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********* शालांकुशम् *
शंका : अशुभ योग क्या है ?
समाधान: आचार्य श्री अकलंकदंड का कथन है
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प्राणातिपातादत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभः काययोगः । अनृतभाषणपरुषासत्यवचनादिरशुभो वाग्योगः । वधचिन्तनेर्ष्यासूयादिरशुभो मनोयोगः ।
(राजवार्तिक - ६/३/१)
अर्थात् हिंसा, दूसरे की बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण करना (चोरी ), मैथुनप्रयोग आदि अशुभ काययोग हैं।
असत्यभाषण, कठोर, मर्मभेदी वचन बोलना आदि अशुभ वचनयोग हैं।
हिंसक परिणाम, ईर्ष्या, असूया आदि रूप मानसिक परिणाम अशुभ
मनोयोग हैं।
ये दोनों योग भी क्रमशः पुण्यास्रव और पापास्रव के प्रत्यय हैं। पुण्य से मनुष्यपर्याय उच्चकुल, दीर्घायु, सातिशय संपत्ति, आरोग्यसम्पन्नता तथा अभ्युदय की प्राप्ति होती है। पाप इससे विपरीत दशा को उत्पन्न करता है।
ये दोनों भी बन्ध के प्रत्यय होने से संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। अतः मोक्षेच्छु जीव के लिए दोनों समान रूप से हेय हैं। आचार्य श्री योगीन्दुदेव ने बहुत स्पष्ट लिखा है - जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु इ को वि मुणेड़ । जो पुण्णु वि पाउ वि भणड़ सो बुह को वि हवेह || ( योगलार - ७९)
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अर्थात् जो पाप है, उसको जो जीव पाप जानता है, तो ऐसा सब . कोई जानते हैं । परन्तु जो पुण्य को भी पाप कहता है, ऐसा पण्डित तो . कोई विरला ही मनुष्य होता है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव का मन्तव्य है
सौवणियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।
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