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********* शम् ******** *संबन्धिगुणस्मरण दानपूजादिकं कुर्युरिति।।
(परमात्मप्रकाश - २/६१) ५ अर्थात् : जैसे परदेश में स्थित कोई रामदेवादिक पुरुष अपनी प्यारी* * सीता आदि स्त्री के पास से आये हुए किसी मनुष्य से बातें करता है, * * उसका सम्मान करता है और दान करता है। ये सब अपनी प्रिया के * * कारण ही है। कुछ उसके प्रसाद के कारण नहीं है। उसीतरह से भरत,
सगर, राम, पाण्डवादि महान पुरुष वीतराग परमानन्दरूप मोक्षलक्ष्मी * के सुखामृत-रस से प्यासे हुए संसार की स्थिति के छेदने के लिए *विषय-कषायों से उत्पन्न हुए आर्त्त-रौद्र इन खोटे ध्यानों के नाश के * लिए श्री पंचपरमेष्ठी के गुणों का स्मरण करते हैं और दान पूजादिक * *करते हैं।
संक्षेप से इतना ही समझना पर्याप्त है कि धर्मानुरागपूर्वक की गई सम्पूर्ण क्रियाएँ यदि आत्मा को लक्ष्य रख कर की जाती हैं, तो वे * सार्थक हैं। यदि उन्हीं क्रियाओं को सुखानुबन्ध के लिए किया जाता है * तो वे संसार का ही कारण बनती हैं। * यदि आत्मकल्याण का इच्छुक भव्य जीव शुभक्रियाओं को * सर्वथा बन्ध का कारण मानकर छोड़ देवें और शुद्धात्मा में स्थिर रहने की
उसकी पात्रता नहीं हो तो वह इत्तो प्रष्टः ततो प्रष्टः की स्थिति * में पहुँच जायेगा। ऐसी मूदता न हो, इसीलिए आचार्यों ने चरणानुयोग * के ग्रंथों की रचना की है!
जो आचरण के पथ पर लगे हुए नहीं हैं, उनको आचार्यों ने आचरण को स्वीकार करने का उपदेश दिया है। जिन्होंने अणुव्रतरूप आचरण को स्वीकार किया है, उनके लिए आचार्यों ने महाव्रतरूप आचरण पालन करने का उपदेश दिया है। जो महाव्रतों का निर्दोष
परिपालन करते हैं, उन सकलसंयमी मुनियों के लिए श्रुतधर आचार्यों ने * शुभाशुभ भावों को त्याग कर आत्मा में स्थिर होने का उपदेश दिया है। * * यह उपदेश के क्रम की समीचीनता है। शुद्धत्व का ध्येय बनाकर अपनी-* * अपनी भूमिका के अनुसार शुभ क्रियाओं का आचरण करना चाहिये। *
साधना के चरम समय में शुभ और अशुभ रूप दोनों ही भाव त्याज्य हैं यही इस कारिका का सार है। ********** १२ **********
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