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पञ्च महापातक
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यज्ञ में लिप्त क्षत्रिय या वैश्य को जो मारता है या जो भ्रूणहत्या करता है या किसी आत्रेयी नारी की हत्या करता है, उसे ब्राह्मण-हत्या का प्रायश्चित्त करना पड़ता है (अतः यह वाचनिक अतिवेश है)। याज्ञ० (३।२३२-२३३) ने गुरुतल्पगमन पातक को अन्य सन्निकट नारी-सम्बन्धियों (यथा मौसी या फूफी) के सम्भोग तक बढ़ा दिया है। इसे ताद्रूप्य अतिदेश कहते हैं। स्मृतियों ने बहुत-से कृत्यों को सामान्यत: महापातकों के समान या उनमें से किसी एक के समान माना है। यह साम्य अतिवेश कहा जाता है। इस विषय में कुछ शब्द अपेक्षित हैं । सामान्य नियम यह है कि महापातकों के समान पातकों के लिए आधे प्रायश्चित्त का दण्ड लगता है। वाचनिक या ताप्य अतिदेश के अन्तर्गत आनेवाले पातकों का प्रायश्चित्त महापातक के प्रायश्चित्त का तीन-चौथाई होता है। किन्तु इस विषय में सूत्रों एवं स्मृतियों में मतभेद है।
___ गौतम (२१।१०) के मत से कौटसाक्ष्य (झूठी गवाही), ऐसा पैशुन (चुगलखोरी)जो राजा के कानों तक किसी के अपराध को पहुँचा दे और गुरु को झूठ-मूठ महापातक का अपराध लगाना महापातक के समान हैं। मनु (१११५५अग्निपु० १६८१२५) में उपर्युक्त तीनों में से अन्तिम दो एवं अपनी जाति या विद्या या कुल के विषय में समृद्धि एवं महत्ता के लिए झूठा वचन (यथा, ब्राह्मण न होते हुए भी अपने को ब्राह्मण कहना) ब्रह्महत्या के बराबर कहे गये हैं। याज्ञ० (३।२२८) के मत से गुरु को झूठ-मूठ अपराधी कहना ब्रह्महत्या के बराबर है और अपनी जाति या विद्या के विषय में असत्य कथन करना सुरापान के समान है (याज्ञ० ३।२२९) । विष्णु (३७।१-३) के मत से मनु (१११५५) में वर्णित तीन पाप उपपातकों में गिने जाने चाहिए और कोटसाक्ष्य सुरापान के सदृश समझा जाना चाहिए (३६।२)। मनु (११५६ -अग्नि पु० १६८।२६) का कथन है कि वेदविस्मरण, वेदनिन्दा, कौटसाक्ष्य, सुहृद्वध, निषिद्ध-भोजनसेवन या ऐसा पदार्थ खाना जिसे नहीं खाना चाहिए---ये छः सुरापान के समान हैं। देखिए याज्ञ०३१२२८ जो ऊपर वर्णित है। मनु (९।५७) ने कहा है कि न्यास (धरोहर) या प्रतिभूति, मनुष्य, घोड़ा, चाँदी, भूमि, रत्नों की चोरी ब्राह्मण के हिरण्य (सोने) की चोरी के समान हैं। याज्ञ० (३।२३०), विष्णु (५।३८३) एवं अग्नि (१६८।२७) ने भी यही बात कही है। मनु (१११५८=अग्नि० १६८।१२८) के मत से अपनी बहिन, कुमारियों, नीच जाति की नारियों, मित्रपत्नी या पुत्रपत्नी के साथ विषयभोग का सम्बन्ध गुरुतल्पशयन, गुरु-शैय्या को अपवित्र करने के पाप के समान हैं। याज्ञ० (३।२३१) ने भी यही बात कही है, किन्तु सूची में सगोत्र नारी-सम्भोग भी जोड़ दिया है। गौतम (२३॥१२) एवं मनु (११।१७०) बहुत सीमा तक एक दूसरे के समान हैं। याज्ञ० (३।२३२-२३२) ने घोषित किया है कि उस व्यक्ति का, जो अपनी मौसी या फूफी, मामी, पुत्रवधू, विमाता, बहिन, गुरु की पत्नी या पुत्री या अपनी पुत्री के साथ सम्भोग करता है, लिंग काट लेना चाहिए और उसे राजा द्वारा प्राणदण्ड मिलना चाहिए और उस नारी की, यदि उसकी सहमति रही हो, हत्या कर डालनी चाहिए। नारद (स्त्री-पुसयोग, श्लोक ७३-७५) का कथन है-“यदि व्यक्ति माता, मौसी, सास, मामी, फूफी, चाची, मित्रपत्नी, शिष्यपत्नी, बहिन, बहिन की सखी, पुत्रवधू, आचार्यपत्नी, सगोत्र नारी, दाई, व्रतवती नारी एवं ब्राह्मण नारी के साथ सम्भोग करता है, वह गुरुतल्प नामक व्यभिचार के पाप का अपराधी हो जाता है। ऐसे दुष्कृत्य के लिए शिश्न-कर्वन के अतिरिक्त कोई और दण्ड नहीं है।" उपर्युक्त दोनों (याज्ञ० एवं नारद) के वचनों से व्यक्त होता है कि शिश्न-कर्तन एवं मृत्यु-दण्ड इस प्रकार के अपराध के लिए प्रायश्चित्त भी है और दण्ड भी है। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२३३) का कहना है कि इस प्रकार का दण्ड ब्राह्मण को छोड़कर अन्य सभी अपराधियों पर लगता है, क्योंकि मनु (८।३८०) ने व्यवस्था दी है कि ब्राह्मण अपराधी को मृत्युदण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, प्रत्युत उसे देश-निष्कासन का दण्ड दिया जाना चाहिए। विष्णु (३६।४-७) ने याज्ञ० एवं नारद की उपर्युक्त नारी-सूची में कुछ अन्य नारियाँ भी जोड़ दी हैं, यथा-रजस्वला नारी, विद्वान् ब्राह्मण की पत्नी या पुरोहित अथवा उपाध्याय की पत्नी। गुरु के विरुद्ध गलत अपराध मढ़ने (याज्ञ० ३।२२८ या मन ११४५५-याज्ञ० ३।२३३ या मनु १११५८) से लेकर अन्य अपराधों में कुछ महापातक के समान कहे गये हैं या कुछ पातक कहे गये हैं (वृद्ध हारीत ९।२१६-२१७ एवं
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