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ज्ञानांकुशम् ********
शुद्धात्मा के ध्यान का फल
यो नरः शुद्धमात्मानं, ध्यायेत्कृत्वा मनः स्थिरम्। स एवं लभते सौख्यं निर्वाणं शाश्वतं पदम् ॥१३॥
अन्वयार्थ :
(यः) जो ( नरः ) मनुष्य (मनः स्थिरम् ) मन को स्थिर ( कृत्वा) करके (शुद्धम् आत्मानम) शुद्धात्मा को (ध्यायेत्) ध्याता है, (स) वह (एव) ही (सौख्यम ) सौख्य को और ( शाश्वतम् ) शाश्वत (निर्वाणम) निर्वाण (पदम् ) पद को (लभत) प्राप्त करता है।
अर्थ : जो मनुष्य मन को स्थिर करके शुद्धात्मा का ध्यान करता है. वह सौख्यरूप निर्वाण पद को प्राप्त करता है।
भावार्थ : मन तीनों कालों में बटा हुआ है। वह अतीत की स्मृतियों को भी संचित करता है, भविष्य के स्वप्न भी देखता है और वर्तमान का चिन्तन भी करता है। स्मृति चिन्तन और कल्पनाओं के कारण मन सर्वदा संकल्प-विकल्पों के झूले में झूलता रहता है। इन्द्रियाँ तो केवल प्रत्यक्ष में स्थित विषयों को ग्रहण करती हैं, परन्तु मन प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष वस्तुओं व विषयों का ग्राहक है। अतः मन इन्द्रियों से ताकतवर है। इन्द्रियों के विषय सीमित क्षेत्र में हैं परन्तु मानसक्षेत्र अन्तहीन है। इतना ही क्या ? नन के संकेत पर ही पाँचों इन्द्रियाँ अपना काम करती हैं। अतः मन को इन्द्रियों का राजा कहा गया है। नीतिकारों का कथन अत्यन्त स्पष्ट है कि मन एव कारणं बन्धमोक्षयोः मन ही बन्ध और मोक्ष का कारण है।
मन की गति भी अत्यन्त तीव्र है। उसकी गति को रोक पाना अत्यन्त दुरूह है । मन जल की तरह अधोगामी होता है। जैसे जल बिना किसी निमित्त के स्वभावतः अधोगमन करता है, उसीप्रकार मन स्वभावतः विभावों की ओर गमन करता है। यदि पानी को ऊर्ध्वगामी बनाना है, तो किसी यन्त्र का उपयोग करना पड़ता है। उसीतरह मन को उन्नत बनाने * के लिए विविध यत्न करने पड़ते हैं। ****************
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