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******** ज्ञानानुशता ******** * अर्थात् :- चेतन, अचेतन और मिश्र द्रव्यों में ये मेरे हैं इत्यादि परिणाम संकल्प है।
मन प्रतिसमय संकल्प और विकल्पों के जाल बुना करता है। *जिसप्रकार मकड़ी जाल बनाती है और स्वयं उसमें उलझ कर अपने प्राण * गवाँ बैठती है, उसीप्रकार यह जीत ग़ग और टेषरूपी विभावपरिणति के *वशवर्ती होकर संकल्प और विकल्प का जाल बुनता है और उसमें फँस
कर पतन के गर्त में अर्थात् नरक और मिगोद में जाकर गिरता है। * अशान्ति एवं अन्तर्बहिर्जल्परूप वृत्ति संकल्प के कारण ही जीव में उत्पन्न । * होती है। इस श्लोक में संकल्प का अर्थ चैतन्यानुविधायी परिणाम * (उपयोग) है। इसके ग्रंथकार ने दो भेद किये हैं.. *१. वीतष्ठागकम्प :- आर्षभाषा में इसे शुद्धोपयोग भी कहा * जाता है। जब निजतत्त्व के आनन्दामृत का पान करने वाले मुनिराज
अपने आत्म-परिणाम को राग और द्वेष से पूर्ण विविक्त कर लेते हैं, जब
वे सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-हानि. , संयोग-वियोग, बन्धु-रिपु * आदि अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में समचित्तवान हो जाते हैं, * संयम और तप जिनके शुभ आभूषण हैं, जो पदार्थ और सूत्र के अच्छे * * जानकार हैं, ऐसे मुनिराज उत्तम ध्यान में लीन होकर ध्यान-ध्येय के * विकल्प से विहीन हो जाते हैं, उस परिणति को वीतरागसंकल्प कहते हैं। इस वीतरागसंकल्प में कषाय और योग इन दोनों का सद्भाव नहीं होता। फलतः उससमय आस्रव एवं बन्ध नहीं हो सकता। * शुद्धोपयोगपरिणति का फल बताते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द * देव कहते हैं -
अइसयमादसमुत्यं, विसयातीदं अगोवममणंतं। * अधुच्छिण्णं च सुह, सुबुवओगप्पसिद्धाणं।।
(प्रवचनसार - १३) * अर्थात् : शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं का सुख अतिशय, आत्मा से उत्पन्न, विषयों से रहित , अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न है।
शुद्धोपयोग निर्जरा का सर्वश्रेष्ठ कारण है। अतः ग्रंथकार ने * इसे अपवर्ग का (मोक्ष का कारण बताया है। *2. सरागसंकल्प: जब यह जीव वीतराग दशा से च्युत हो जाता * **********[१६**********
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