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**** * 'चाहिये।
ज्ञानांकुशाम्
'शंका: आत्मध्यान किसे कहते हैं ?
समाधान: भेदविज्ञान को उपलब्ध करने वाले भव्यात्मा के द्वारा आत्मतत्त्व का ध्यान गुण गुणी, ज्ञान- ज्ञाता ज्ञेय अथवा ध्यान ध्याता ध्येय के विकल्पों से रहित होकर किया जाता है। उस ध्यान को ही आत्मध्यान कहते हैं। आचार्य श्री देवसेन लिखते हैं
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जत्थ ण झाणं झेयं झायारो णेव चिंतणं किंवि ।
णय धारणा वियप्पो तं सुण्णं सुड्डु भाविज्ज ।।
(आराधनासार
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अर्थात् जिसमें न ध्यान है, न ध्येय है, न ध्याता है। जिसमें किसी * प्रकार का चिन्तन नहीं है। जिसमें धारणाओं का विकल्प भी नहीं है उसे 'शून्यध्यान समझो।
सम्पूर्ण विकल्पों से रहित ध्यान आत्मध्यान है।
आगमशास्त्रानुसार पाँच पापों का आचरण करन बाह्य क्रिया है तथा कषाय और योगमय प्रवृत्ति आभ्यंतर क्रिया है। ये दोनों ही क्रियाएँ आत्मप्रदेशों को चंचल बनाया करती हैं। अतः इन दोनों का विनाश कर के स्वरूपगुप्त हो जाना अध्यात्मध्यान अथवा निर्विकल्पध्यान है। स्वरूपगुप्त होना ही निर्विकल्पध्यान है। जिसे निर्विकल्पध्यान की सिद्धि हो गयी हो उसकी स्थिति का वर्णन करते हुए आचार्य श्री पूज्यपाद लिखते हैं
ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते, गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरिकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति । ।
( इष्टोपदेश - ४१)
अर्थात् जो आत्मतत्त्व में स्थिर हो गया है, वह बोलता हुआ भी नहीं बोलता है। चलता हुआ भी नहीं चलता है और देखता हुआ भी नहीं 'देखता है। अर्थात् वह सम्पूर्ण क्रियाओं को करता हुआ कोई भी क्रिया 'नहीं करता है।
विचारणीय यह है कि कुर्वन्नाप्नोति - यह शब्द परस्पर , विरुद्ध दो अर्थों का प्रतिपादक है। सन्धि विच्छेद करने पर
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१. कुर्वन् न आप्नोतिः, करता हुआ प्राप्त नहीं होता है। ********************
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