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******* neigela शानांकुशम् वथ्य वा न रोकने, विणता अपि । तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।। (इष्टोपदेश ३७/३८)
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अर्थात् : जैसे-जैसे स्वानुभव में उत्तम तत्त्व अनुभव में आता है, वैसेवैसे सुलभ विषय भी रुचिकर प्रतीत नहीं होते।
जैसे-जैसे सुलभ विषय भी रुचिकर नहीं लगते, वैसे-वैसे स्वात्मसंवेदन में निजात्मानुभव की परिणति वृद्धि को प्राप्त होती है।
जब स्वभाव से रतिरूप परिणाम बनते हैं, तो तत्फलस्वरूप 'स्वाभाविक परिणति प्रकट होने लगती है। स्वात्मपरिणति में विभावों का क्या काम ? फलतः विभावों के मंडराते बादल छटते चले जाते हैं। जिसप्रकार बादलों के छट जाने पर बादलों की ओट में छिपे हुए सूर्य का प्रकाश एवं प्रताप प्रकट हो जाता है, उसीप्रकार विभावों का अभाव होते ही आत्मा का स्वभाव प्रकट हो जाता है।
स्वभाव आत्मा की सहज परिणति है। स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप स्व-चतुष्टय में स्व-चतुष्टय के द्वारा उत्पन्न होकर वह अपनी अवस्थिति वहीं पर रखती है। अतः विभावों का अभाव हो जाने पर आत्मा पर से निराश्रय हो जाता है। ऐसे आत्मा की इन्द्रियाँ और मन एकाग्र हो जाते हैं। इसके प्रसाद से चिन्तनरहित निर्मल आत्मस्थिति का जन्म होता है।
आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती लिखते हैं - मा चिडुह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होई थिरो । अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं । ।
( द्रव्यसंग्रह - ५६ ) अर्थात् : हे ज्ञानीजनो! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो अर्थात् काय के व्यापार को मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारों, जिससे कि तुम्हारी आत्मा अपनी आत्मा में तल्लीन होवें, क्योंकि जो आत्मा में तल्लीन होना ही परमध्यान है।
यही परमध्यान आत्मोत्थापक निमित्त है। अतः प्रत्येक भव्य को आत्मध्यान को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।
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