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शान्तांकुशम् कहने वाला पुरुष मुनियों के शास्त्रों को ही नहीं मानता ।
यदि गृहस्थ को आत्मरमण का पात्र मान लेंगे, तो आत्मरमण का फल जो कि सम्पूर्ण कर्मों का नाश होकर मोक्ष होना है उसे भी स्वीकार करना पड़ेगा। यह बात जैनागम को इष्ट नहीं है। शंका: कारिका में गृहस्थ शब्द का प्रयोग है। ग्रंथकार का आशय यह है कि यदि गृहस्थ भी शुद्धात्मा का ध्यान करता है, तो वह सम्पूर्ण कर्मों का नाश करता है। क्या ऐसा लिखना उचित है ? समाधान: आचार्य परमेष्ठी अन्यथावादी नहीं होते। अतः ग्रंथकार के आशय को समझ लेना आवश्यक है।
गृहस्थ राग के सद्भाव में शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप ध्यान में परिणत हो जाता है। ऐसा आचार्य श्री जयसेन का मत है। यथा
अर्हन्तादिक की भक्ति से सम्पन्न हुआ जीव कथंचित् शुद्ध सम्प्रयोग वाला होता हुआ भी राग का लव जीवित होने के कारण शुभोपयोग को न छोड़ता हुआ बहुत पुण्य को बांधता है, परन्तु वह वास्तव में सकल कर्मों का क्षय नहीं करता है ।
यति आत्मध्यान के बल से तत्काल ही सम्पूर्ण कर्मों का अय करते हैं । गृहस्थ के लिए इस तरह सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर पाना संभव नहीं है। वह परंपरा से कर्मों का नाश करता है। उसका कर्मनाश होना निश्चित है, अतः द्रव्यनिक्षेप से श्लोक में उसका उल्लेख है । अर्थ करते समय प्रत्येक भव्यजीव का यह कर्तव्य है कि वह अन्वयार्थ के साथ-साथ आगमार्थ का भी विचार करें।
इसी आशय की गाथा प्रवचनसार ग्रंथ में पायी जाती है।
यथा
जो एवं जाणित्ता, झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा | सागारोणागारो, खवेदि सो मोहदुग्गतिं । ।
(प्रवचनसार
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अर्थात् : जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा की ध्याता है, वह साकार हो या अनाकार मोहदुर्ग्रन्थि का क्षय करता है । *********************
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