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******** शाजांकुशा ********
निराश्रय ध्यान
अभाव भावनं चैव,भावं कृत्वा निराश्रयम् ।
निश्चलं हि मनः कृत्वा,न किश्चिदपि जित्तो।। * अन्वयार्थ : * (अभाव) अभाव (भावम्} भावों की (भावनम्) भावना (कृत्वा) करके * हि) निश्चय से (निराश्रयम) निराश्रय होना चाहिये (च-एव) और (मनः)*
मन को (निश्चलम्) निश्चल (कृत्वा) करके (किंचित्) कुछ (अपि) भी (न) नहीं (चिन्तयेत्। चिन्ते। * अर्थ : अभाव भावों की भावना करके निराश्रय होना चाहिये तथा मन * को निश्चल करके कुछ भी चिन्तन नहीं करना चाहिये। * भावार्थ : ध्यानेच्छु जीव को ऐसा विचार करना चाहिये कि मुझ में * निश्चय से विभाव भावों का अभाव है। विकारों का एक अंश भी मेरे
स्वभाव में नहीं है। विभावों की उदभूति परनिमित्त से होती है। वस्तुतः वह वस्तु का परसंयोगज भाव है, स्वभावभाव नहीं है। अतः ध्यानेच्छु *निरन्तर ऐसा विचार करें कि* १. मैं विभाव नहीं हूँ और विभाव मेरे नहीं हैं। २. मैं विभावों का नहीं हूँ और विभाव मेरे नहीं हैं। ३. मैं विभावों का नहीं था और विभाव मेरे नहीं थे। ४. मैं विभावों का नहीं हो सकता और विभाव मेरे नहीं हो सकते।
मैं विभाव भावों से अत्यन्त पृथक हूँ , ऐसी आत्मा की प्रतीति * एवं प्रीति विषय-कषायों से आत्मा को वियुक्त कर देती है। वह वियुक्तता * * आत्मा को कर्मों से निर्लेप बना देती है। उससे वह जीव परमशुद्ध बन * जाता है।
आचार्य श्री पूज्यपाद लिखते हैं - यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।
तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि।। **********१८**********
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