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જ્ઞાનાંામ્ ** आत्मभावना
गच्छन् वा यदि वा सुप्त, आलापं चापि भोजनम् । कुर्वन्नाप्नोति तद्ध्यानं, येनात्मा लभते शिवम् ॥१२॥
अन्वयार्थ :
(यदि) यदि (गच्छन्) चलते हुए (वा) अथवा (सुप्त) सोते हुए (वा) अथवा (आलापम) बोलते हुए (च) और (भोजनम) भोजन को (कुर्वन) करते हुए (तद्) उस (ध्यानं) ध्यान को (आप्नोति) पाता है (येन) जिससे (आत्मा) आत्मा (शिवम) मोक्ष को (लभत) प्राप्त करता है।
अर्थ : १. चल रहा हो, सोया हुआ हो, बोल रहा हो अथवा भोजन कर रहा हो, उससमय भी वह ध्यान को प्राप्त करता है। जिससे आत्मा शिवपद को प्राप्त करता है।
२. चलते हुए, सोते हु बोलते हुए, भोजन करते हुए आत्मा उस ध्यान को प्राप्त नहीं कर सकता जिससे वह शिवपद को प्राप्त करता है। भावार्थ : अनन्तरपूर्व श्लोक में सिद्धप्रभु का वर्णन करते हुए ग्रंथकार ने सर्वद्वंद्वविनिर्मुक्तं यह विशेषण सिद्धों के लिए प्रयुक्त किया था। सिद्ध भगवान सकल द्वंद्रों से मुक्त होते हैं। उनके समान बनने के इच्छुक साधक का परम कर्तव्य है कि वह अपनी द्वंद्ववृतियों का शमन करें।
पूज्य के गुण हममें भी अवतरित हों इसी हेतु से पूज्य का चिन्तन किया जाता है। यह अक्षरशः सत्य होते हुए भी इस तथ्य को अस्वीकार नही किया जा सकता है कि तद्रूप आचरण भी हो।
आजतक यह जीव स्वस्वरूप से विभ्रमित हो जाने के कारण परपरिणति में लिप्त रहा, रागादि भावों ने उसके स्वभाव को आवृत्त कर लिया, कषायों ने इस जीव को निज के समान अनुरंजित कर लिया। फलतः वह स्व से दूरानुदूर ही जाता रहा, इससे संसारी जीव अतीव दुःख को प्राप्त करता रहा ।
यदि यह जीव निज को उपलब्ध करना चाहे, अर्थात् (आगम भाषा में) यदि वह मोक्ष प्राप्त करना चाहे तो उसे आत्मध्यान करना *** *३१*
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