________________
जैनदर्शन में पुरुषार्थ का स्वरूप एवं उसकी महत्ता
- डॉ. श्वेता जैन पुरुषार्थ जैन दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य है। जैनदर्शन के समग्र साहित्य आगमग्रन्थ टीका, चूर्णि, नियुक्ति, दर्शन एवं व्याख्या ग्रन्थों में पुरुषार्थ के स्वरूप का विभिन्न आयामों में विश्लेषण सम्प्राप्त होता है। इन सभी ग्रन्थों में प्रमुखतः मोक्ष को लक्ष्य कर पुरूषार्थ का प्रतिपादन हुआ है। आगमों में धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ को ही केन्द्र में रखा गया है। किन्तु उत्तरकालीन साहित्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चतुष्ट्य का विवेचन प्राप्त होता है। अर्थ
और काम पर जैनदर्शन के अनुसार धर्म का नियंत्रण आवश्यक है। मोक्ष साध्य है और धर्म साधन है। धर्म की साधना से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है इस दृष्टि से जैनदर्शन के अनुसार जीव के द्वारा आचरणीय पुरुषार्थों में धर्म पुरूषार्थ ही प्रधान पुरूषार्थ है।
भगवान् महावीर के अंतिम उपदेशों के संकलित ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध आगम उत्तराध्ययन सूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपयोग के साथ वीर्य अर्थात् पराक्रम को जीव का लक्षण बताया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में यहाँ तक कहा है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम आदि धर्म आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते। कहने का अभिप्राय यह है कि पुरुषकार करने में मात्र जीव ही समर्थ हैं। जीव अपने आत्मभाव की अभिव्यक्ति पुरुषकार के माध्यम से ही करता है। अभिव्यक्ति ही नहीं जीवशब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श गति, स्थिति, लावण्य, यशः कीर्ति के साथ उत्थान, कर्म, बल, पुरुषकार पराक्रम का अनुभव भी करता है।
जीव के लक्षण के अतिरिक्त पुरुषार्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में भी आगम में चर्चा प्राप्त होती है। गणधर गौतम द्वारा पुरुषकार के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर भगवान् महावीर फरमाते हैं- “उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते"६ उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरूषकार पराक्रम सभी जीव के उपयोग विशेष है, इस कारण अमूर्त होने से वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित हैं। पुरुषार्थ का यह विश्लेषित स्वरूप है, जिसमें पुरुषार्थ के अंतर्गत उठने वाले एक-एक कदम को नामांकित किया गया है। यथा
उत्थान - आत्म-पौरुष की उद्यतता एवं तत्परता कर्म-आत्म-पौरुष के साथ की जाने वाली क्रिया बल-क्रिया में आत्म-शक्ति का प्रयोग वीर्य-आत्मशक्ति का प्रेरक रूप, जो सामर्थ्य का अनुभव करता है। पुरुषकार/ पराक्रम- प्रयत्नपूर्वक आत्मपौरुष का प्रयोग। राग-द्वेष के निमित्त से की गई उत्थान आदि प्रवृत्तियाँ 'पुरुषार्थ' तो कही जाती हैं, किन्तु