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**********झनांकुशम्
* वह पिण्डस्थध्यान है ।
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इस ध्यान में पाँच धारणाओं का वर्णन है। १. पार्थिवीधारणा ध्याता विचार करें कि यह मध्यलोक तरंग रहित समुद्र की तरह है। उसके मध्य में सुवर्ण के समान प्रभा वाला एक सहस्त्रदल कमल है। वह कमल केशर की पंक्ति से सुशोभित हो रहा है तथा एक लाख योजन विस्तार वाला है। उस कमल के बीचों बीच सुमेरु पर्वत के समान पीतवर्णीय एक कर्णिका है। उस कर्णिका पर श्वेतवर्ण वाला सिंहासन है और उस सिंहासन पर मेरी आत्मा विराजमान है। वह आत्मा राग-द्वेष, कर्म- नोकर्म एवं समस्त उपाधियों से रहित है। इस तरह चिन्तन करना पार्थिवीधारणा है।
२. आग्नेयीधारणा : ध्याता ऐसा विचार करें कि मेरे नाभिमण्डल में सोलह पंखुडियों वाला एक कमल है। कमल की पंखुडियों पर क्रमशः अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः ये सोलह बीजाक्षर लिखे हुए हैं। उस कमल की कर्णिका पर र्ह बीजाक्षर लिखा हुआ है। इस बीजाक्षर से धीरे-धीरे धूम फिर अग्नि की स्फुल्लिंगे निकल रही हैं, जो हृदयस्थ कमल को दग्ध कर रही हैं। हृदयस्थ कमल आठ दलों से युक्त व अधोमुखी है। उन पर क्रमशः ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के नाम लिखे हुए हैं। ह बीजाक्षर से निकली अग्नि इस कमल को जला देती है।
ध्याता फिर ऐसा विचार करें कि शरीर के बाहर त्रिकोणाकार एक अग्निमण्डल है, वह अग्निमण्डल र र र र बीजाक्षरों से व्याप्त है, 'उसके अन्त में स्वस्तिक है। यह अग्नि निर्धूम है व दैदीप्यमान है। अपनी ज्वालाओं से नाभिकमल और शरीर को भस्म कर दाह्य पदार्थ के न रहने पर स्वयं शान्त हो रही है। इसप्रकार से चिन्तन करना आग्नेयीधारणा है।
६. मारुविधारणा : आग्नेयी धारणा के बाद ध्याता ऐसा चिन्तन करें कि आकाश में प्रचण्ड वायु उठ रही है। वह वायु मेरु पर्वत को भी कंपित कर रही है। मेघों को छिन्न-भिन्न करने में वह तत्पर है। वह समुद्र के जल को तरंगों से तरंगित कर रही है। धीरे-धीरे वह वायु तीव्रगति से दशों दिशाओं में फैल रही है। पृथ्वीतल को विदीर्ण करके वह भीतर
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