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******** ज्ञानांकुशान ******** * अर्थात् : आत्मा और चैतन्य गुण में सर्वथा भेद हो, तो परस्पर ज्ञानी * * और ज्ञान में जडत्वभाव उत्पन्न हो जाता है। यथार्थ में यह जिनेन्द्र भगवान का कथन है।
अतः ग्रंथकार ने ज्ञान को ही आरभा कहा है। ज्ञान और आख्या * में जो भेद किया जाता है, वह प्राथमिक शिष्यों के सम्बोधनार्थ अर्थात् * विस्ताररुचि वाले मन्द बुद्धिशाली शिष्यों को समझाने के लिए किया * *जाता है। ग्रंथकार का उपदेश है कि ज्ञान से ज्ञान का ही अवलम्बन लेना। * चाहिये। इसका अर्थ यह है कि रागादि परभावों से हटकर मात्र ज्ञानानुभूति ।
में रत रहना चाहिये। * ज्ञानानुभूति ही शुद्धात्मानुभूति है। ज्ञानानुभूति ही निश्चयरत्नत्रय * * है। उसके अतिरिक्त समस्त विकल्प स्वयं के स्वभावभूत न होने से * * असत्य हैं। ज्ञान स्व-समय होने से रम्य है। ज्ञान ही दर्शन है, ज्ञान ही
सुख है, ज्ञान ही चारित्र है, ज्ञान ही वीर्य है। 4 आचार्य श्री अमृतचन्द्र लिखते हैं - * तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन. ज्ञानस्य भवनम्। * * जीवादि ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् । रागादिपरिहरण*
स्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम्। तदेवं सम्यग्दर्शन * ज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम्। ततो ज्ञानमेव * *परमार्थमोक्षहेतुः।
___ (आत्मख्याति - १५५) *अर्थात् : उनमें जीवादि पदार्थों के यथार्थ श्रद्धानस्वभाव से ज्ञान का * * होना तो सम्यग्दर्शन है। जीवादि पदार्थों के ज्ञानस्वभाव से ज्ञान का होना * * सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि के त्यागस्वभाव से ज्ञान का होना सम्यक्चारित्र * है। इसकारण ज्ञान ही परमार्थरूप से मोक्ष का कारण है।
समस्त गुण ज्ञान में समाविष्ट हो जाते हैं। ज्ञानानुभूति आत्मा ) * की प्रगति का पथ है। यदि ज्ञान की आराधना की जाती है, तो सकल * *कर्म क्षणमात्र में झड़ जाते हैं।जो मुनि ज्ञान के द्वारा अपना अवलम्बन * * लेकर अपने लिए अपने में अपने को स्थिर करके निश्चयध्यान में रत हो * * जाता है, वे अन्तर्मुहुर्त मात्र में समस्त कर्मों का क्षय कर देते हैं। ********** २२**********
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