Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 37
________________ ******** ज्ञानांकुशम् ******** १. शास्त्र आप्त के द्वारा कथित हो । २. शास्त्र अनुलंघ्य हो । ३. शास्त्र अदृष्टेष्टविरोधी हो । ४. शास्त्र तत्त्वोपदेश को करने वाला हो । ५. शास्त्र सर्वहितकारी हो । ६. शास्त्र काण्थपरिहारी हो परन्तु लोक में शास्त्रों की विभिन्न मान्यताएँ प्रचलित हैं। कई लोग शास्त्र (वेद) को अपौरुषेय गानते हैं। कई लोग गुणवत मनगढन्त क्रियाओं अथवा कथाओं के संग्रह को ग्रंथ मानते हैं। कई लोग हिंसादि का पोषण करने वाले, विषय-कपायों का वर्धन करने वाले, अन्धश्रद्धा का विकास करने वाले तथा कुमार्ग पर ले जाने वाले कल्पित ग्रंथों को शास्त्र मान कर वृथा ही दुःख का उपार्जन कर रहे हैं। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्रमय है। तीनों जब एक आत्मस्वरूप बन जाते हैं, तब कर्मों का नाश होकर मोक्ष प्राप्त होता है. परन्तु आप्त-प्रणीत इस मोक्षमार्ग को अज्ञानी जीव स्वीकार नहीं करता है। अपने अज्ञान के वश हुआ वह दुर्बुद्धि मनमाने मार्ग को मोक्षमार्ग मानता है। यथा - १. कोई मात्र भक्ति को ही मोक्षमार्ग मानते हैं। २. कोई मात्र ज्ञान को ही मोक्षमार्ग मानते हैं। ३. कोई मात्र क्रिया को ही मोक्षमार्ग मानते हैं। ४. कोई भक्ति और ज्ञान को मोक्षमार्ग मानते हैं। ५. कोई ज्ञान और क्रिया को मोक्षमार्ग मानते हैं। ६. कोई भक्ति और क्रिया को मोक्षमार्ग मानते हैं। आचार्य श्री अकलंक देव लिखते हैं। - नान्तरीयकत्वात् नहि त्रितयमन्तरेण मोक्षप्राप्तिरस्ति । कथम् ? रसायनवत् । यथा न रसायनज्ञानादेव रसायनफलेन अभिसम्बन्धः रसायन श्रद्धानक्रियाभावात् । यदि वा रसायनज्ञान मात्रादेव रसायनफलसम्बन्धः कस्यचिद्दृष्टः सोऽभिधीयताम् ? न चासावस्ति न च रसायनक्रिया मात्रादेव, ज्ञान श्रद्धाना भावात् । न च श्रध्दानमात्रादेव, रसायनज्ञानपूर्वक्रियासेवनाभावात् । अतो रसायनज्ञान श्रद्धानक्रियासेवनोपेतस्य तत्फलेनाभिसम्बन्धः, इति निःप्रतिद्वन्द्वमेतत् । तथा न मोक्षमार्ग ज्ञानादेव मोक्षेणाभिसम्बन्धो दर्शनचारित्राभावात् न च श्रद्धानादेव, मोक्षमार्ग ज्ञानपूर्वक********************* 219

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