Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 23
________________ ※※※然然然然好当然然然然然然念 ध्यान का लक्षण व फल 张毕来路路路路路路路水水染染染發推始弦弦 ध्यानं स्थिरमनश्चैव, फलं स्यात्कर्मनिर्जरा। एवंविध विचारेण, योगं निश्चयमाचरेत् ॥५॥ * अन्वयार्थ : *(स्थिर) स्थिर (मनः) मन (एव) ही (ध्यानम्) ध्यान है (च) और (कर्म-* * निर्जरा) कर्मनिर्जरा उसका (फलम्) फल (स्थात्) है। (एवंविध) इस * प्रकार का (विचारेण) विचार करके (निश्चयम्) निश्चय से (योगम् , ध्यान का (आधरेत्) आचरण करें। * अर्थ : मन स्थिर होना ही ध्यान है व कर्म की निर्जरा होना उसका फल * . है। ऐसा विचार करके निश्चयपूर्वक ध्यान का आचरण करना चाहिये। भावार्थ : आभ्यन्तर तपों में अन्तिम तप ध्यान है। ध्यान की परिभाषा करते हुए आचार्य श्री वीरनन्द्रि सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है - ध्यानं तपः परं चित्तैकार्थलीनप्रवर्तनम् । कीय॑न्तेऽन्तर्मुहूर्त विस्थानं स्वर्गमोक्षसाधनम् ।। (आचारसार • ६/१०० * अर्थात् : अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अवस्थान है जिसका ऐसा चित्त का एकार्थ : * में लीन होकर प्रवर्तन करना, स्वर्ग और मोक्ष का साधन ध्यान नामक सर्वोत्कृष्ट तप कहा जाता है। मन अत्यन्त चंचल है। वह संकल्प और विकल्पों के जाल में उलझकर चैतन्यामृत के पान से जीव को वंचित कर देता है। उस मन को एकाग्र करना ध्यान है। ध्यान एक ऐसा वायुयान है, जो साधक को * * आनन्द और अक्षय सौभाग्य के साम्राज्य में उड़ा कर ले जाता है। ध्यान ही मोक्ष की प्राप्ति का राजमार्ग है। केवलज्ञान के उपवन को महकाने । के लिए ध्यान खाद के समान है। कर्मपंक का प्रक्षालन करने के लिए ध्यान नीर के समान है। ध्यान अपवर्ग का राजमार्ग है। - आध्यात्मिक शक्ति के विकास के लिए ध्यान सुयोग्य मित्र है। **********|१३ ********** 此此地出此地也必然地势:

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