Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 20
________________ ******** ज्ञानांकुशम् ******* विभावों को क्षय करने की प्रेरणा भावक्षये समुत्पन्ने, कर्म नश्यति निश्चयात् । तस्राद्भावक्षयं कृष्णा न किचिदपि चिन्तयेत् ॥४ ॥ अन्वयार्थ : (भाव) भावों का (क्षये) क्षय (समुत्पन्ने) होने पर ( निश्चयात्) निश्चय से . (कर्म) कर्म (नश्यति) नष्ट होता है (तस्मात्) इसलिए (भावक्षयम्) भावक्षय (कृत्वा) करके (किञ्चित्) कुछ (अपि) भी (न) नहीं (चिन्तयेत् ) 'चिन्तन करें। अर्थ : शुभाशुभ भावों का क्षय होने पर निश्चय से कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनका क्षय करके कुछ भी चिन्तन नहीं करना चाहिये । भावार्थ: शुभ और अशुभ भाव आत्मा के वैभाविक भाव है। जब आत्मा में विभाव भाव उत्पन्न होते हैं, तब उनका निमित्त प्राप्त करके आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है। यह परिस्पन्दन ही योग है। यह योग कर्मास्रव का हेतु बन जाता है। फलतः प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है। शुभभाव रागात्मक परिणति है व अशुभ द्वेषात्मक | ये राग और द्वेष कषायात्मक होते हैं। अतः उनसे स्थिति व अनुभाग बन्ध होता है। इससे सिद्ध होता है कि शुभाशुभभाव संसार के ही कारण हैं। * शंका : इस वक्तव्य से तो यह ध्वनित होता है कि धर्मानुराग पूर्वक की 'गई सम्पूर्ण क्रियाएँ यथा- जिनभक्त्यादि सब संसार की ही कारण हैं ? समाधान: नहीं, ऐसा नहीं मानना चाहिये। नयविवक्षा को जाने बिना जो कथन किये जाते हैं, वे ऐकान्तिक कथन असत्य की कोटि में आते हैं। जिनागम में अनेकान्त को प्राण माना गया है। अतः जिनागम की अपेक्षापद्धति को समझकर यथार्थ श्रद्धान करना चाहिये । कोई जीव वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर अपनी आत्मा की आराधना करने के लिए प्रवृत्त होता हुआ भी अनादि संस्कारवशात् १० ·

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