Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ ज्ञानांकुशम् * आचार्य श्री योगीन्द्रदेव विरचित ज्ञानांकुशम् मंगलाचरण *** शुद्धात्मानं परं ज्ञात्वा ज्ञानरूपं निरञ्जनम्। वक्ष्ये संक्षेपतो योगं, संसारोच्छेद कारणम् ॥१ ॥ , अन्वयार्थ : (परम्) श्रेष्ठ (ज्ञानरूपम्) ज्ञानरूप (निरञ्जनम्) निरंजन (शुद्धात्मानम् ) शुद्धात्मा को (ज्ञात्वा) जानकर (संसार) संसार का (उच्छेद) उच्छेद करने में (कारणम्) कारणभूत (योगम्) योग को मैं (संक्षेपतः) संक्षेप में (वक्ष्ये) मैं कहूँगा । अर्थ : श्रेष्ठ, ज्ञानरूप, निरंजन शुद्धात्मा को जानकर मैं संसार का • उच्छेद करने में कारणभूत ऐसे योग को संक्षेप में कहूँगा। भावार्थ: आर्षपरंपरा के अनुसार ग्रंथकार को सर्वप्रथम छह अधिकारों . का व्याख्यान करके फिर ग्रंथ की रचना करनी चाहिये। यथामंगल कारण हेदू, सत्थस्सपमाण णाम कत्तारा । पठम चिय कहिदव्या, एसा आइरिय परिभासा ।। (तिलोयपण्णत्ती - १ / ७ ) अर्थात् : मंगलाचरण, निमित्त हेतु, परिमाण, नाम और कर्त्ता इन छह अधिकारों की व्याख्या करके ही ग्रंथकार शास्त्र का व्याख्यान करते हैं। इष्ट देवता को नमस्कार करना मंगलाचरण है। अध्यात्ममार्ग स्वात्मश्रित होता है, अतः शुद्धात्मा का स्मरण ही यहाँ मंगलाचरण है। मंगलाचरण करने का प्रयोजन बताते हुए आचार्य लिखते हैं नास्तिकत्वपरिहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । *********

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 135