Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 31
________________ ******** ******** ******** * इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द लिखते हैं - * * जदि हवदि दव्यमण्णं गुणदो य गुणा य दव्यदो अण्णे। दव्याणतियमधवा दव्वाभावं पकुष्यति ।। (पंचास्तिकाय • ४४} अर्थात् : याद द्रव्य गुणा से सर्वथा भिन्न अथवा गुण द्रव्य से सर्वथा। * भिन्न हो तो एक द्रव्य के अनन्त द्रव्य हो जायेंगे अथवा द्रव्य का अभाव * हो जायेगा। गुण और गुणी में कथंचित् भेद करते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द लिखते हैं - ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा। ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जते ।। (पंचस्तिकाय - ४६) * अर्थात् : द्रव्य और गुणों में गुण-गुणी भेद होता हैं। वे कथनभेद,* *आकारभेद, गणनाभेद और आधारभेद से कथंचित् भिन्न हैं। वे कथंचित् * * अभिन्न भी हैं। आत्मा गुणी एवं ज्ञान गुण है, अतः उन दोनों में कथंचित भेदाभेदत्व है। संज्ञाभेद : आत्मा व ज्ञान, इसतरह दोनों में संज्ञाभेद है। बक्षणभेद : आत्मा का लक्षण चेतना व ज्ञान का लक्षण ज्ञानना है, * यह दोनों में लक्षणभेद है। संख्या भेद : आत्मा एक है। ज्ञान के पाँच भेद हैं। यह संख्याभेद है। विषयभेद : आत्मा आधार है। ज्ञान आधेय है। यह विषयभेद है। उपर्युक्त विधि से आत्मा और ज्ञान में भिन्नत्व होते हुए भी एक *क्षेत्रावगाही होने से तथा दोनों में अविनाभावी सम्बन्ध होने से वे एक हैं। आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने समझाया है - पाणी गाणं च सदा अत्यंतरिदा दु अण्णमण्णस्सा दोण्हं अचेदणतं पसजदि सम्म जिणावमदं।। (पंचास्तिकाय-४८)* ********** २१ ********* 毕崇#长张杂杂杂杂杂*******杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂***杂杂杂杂杂 है।

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