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********* झाजांकुशम् **********
योगी का कर्त्तव्य
कषायं नोकषायं च कर्म-नोकर्म होव च । मनोतीन्द्रिय सर्वस्व त्यक्त्वा योगी समाचरेत्॥१५॥
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अन्वयार्थ :
(हि) निश्चय से (योगी) योगी (कषायम्) कषायो को (च) और (नोकषायम् ) नोकषायों को (कर्म) कर्म को (च) और (नोकर्म) नोकर्म को (त्यक्त्वा) छोड़कर (मनः) मन (अतीन्द्रिय) अतीन्द्रिय (सर्वस्व ) सर्वस्व का (एव) ही . ( समाचरेत्) आचरण करें।
अर्थ: निश्चय से योगी कषाय, नोकषाय, कर्म और नोकर्म को छोड़कर मन अतीन्द्रिय सर्वस्व का आचरण करें ।
भावार्थ: इस कारिका में कषायादि को तजने का सदुपदेश दिया गया 'है।
अ. काय आचार्य श्री अकलंकदेव लिखते हैं कषत्यात्मानमिति कषायः ।
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(राजवार्तिक ६/४/२)
अर्थात् : जो आत्मा को कसे, दुःख देवे यह कषाय है।
सामान्यतया क्रोध, मान, माया और लोभ की अपेक्षा से कषाय के चार भेद हैं तथा विशेषरूप से अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ की अपेक्षा से सोलह प्रकार हैं।
घ. नोकषाय - आचार्य श्री पूज्यपाद लिखते हैंईषदर्थे नञः प्रयोगादीषत्कषायोऽकषाय इति ।
(सर्वार्थसिद्धि ८/९ ) अर्थात् : किंचित् अर्थ में नञ् का प्रयोग होने से किंचित् कषाय को अकषाय कहा है। अकषाय ही नोकषाय है।
जो मनोवृत्तियाँ कषायों को उत्तेजित करने वाली हैं, उन्हें नो
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