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******** ज्ञानांकुशम् ********
अर्थात् : ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मलज्ञानस्वरूप आत्मा है। आत्मा में * लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी * * सम्बन्ध में निर्ममत्वमय हो चुका है, उसी के यह ब्रह्मचर्य होता है। ऐसा * * होने पर यदि इन्द्रियविजयी होकर वृद्धा आदि ( युवती, बाला) स्त्रियों
को क्रम से अपनी माता, बहिन और पुत्री के समान समझता है, तो वह ब्रह्मचारी होता है।
ब्रह्म में जिसकी निष्ठा होती है, ऐसे जीव के लिए बाह्यलिंग * विशेष महत्त्व नहीं रखते। अतः बह गृह रथ हो 'द, यति हो, वह समस्त * * कर्मों का उच्चाटन करके अवश्य ही सिद्धात्मा बन जाता है। इसमें संशय * * नहीं है।
शंका : क्या कोई गृहस्थ आत्मरमण कर सकता है ?
समाधान : नहीं, अपितु गृहस्थ आत्मश्रद्धा के माध्यम से अपनी * आत्मशक्ति को विकसित करता है तथा मुनिपद को धारण करके * * आत्मरमण का पात्र बन जाता है।
गृहस्थ को आत्मध्यान की पात्रता का निषेध करते हुए आचार्य श्री जयसेन लिखते हैं - विषयकवायोत्पन्नातरौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामा* माश्रित. निश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति।
(प्रवचनसार- तात्पर्यवृत्ति - २५४)* * अर्थात् : विषयकषायों के निमित्त से उत्पन्न होने वाले आर्स और * * रौद्रध्यान में परिणत गृहस्थजनों को आत्माश्रित निश्चयधर्म में अवकाश* * नहीं हैं।
आचार्य देवसेन भी इसी बात को स्वीकार करते हैं। यथा - * जो भणई को वि. एवं, अस्थि निहत्थाण णिच्चलं झाणं। * सुद्धं च णिरालंब, ण मुणइ सो आयमो जइये।। *
(भावसंग्रह - ३८२) * अर्थात् : यदि कोई पुरुष यह कहे कि गृहस्थों के भी निश्चल,* * निरालम्ब और शुद्धध्यान होता है, तो समझना चाहिये कि इसप्रकार **********२४**********
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