Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 15
________________ ******** ******** *से उत्पन्न होने वाले संकोच तथा विस्तार के आधीन होने से घटादि * *भाजनों में स्थित दीपक की तरह स्वदेह-परिमाण है। माझार्य श्री सुन्न हेड का कथन है - जह पउमराय रयणं खितं खीरं पभासयदि खीरं। तह देही देहत्थो सदेहमेत्तं पमासयदि ।। (पंचास्तिकाय - ३३) * अर्थात् : जिसप्रकार पद्मराग नामक महामणि को दूध में डाला जाय, * तो वह समस्त दूध को अपनी प्रभा से प्रकाशित करता है । उसीप्रकार * * संसारी जीव देह में रहता हुआ स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है। र आचार्य श्री पूज्यपाद (देवनन्दि) ने भी लिखा है कि तनुमात्रो । (इष्टोपदेश - २१) आत्मा अपने शरीरप्रमाण आकार वाला होता है। केवली समुद्घात के समय आत्मा लोकाकाशप्रमाण होता है। * आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। जब केवली भगवान के आयुकर्म * * की स्थिति अल्प एवं शेष अघाति कर्मों की स्थिति अधिक होती है, तब * * अन्य कर्मों की स्थिति को आयुकर्म के समान करने हेतु वे समुद्घात करते हैं। इस समुद्घात को ही केवली समुद्घात कहते हैं। इस समुद्घात में केवली के आत्मप्रदेश दण्ड, कपाट. प्रतर. लोकपूरण, प्रतर, * कपाट , दण्ड तथा स्वदेहप्रमाण होते हैं। जब समुद्घात के चतुर्थ समय में लोक-पूरण अवस्था होती है, तब उनके आत्मप्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाशप्रमाण * प्रसरण को प्राप्त होते हैं। उसी विवक्षा से आत्मा लोकाकाश प्रमाण है। * सिद्ध जीव पूर्व शरीर से किंचित् न्यून आकार वाले होते हैं। आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिध्दान्तचक्रवर्ती ने लिखा है . किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा] (द्रव्यसंग्रह - १४) अर्थात् : सिद्ध जीव अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होते हैं। - इसे सुस्पष्ट करते हुए आचार्य श्री ब्रह्मदत्त ने लिखा है .. तत् किछिदूनत्वं शरीरोपाङ्गजनित नासिकादिच्छिद्राणामपूर्णत्वे : * सति यस्मिनेयाक्षणे सयोगिचरमसमये त्रिंशत् प्रकृत्युदय *विच्छेदमध्ये शरीरोपाङ्गनामकर्म विच्छेदो जातस्तस्मिन्नेव क्षणे 杂张张张张张经类杂染[a際经杂谈杂卷卷卷举本 张杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂 ***********

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