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१५२. सर्वपरिज्ञाचारी न बद्ध होता है और न मुक्त
• प्रस्तुत सूत्र के चूर्णिगत और वृत्तिगत अर्थ १८३. बन्ध और मुक्ति के विधि-निषेध का ज्ञान १८४. परिग्रह और हिंसा का कार्यकारणभाव १८५. परिग्रह के अपाय और अपरिग्रह के गुण को देखने
वाले के कोई उपाधि नहीं १८६. बाल कौन ?
• इन्द्रिय-विषयों का आसेवन वास्तव में दुःख
तीसरा अध्ययन
१-२५. सुप्त और जागृत
१. सुप्त और जागृत के दो-दो प्रकार
. अमुनि सोता है, मुनि जागता है
• ज्ञानयोग की फलश्रुति २. दुःख की मीमांसा और उसका परिणाम ३. हिंसा-विरति का आलम्बन सूत्र • अहिंसा और अपरिग्रह के संदर्भ में समता की
व्याख्या ४. आत्मवान्, ज्ञानवान् आदि की व्यापक सन्दर्भ में
व्याख्या
• भेदविज्ञान का वाचक सूत्र ५. मुनि, धर्मविद् और ऋजु कौन ? ६. संग है आवर्त और स्रोत
• स्रोत शब्द के अनेक अर्थ ७. निर्ग्रन्थ कौन ? ८. वीर कौन ? ९. सुप्त अमित्र, जागृत मित्र १०. सुप्त : धर्म का अज्ञाता ११-१२. भावसुप्त पुरुष के अपाय १३. दुःख का उत्पादक है आरम्भ १४. पुनर्जन्म के दो कारण -माया और प्रमाद
१५. मृत्यु से मुक्त होता है ऋजु १६-१७. क्षेत्रज्ञ की परिभाषा और स्वरूप
० संयम और असंयम-दोनों का ज्ञान
अन्योन्याश्रित १८. कर्ममुक्त का व्यपदेश नहीं होता १९. कर्म से उपाधि २०. कर्म-निरीक्षण का निर्देश २१. हिंसा का मूल २२. कर्म-प्रतिलेखन २३. वीत राग की पहचान
आचारांगभाज्यम् २४-२५. लोकसंज्ञा का परित्याग और जागरण की दिशा में
प्रस्थान २६-४१. परम-बोध २६. जन्म-मरण को देखने का निर्देश
० पौर्वापर्य की स्मृति का लोप क्यों ? २७. कर्म-बन्ध और कर्म-बिपाक का अन्वेषण २८. त्रिविद्य परम का ज्ञाता होता है।
० परम की व्याख्या
० त्रिविद्य कौन ? २९. पाश का विमोचन ३०. हिंसाजीवी सर्वत्र भयभीत ३१. संचय का मूल कारण ओर उसका परिणाम ३२. आमोद-प्रमोद के लिए प्राणीवध
• वर-परम्परा की अभिवृद्धि ३३. हिंसा में आतंक देखना पाप-निवृत्ति का आलम्बन ३४. अग्र और मूल का विवेक
• राग-द्वेष मूल और कर्म अग्न ३५-३७. आत्मदर्शी कौन ? आत्मदर्शन का परिणाम
३८. ज्ञानी पुरुष की जीवनचर्या के सात सूत्र ३९. पापकर्म का क्षय दीर्घकाल-सापेक्ष ४०. 'सत्य' पद के १२ अर्थ
• प्रकरणगत सत्य शब्द के दो अर्थ
० कर्म-क्षय के लिए धृति की अपेक्षा ४१. पापकर्म के क्षय का उपाय ४२-४३. पुरुष की अनेकचित्तता ४२. प्रमत्त और लोभी का चित्त
• चलनी को पानी से भरना • लाभ और लोभ
• लाभ से इच्छा की अपूर्ति ४३. अनेक चित्त वाले व्यक्ति के धनोपार्जन के प्रकार ४४-५०. संयमाचरण
४४. संयम-साधना में संलग्न व्यक्ति का कर्तव्य ४५. अनन्य-आत्मा में रमण करने के दो हेतु ४६-४७. आत्मरमण के दो लक्षण-अहिंसा और ब्रह्मचर्य
४८. पाप का अनादर कौन करता है ? ४९. लघुभूतकामी की व्याख्या और प्रवृत्ति
५०. निमज्जन और उन्मज्जन ५१-७०. अध्यात्म ५१-५३. हिंसा-विरति के दो हेतु
५४. पाप-कर्म न करने के दो हेतु ५५. चित्त की प्रसन्नता का हेतु समता का आचरण
• समता है निविचारता
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