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प्रकाशकीय
प्राचीन भारतीय वाड्मय में जैन आगमों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इतिहास, दर्शन, समाज, संस्कृति, आयुर्वेद, भूगोल और ज्योतिष से सम्बन्धित अनेक नए तथ्य इस साहित्य में विकीर्ण रूप से बिखरे पड़े हैं। आगम-साहित्य के गूढ़ रहस्यों को प्रकट करने के लिए प्रथम व्याख्या - साहित्य लिखा गया, जिसका नाम निर्युक्ति रखा गया। संक्षिप्त शैली में निक्षेप पद्धति से शब्द की या विषय की व्याख्या करने वाला यह साहित्य अनेक नए तथ्यों को अपने भीतर समेटे हुए है ।
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आचार्य तुलसी की जागृत प्रज्ञा ने आगमों के सुव्यवस्थित सम्पादन का सपना संजोया । उनकी प्रेरणा से अंतेवासी शिष्य मुनि नथमलजी (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) समेत अनेक प्रबुद्ध संत इस महायज्ञ के साथ जुड़े और धीरे-धीरे लगभग १ लाख पृष्ठ के आस-पास आगम - साहित्य सम्पादित होकर प्रकाश
आ गया, जिसमें आगमों का मूलपाठ, भाष्य, अनुवाद और कोश- साहित्य भी सम्मिलित है । जैन विश्व भारती को इस महनीय कार्य के प्रकाशन का पुनीत अवसर मिला, इसके लिए यह पूज्यवरों के प्रति हृदय कृतज्ञ है।
आज के सुविधावादी युग में हस्तप्रतियों से प्राचीन ग्रंथों के सम्पादन का दुरूह कार्य अपना विशेष महत्त्व रखता है। जैन विश्व भारती द्वारा नियुक्ति - साहित्य के दो खण्ड पहले प्रकाश में आ चुके हैं। आवश्यक निर्युक्ति से सम्बन्धित दूसरा खण्ड प्रकाश्यमान है, उससे पूर्व पिण्डनिर्युक्ति नामक चौथा खण्ड विद्वानों के हाथ में पहुंच रहा है। प्रस्तुत पिण्डनिर्युक्ति ग्रंथ साधु की आहारचर्या एवं भिक्षाचर्या के दोषों से सम्बन्धित है। इस ग्रंथ में प्रसंगवश अनेक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं सामाजिक पहलू भी उजागर हुए हैं। इस ग्रंथ के सम्पादन का महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि एक ही भाषा-शैली में लिखे गए दो ग्रंथ निर्युक्ति और भाष्य को पृथक् करने का प्रयत्न किया गया है। इस ग्रंथ को जनभोग्य बनाने के लिए अनुवाद कार्य आगम मनीषी मुनि श्री दुलहराजजी ने किया है। इससे पूर्व भी मुनि श्री अनेक बृहत्काय ग्रंथों का अनुवाद कर चुके हैं। वर्तमान में भी वे स्थिरयोगी की भांति श्रुत की उपासना में अहर्निश संलग्न हैं । शारीरिक अस्वास्थ्य की स्थिति में भी उनका स्थिरयोग उन्हें आगमकार्य में दत्तचित्त बनाए रखता है ।
समणी कुसुमप्रज्ञाजी पिछले २८ सालों से आगम-व्याख्या साहित्य के सम्पादन कार्य में संलग्न हैं। ऐसे कार्य सूक्ष्म मनीषा, दृढ़ अध्यवसाय, सघन एकाग्रता और स्फुरित प्राणऊर्जा के बिना असंभव है। समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने लगभग ६ हस्तप्रतियों से पाठान्तर ही नहीं दिए अपितु अनके महत्त्वपूर्ण पादटिप्पण भी लिखे हैं । ग्रंथ में समाविष्ट २१ परिशिष्ट इसकी महत्ता को उजागर करने वाले हैं।
जैन विश्व भारती इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को प्रकाशित करते हुए अत्यन्त हर्ष का अनुभव कर रही है। इस गुरुतर कार्य हेतु मैं मुनिश्री एवं समणीजी को बधाई देते हुए यह मंगल कामना करता हूं कि भविष्य में भी जिनशासन की प्रभावना हेतु उनकी श्रुतयात्रा अनवरत चलती रहे और जैन विश्व भारती जन-जन तक आर्षवाणी को पहुंचाती रहे। संस्था परिवार को आशा है कि पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा ।
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सुरेन्द्र चोरड़िया
अध्यक्ष
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