Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 12
________________ ******** जगांकुशम् ******-- पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नः शास्त्रादौ तेन संस्तुतिः ।। अर्थात् : नास्तिकता का त्याग, शिष्ट पुरुषों के आचरण का पालन, पुण्य की प्राप्ति और विघ्न की रहितता, इन चार लाभों के लिए शास्त्र के प्रारंभ में श्री जिनेन्द्र की स्तुति की जाती है। आचार्य श्री विद्यानन्द जी ने भी लिखा है श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहस्तदगुणस्तोत्रं, शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ।। J TV (आप्तपरीक्षा २) अर्थात्: परमेष्ठी के प्रसाद से मोक्षमार्ग की सम्यक् प्राप्ति और सम्यग्ज्ञान 'दोनों प्राप्त होते हैं। अतएव शास्त्र के प्रारम्भ में मुनिपुङ्गवों, सूत्रकारादिकों ने परमेष्ठी का गुणस्तवन किया है। जिसके लिए ग्रंथ बनाया जाता है वह निमित्त कहलाता है। इस ग्रंथ में शुद्धात्माभिलाषी भव्य जीव निमित्त है। शास्त्र बनाने का कारण बताना ही प्रयोजन है। इस ग्रंथ में भव्य जीव योगशास्त्र को जानकर शुद्धात्मपद का अधिकारी होवें यह प्रयोजन है। श्लोकसंख्या का कथन करना परिमाण नामक अधिकार है। इस ग्रंथ में कुल चवालीस श्लोक हैं। इस ग्रंथ का नाम ज्ञानांकुश तथा इसके कर्ता आचार्य श्री योगीन्द्रदेव हैं। इस श्लोक में ग्रंथकर्ता ने शुद्धात्मा के लिए तीन विशेषण दिये हैं। १. उत्कृष्ट : श्रेष्ठ, परम, उत्तम, प्रमुख और सर्वोच्च आदि इसी के नामान्तर हैं। आत्मा सर्व तत्त्वों में प्रधानभूत तत्त्व है। यही एक ऐसा तत्त्व है, जिसमें चेतना पायी जाती है। अतः सम्पूर्ण तत्त्वों में आत्मा सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है। २. ज्ञानरूप : ज्ञान आत्मा का अनन्य गुण है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द भगवान लिखते हैं - अर्थात् आत्मा ज्ञान प्रमाण है । ************* आदा णाण पमाणं (प्रवचनसार २३

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