चोक, य, मुसा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद की अपेक्षा से नोकषाय के नौ भेद हैं। A. कर्म -- आचार्य श्री विद्यानन्द लिखते हैं । *जीवं परतन्त्री कुर्वन्ति, स परतन्त्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, * *जीवेन वा मिथ्यादर्शनादि परिणामैः क्रियन्ते इति कर्माणि। (आप्तपरीक्षा - ११४/ २९६) *अर्थात् : जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र *किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। अथवा, जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि * * परिणामों से जो किये जाते हैं, उपार्जित होते हैं वे कर्म हैं। * जीव की मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तियाँ जो कि शुभ और अशुभरूप होती हैं, उनका निमित्त पाकर जो पुदगलपिण्ड आत्मा की ओर आकृष्ट होकर आत्मा में दूध-पानी की तरह घुल-मिल *जाता है उसे कर्म कहते हैं। * कर्म, आत्मा के निमित्त से होने वाला पुद्गलद्रव्य का ऐसा * * विभाव परिणाम है, जो आत्मप्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट होता है तथा आत्मा * के साथ एक क्षेत्रावगाही हो जाता है। जिसप्रकार भोजन, विष आदि पदार्थ परिपाक की अवस्था में अपना प्रभाव प्राणियों पर डालते हैं, उसी * प्रकार विपाक दशा में कर्म भी आत्मा पर अपना प्रभाव डालते हैं। * * भोजनादि की प्रवृत्ति स्थूलरूप होती है। अतः वह इन्द्रियग्राहा * * है। कर्मग्रहण की प्रवृत्ति सूक्ष्मरूप में होने से इन्द्रियग्राह्य नहीं है। स्थूल * * होने के कारण भोजनादि पुद्गल प्रचयों की शक्ति अल्प होती है, परन्तु * कर्मप्रचय सूक्ष्म होते हुए भी महाशक्ति वाला है। जैसे भोजन शरीर का आधार है, उसीप्रकार कर्म भी संसारत्व के आधार हैं। कर्म के कारण ही * यह जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है। **********४२ ********** 杂杂杂杂杂非珠路路路路基路路蔡崇染染染染染杂杂杂杂杂**法****

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