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***** ज्ञानकुशम्
आत्मा व ज्ञान में एकत्व
आत्मा हि ज्ञानमित्युक्तं, ज्ञानात्मनौ विकल्पकम् ज्ञानेन ज्ञानमालम्ब्य योगिन् ! कर्मक्षयं कुरु ॥८ ॥
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अare :
(आत्मा) आत्मा (हि) निश्चय से (ज्ञानम् ) ज्ञान है (इति) ऐसा (उक्तम) कहा गया है। (ज्ञान) ज्ञान और (आत्मनौ । आत्मा में भेद करना (कलम) टाटा है। (योग) हे योगी (न) ज्ञान से (ज्ञानम् ) ज्ञान का (आलम्ब्य) अवलम्बन करके (कर्मक्षयम्) कर्मक्षय (कुरु) करो। अर्थ : आत्मा निश्चय से ज्ञान है, ऐसा कहा गया है। ज्ञान और आत्मा में भेद करना व्यवहार है। हे योगिन् ! तुम ज्ञान से ज्ञान का अवलम्बन लेकर समस्त कर्मों का क्षय करो।
भावार्थ: जैनागम का दिनकर सदैव अनेकान्त की किरणों को प्रसारित 'करता आया है, जिससे भव्य जीवों को सत्यतत्त्वों को देखने का व जानने का अवसर प्राप्त हो जाता है। इस परम चक्षु से विहीन स्व-पर प्रणाशक जीव सदसद्विवेक से रहित होकर तत्त्वों का यदिच्छा प्ररूपण करते हैं। एकान्त मतावलम्बी जीव, गुण और गुणी को सर्वथा भेद या अभेदरूप में स्वीकार कर लेते हैं, जो वस्तुतत्त्व के अनुरूप नहीं है। 'जैनागम गुण और गुणी की कथंचित् भिन्नता एवं कथंचित् अभिन्नता स्वीकार करता है।
आचार्य श्री जयसेन जी का कथन है।
तदेव गुण गुणिनोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादि भेदेऽपि प्रदेशभेदाभाव पृथग्भूतत्त्वं भव्यते।
(पंचास्तिकाय ५०)
अर्थात् : उस गुण और गुणी में संज्ञा, लक्षण और प्रयोजनादिकृत भेद होने पर भी प्रदेशभेद के अभाव से वह अपृथक् है।
द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न मानने पर क्या दोष होता है ?
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