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है, तब उसकी परिणति संक्लेश अथवा विशुध्द हो जाती है । असाता की 'बन्धयोग्य परिणति को संक्लेश और साता के बन्धयोग्य परिणामों को विशुध्दि कहते हैं। असादबंधजोग्गपरिणामो संकिलेसो णाम का विसोही ? सादबंध जोग्गपरिणामो ।
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(धवला पुस्तक
६, पृष्ठ १)
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संक्लेश परिणाम का अपर नाम अशुभोपयोग है। उससे विपरीत योग शुभ कहलाता है। दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं। आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव लिखते हैं। मोत्तूण णिच्छयटुं धवहारे ण विदुसा यवति । परमठ्ठमस्सिदाण दु जदीणं कम्मक्खओ विहिओ । ।
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(समयसार अर्थात् पण्डितजन निश्चयनय के विषय को छोड़ कर व्यवहार प्रवृत्ति नहीं करते हैं. क्योंकि परमार्थभूत आत्मस्वरूप का आश्रय करने वाले यतीश्वरों के ही कर्मों का नाश कहा गया है।
आचार्य श्री अमितगति लिखते हैं
पूर्वं कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्यं शुभं निर्मितम् । विज्ञायेत्यशुभं निहन्तुमनसो ये पोषयन्ते तपः । । जायन्ते शमसंयमैकनिधयस्ते दुर्लभा योगिनो। ये त्वत्रोभयकर्मनाशनपुरास्तेष किमत्रोच्यते ?
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(तत्वभावना ९० )
अर्थात् : पूर्व में बांधा हुआ अशुभकर्म दुःख और शुभकर्म सुख उत्पन्न करता है। ऐसा जानकर जो इस अशुभ को नाश करने के भाव से तप करते हैं और समता तथा संयमरूप हो जाते हैं, ऐसे योगी भी दुर्लभ हैं। परन्तु जो पुण्य और पाप इन दोनों ही प्रकार के कर्मों के नाश में लवलीन हैं, उन योगियों की तो बात ही निराली है ।
अतः मुमुक्षुओं को सरागसंकल्प का परित्याग करके वीतराग संकल्प में मग्न रहने का प्रयत्न करना चाहिये ।
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