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******** ज्ञानांकुशाम् ******** * किया जाता है। ॐ रूटस्थ धर्मध्यान का ध्यायक समवशरण में विराजमान अरिहन्त प्रभु का ध्यान करता है। कभी वह अरिहन्त के गुणों को विचारता है, तो कभी उनकी बाह्यविभूति का विचार करता है। कभी बारह सभाओं
का चिन्शन करता है, काली दोगनिरोग वने वाले केवली का चिन्तन *करता है। *- रूप्यतीत धर्मध्यान: आचार्य श्री गुणभूषण लिखते हैं - .
गन्धवर्णरसस्पर्शवर्जितं बोधदृङ्मयम् । * यच्चिन्त्यतेऽर्हद्रूपं, तद्ध्यानं रूपवर्जितम् ।।
(गुणभूषण श्रावकाचार - ३(३५) * अर्थात् : गन्ध, वर्ण, रस और स्पर्श से रहित केवलज्ञान और केवलदर्शन
से युक्त अरिहंत के रूप का जो चिन्तन किया जाता है वह रूपातीत
धर्मध्यान है। * उपर्युक्त गाथा में अरिहन्त के ध्यान को रूपातीत कहा है। परन्तु * * सर्वत्र सिद्धों का ध्यान ही रूपातीतध्यान का ध्येय माना गया है। * * द्रव्यकर्म. नोकर्म और भावक से सिद्धपरमेष्ठी रहित है। आों लर्मों का निर्मूल नाश हो जाने के कारण उनके आठ महागुण प्रकट हो
चुके हैं। वे अन्तिम शरीर से किंचित् न्यून आकार से लोकान के शिखर * पर विराजमान हैं। यद्यपि क्षेत्र, काल, गति, लिंग, चारित्र, तीर्थ, प्रत्येक * बुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व की * अपेक्षा उनमें भेद हैं, परन्तु आत्मगुणों की अपेक्षा उनमें कोई अन्तर नहीं है। इसतरह सिद्धस्वरूप का चिन्तन करना रूपातीत धर्मध्यान है।
बारह भावनाओं का चिन्तन करना, सर्वज्ञ प्रभु की आज्ञा का विचार करना, कर्मादिक के फलों का विचार करना, संसारी जीवों को * दुःखों से मुक्ति दिलाने वाले उपायों का विचार करना अथवा लोक के * आकार का विचार करना आदि भी धर्मध्यान के विषय हैं। * धर्मध्यान परिणामों को निर्मल बनाने में सहयोग करता है।
धर्मध्यान मोक्ष की प्राप्ति में कारणभूत ऐसे शुक्लध्यान की भूमिका की । * निर्माता है तथा मोक्ष का परम्परा से कारण है। **********४ **********