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श्री वर्धमान स्वामिने नमः
श्री
तत्त्वज्ञान-स्मारिका
हिन्दी-विभाग
भारतीय संस्कृति और विज्ञानवादका सुमेल
प्रतिपादन करनेवाले लेखका सौंग्रह
प्रकाशक
श्रीवर्धमान जैन पेढी
पालीताणा (सौराष्ट्र)
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श्री वर्द्धमानस्वामिने नमः
श्रीतत्त्वज्ञान-स्मारिका
हिंदी विभाग
CewsEra SWATION
arIONum
१ESSES
भारतवर्षीय-संस्कृतिकी आधारशिला पर भूगोल-खगोलके प्राचीन-अर्वाचीन विचारोंकी तटस्थ समीक्षारूए
BAPISRANAMATPEAR
PADMAAWAIMAR
ताविक लेखोका संग्रह
.
.
मध्यावमाही तत्त्वं ल
মাহি। श्री बर्द्धमान जैन पेढी पालीताणा प्रथमावृत्ति
वीर नि सं.
२५०८
वि. सं. २०३८
मूल्य पांच रुपया
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पुस्तक प्राप्ति के स्थान
श्री वर्धमान जैन पेढी
भाताखाता के पीछे, जैन आगम मंदिर के पास, तलेटी, पालीतामा (सौराष्ट्र )-३६४ २७०.
श्री वर्धमान जैन पेढी केशवकुंज-बउआ की पाल,
रायपुर चकला, अहमदाबाद-३८०००१.
% 3D
SCIENCE WITHOUT
PHILOSOPHY IS LAME PHILOSOPHY WITHOUT SCIENCE
IS BLIND
मुद्रक :
जगदीश मणिलाल शाह
नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस, धीकोटा रोड, अहमदाबाद-३८०००१
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श्री वर्धमानस्वामिने नमः ।
Nnidin
प्रकाशक की ओर से......
सुज्ञ विद्वज्जन एवं जिज्ञासु-वाचकों के समक्ष महत्वपूर्ण एक नई चीज भेटरुप लेकर हम आनन्दगौरव के साथ उपस्थित हो रहे हैं ।
जिसे पाकर जिज्ञासु-वाचक एवं तटस्थ-विद्वान जरुर ऐसी धन्यता का अनुभव करेंगे कि___ “भारतीय साहित्य में प्रायः अविचारित या करीबन उपेक्षित भूगोल-खगोल सम्बन्धी अनेक प्राचीन - अर्वाचीन विचारधारा का प्रस्तुतीकरण एवं भारतीय-आर्यसंस्कृति की अमूल्य विरासत की पहचान करानेवाले महत्त्वपूर्ण अनेक निबंधों के संग्रहस्वरुप "श्री तत्त्वज्ञान-स्मारिका" नामक विशालकाय ग्रन्थ की सर्वदेशीय उपयोगिता कितनी है ?"
अत एव कुछ संस्कृतिप्रेमी-महानुभावों की सूचनानुसार उसी विशाल स्मारिका-ग्रन्थ को विषय विभाग एवं भाषा-विभाग की दृष्टि से विभक्त कर खंडानुसार छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के रुप में विविधजिज्ञासुओं की इच्छारुचि को सन्तुष्ट करने के शुभ-आशय से पृथक पुस्तक के रूप में सुज्ञ-विद्वान एवं जिज्ञासु-वाचकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं ।
वास्तव में ! भारतीय-संस्कृति का प्राण अध्यात्मवाद एवं विज्ञान है !
किंतु
वर्तमानकाल में भौतिकवाद-मिश्रित विज्ञान की नींव' पर पाश्चात्य-संस्कृति विकास पा रही है ! ! !
फलस्वरूप बचपन से ही शिक्षण के माध्यम पर भौतिकवाद एवं विज्ञान की चकाचौंध में आकर नवशिक्षित विद्वान एवं नई पीढी अज्ञानवश . एवं कालदोष के बल पर घर में रहे हुए निधानतुल्य अध्यात्मवाद-तत्त्वज्ञान के मर्म को समजने से वंचित हो रही है।
इस निष्कर्ष को लक्ष्य में रख कर पू. आगमोद्धारक, आगमवाचनादाता, आगमसम्राट्, पू. ध्यानस्थ स्वर्गत आ. श्री आनन्दसागर-सूरीश्वरजी म. के पट्टप्रभावक पू. आ. श्री चन्द्रसागर सूरीश्वरजी के परमविनेय तपोमूर्ति विशुद्धसंयमी शासनज्योतिर्धर पू. उपा. श्री धर्मसागरजी म. के शिष्य पू. पं. श्री अभयसागरजी म. गणीवर्यश्री ने पीछले ३४ साल से नई पीढी की धर्मश्रद्धा को डिगमिगानेवाले भूगोलखगोल के मौलिक तथाकथित-सिद्धान्तों को गहरे अभ्यास और संशोधन कर के गलत साबित किये, और वास्तविक स्थिति का परिचय देने हेतु शाश्वतप्रायः श्री सिद्धाचल-महातीर्थ की पवित्र-छाया में जैनआगम मन्दिर के पास भातेखाते के पीछे आतपर के रोड पर ८ एकड़ की विशाल जमीनपर ५० रुपयो के ब्यय से तैयार होने वाली जंबूद्वीप योजना की हमें प्रेरणा दी।
फलतः पृथ्वी गोल नहीं-पृथ्वी घूमती नहीं" इस तथ्य को वैज्ञानिक ढंग से प्रमाणित करने हेतु १४ राजलोफ, तीर्थोलोक, मनुष्यक्षेत्र, जंबूद्वीप, भरतक्षेत्र, मध्यखंड एवं वर्तमान विश्व के
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पेढी
विविध प्रमाणयुक्त बन्दर मोडल रचना एवं आकृति-चित्र मकराणा के मारबल आरस, गा पोरबन्दर के लालपाषाण पर भव्य कलात्मक रूप से प्रस्तुत करने का कार्य अभी धमधोकार चालु है
अगले पाँच वर्ष में साकार होने वाली इस योजना से नई पीढ़ी की धर्मश्रद्धा रहे पाये सुदृढ़ बन पायेंगे ।
इस योजना के आद्य प्राणरुप चरम-तीर्थकर प्रभु महावीर परमात्मा है, उन्हीं. आगमा' क आधार पर यह योजना मूर्त बन रही है ।।
__ इसीलिए ONE OF INDIA रुप भव्य जिनालय श्री महावीर परमात्मा २८ फीट का परिकर एव २१ फीट के मंगलतोरण सुशोभित आदमकद प्रतिमा वाला श्री महावीर परमात्मा का पूर्वाभिमुख भव्य निनालय श्री जंबूद्वीप योजना के पास ही अद्भुत भव्य १०॥ फीट उँची पीठिका २० फीट का विशाल भूमिगृह और १११ फीट उँचा शिखर आदि विशेषतायुक्त ५. लाख के खर्च से तैयार
इस जिनालय के २०३७ के फालान कृष्ण २ के शिलास्थापन के अवसर पर इन योजनाओं का महत्त्व समजानेवाले अनेक लेखो' से समृद्ध श्री तत्त्वज्ञान-स्मारिका प्रकाशित करने का निर्णय सं. २०३६ के श्रावण मास में पाटण ( सागर के उपाश्रय) में चातुर्मास स्थित पू. उपा. श्री धर्मसागरजी म. के शिष्य पू, पं. श्री अभयसागरजी म. की निश्रा में हुआ था ।
तदनुसार पू. आचार्य आदि पदस्थ एवं विद्वान मुनिराज जैन तथा जेनेतर विद्वानों को आमंत्रण पत्र भेज कर विविध लेखो को पाने की चेष्टा की ।
___ आश्चर्य की बात है कि-देवगुरु के प्रताप से आषाढ़ी वृष्टि की ज्यो विविध लेखो की बौछार हमारे पर हुई, जिस से खूब ही समृद्ध रुप में "श्री तत्त्वज्ञान-स्मारिका'' ८०० पेज की समृद्ध-ग्रन्थके रुप में तैयार होकर श्री-संघ की सेवा में प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
किन्तु रुचिभेद के कारण संब.को सभी लेख अनुकूल न आवें, अतः उसी स्मारिका-ग्रन्थ को खंड एवं विषय-विभाग के अनुरुप छोटी छोटी पुस्तिका के रुप में प्रकाशित करने का निर्णय कुछ सहृदय धर्मप्रेमी सज्जनों की सूचना के अनुरूप किया है ।
तद्नुसार यह प्रकाशन विशेष उपयोगी होगा ऐसी हमारी धारणा है ।
इस प्रकाशन स्मारिका में निर्दिष्ट अनेक पू. श्रमण भगवन्त है ओर धर्मप्रेमी महानुभावो का पुण्यसहयोग प्राप्त हुआ है । उन सब का यहाँ पुनः नामनिर्देश करना ठीक नहीं समझ कर मात्र पहले के क्रन्थ में गलती से छूटा हुआ पू. आ. श्री दर्शनसागर सूरीश्वरजी के शिष्य पू. गणी श्री महायशसागरजी म. के प्रति हम खूब श्रद्धांजलि के भाव से नत मस्तक हैं कि जिन्हों ने खूब ही श्रम उठाकर मुद्रण सम्बन्धी अनेक विशिष्ट जवाबदारीयाँ प्रारंभ में उठाकर हमारे इस मुद्रण कार्य को वेगशीली बनाया था ।
___ आखिर में नम्र निवेदन है कि तटस्थ-दृष्टि से लेखों की संकलना के मूल आशय को दृष्टिगत रखकर सुज्ञ विवेकी वाचक इन लेखों का सत्यान्वेषी दृष्टि से अवगाहन करें।
मुद्रणदोष दृष्टिदोष एवं छद्मस्थतावश इस प्रकाशन में कोई त्रुटी रही हो तो परिमार्जन कर लें, और हम उस बदल हार्दिक क्षमा माँगते है ।
वीर नि. सं. २५०८
निवेदकवि. सं. २०३८
श्री वर्धमान जैन पेढी भषाड सुद १ मंगळ
जैन आगम मन्दिर के पास, भाथाखाता, तलेटी के पीछे, २२-1-८२
पालीताणा-३६४ २७० ता. क. :-लेखको के विचारों के साथ संपादक या प्रकाशक सम्पूर्ण सहमत होने की कोई धारणा न करें ।
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શ્રી વર્ધમાન સ્વામિને નમઃ આર્ય સંસ્કૃતિ અને વિજ્ઞાનવાદની વિચારભેદની ખાઈ પૂરવાનું
પ્રશસ્ત કામ કરનાર લેખોથી ભરપૂર. તત્ત્વજ્ઞાન અને ભારતીય સંસ્કૃતિના
માનદંડથી પૃથ્વીના આકાર-ગતિ
અને ચંદ્રયાત્રા-વિષય
ના લેખોનો સંગ્રહ
છે.
તવજ્ઞાન-સ્મારિકા
હિંદી-વિભાગ પૃષ્ઠ : ૧ થી ૧૩૬
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શ્રી વર્ધમાન સ્વામિને નમઃ
शु.... .... .... ??? ४यां........ .... ???
१२-१४ १५-२१ २२-२६ २७-२९ ३०-३२ ३३-३८
१ ॐ नमः सिद्ध २ ऋतं सत्यं च ३ बीजाक्षर एवं उनका महत्व ४ नाद बिन्दु कला ५ सूर्य-प्रज्ञप्तिके आधारपर सर्यकी गति ६ वैदिक साहित्यमें पृथ्वी ७ दार्शनिक-आलोकमें आत्मा ८ वैदिक-साहित्य में आत्मा ९ जैन-दर्शन और अस्तिकाय १० परमाणु-पुद्गल-संस्थान ११ सप्तभंगी १२ ज्योतिष विज्ञान १३ वैज्ञानिकी दृष्टिमे सौर-परिवार १४ जन-साहित्यमे भूगोल १५ सुख-मीमांसा १६ भावना-वर्गीकरण १७ प्राचीन-भारत की जन शिक्षा प्रणाली १८ पाटन और हिन्दी १९ देवलोक की सृष्टी २० योगशास्त्रके अनुसार भुवनेांका स्वरुप २१ पृथ्वी गोल नही २२ पृथ्वी संबंधी नवीन तथ्य
४२-५१ ५२-५८ ५९-७६ ७७-८१ ८२-८५ ८६-८९ ९०-९२
९७-१०१ १०२-१०९ ११०-११५ ११६-१२२ १२३-१२८ १२९-१३६
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॥ श्री वर्धमान स्वामिने नमः ॥
नमः सिद्धं
1PTE
(रहस्यात्मक विवेचन) ले. अध्यात्मयोगी पूज्य पंन्यास श्री भद्रंकरविजयजी महाराज
संसार के सभी धर्मों में सिद्ध पद का | सिद्ध एवं जगत्प्रसिद्ध वर्गों की मैं श्लोकरूप पुष्पो महत्त्व गाया गया है।
से अर्चना करता हूँ। ___ "सिद्धो वर्णः, अर्थात् भाषाओं के आधार यह मातृका अनादि है, अनन्त है। वर्ण स्वयं सिद्ध हैं-कह कर यह उद्घोष किया। कहा गया है “न विद्या मातृका परा" गया है कि
(स्वच्छन्द तंत्र) अर्थात् मातृका से पेर कोई विधा ___इहलौकिक एवं पारलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त
नहीं है"। करने के लिए वर्णमातृका की सिद्धि परमावश्यक
___इसे मातृका कहने का यह कारण है किहै। वर्णमाला को यौगिक भाषा में मातृका कहते
यह बुद्धिमान पुरुषों के ज्ञानमय तेज का जनन, हैं। इन्हें अक्षर भी कहते हैं क्योंकि इनका नाश
परिपालन एवं विशोधन करती है अतः इसका कभी भी नहीं होता।
माता के समान महत्त्व है। माता नानाविध कष्टों श्री सिद्धसेनसूरि विरचित "सिद्ध मातृका
को सहनकर अपनी संतान को स्वहित, परहित, भिध धर्म प्रकरण" के ६२वे श्लोक में कहा
इहलोक एवं परलोक के लिए तैयार करती है । गया है
मातृका भी ज्ञान-विज्ञान का बीजरूप बन
संसार की बद्ध एवं मुमुक्षु आत्माओं को अपनी सिद्धान्त तर्क श्रुत शब्द विद्या
अपनी भावनाओं के अनुरूप फलप्रदा होती वंशादि कंद प्रतिम प्रतिष्ठान् ।
है। श्री सिंह तिलकसूरि विरचित "मंत्र राज रहअनादि-सिद्धान् सुमनः-प्रबन्धैः,
स्य" में लिखा हैवर्णान् महिष्यामि जगत्प्रसिद्धान् ॥६२॥ षोडश चतुरधि विंशतिरष्टौ नाभौ दलानि हृदिमूनि।
सिद्धान्त, तर्क, श्रुत, शब्द एवं विद्याओं रूपी आद्यं हान्तं वर्णाः शरदिन्द कला नमःप्रभवाः वंशों के आदि कन्द रूप में प्रतिष्ठित अनादि
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तत्त्वज्ञान स्मारिका अर्थात् बिन्दु एवं कला में से उत्पन्न अ से । महाभाष्यकार महर्षि पतञ्जलि ने भी वर्गों ह पर्यन्त के वर्गों में से क से म तक २५ व्य- का, या वर्णमातृका का, बड़ा महत्त्व प्रतिपादित अन, अ से अः तक के १६ स्वर, एवं य से ह किया है। वे ब्रह्मज्ञान के लिए वर्णज्ञान को पर्यन्त के ४ अन्तस्थ, एवं चार ऊष्म आ जाते । परमावश्यक मानते हैं। हैं । भूमिति शास्त्र के सिद्धान्तानुसार बिन्दु में वर्ण-ज्ञानं वाग्विषयो यत्र च ब्रह्म वर्तते । से रेखा बनती है, एवं रेखा में से वृत्त । यह तदर्थमिष्टेबुद्धयर्थे 'लध्वर्थ चोपदिश्यते ॥ रेखा कला की प्रतीक है।
___ महाभाष्य १।१२ संसार की समस्त भाषाओं की चित्रात्म- शैव तंत्र में ६.४ कलाओं का प्रतिपादन पती बिन्दु एवं कला पर ही आधारित है। किया गया है तो पाणिनीय शिक्षा में भी बिन्दु और कला के योग से जो भाव आकार | "त्रिषष्टि चतुःषष्टि; वर्णाः शम्भुमते मताः" ग्रहण करता है, उसकी अनुगुंज नाद है, जो | अर्थात् शैव तंत्र के अनुसार वर्ण ६३ या ६४हैं। अपने ध्वनि-सामर्थ्य से संसार के त्रिगुणात्मक जैनागम का हृदय-बिन्दु सिद्धचक्र भी रूप में संक्षोभ पैदा कर, तदनुसार तरंग चक्र | | वर्णमाला का शाश्वत समुदाय है, एवं ऋषिमण्डल का निर्माण कर, साधक की भावनाओं को मूर्त स्तोत्र में भी इसी सिद्ध वर्ण की उपासना समंरूप प्रदान करता है।
कित है। बिन्दु, कला एवं नादमय यह वर्ण ही इन वर्गों का प्रत्येक का अपना एक सिद्ध है और मंत्रों में बीजाक्षर बन महत्त्वपूर्ण आकार एवं अर्थ है जैसेबनता है।
अ-नहीं। आ-अच्छी तरह । इ-गति । वों के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए उ–और । ऋ-गति । लु-गति । ऋग्वेद में कहा गया है
क-सुख । ख-आकाश । ग-गति । ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे । च-पुनः । ज-उत्पन्न होना । झ-नाश । यस्तन्न वेद किमृचा करिष्याति
त-पार । थ-ठहरना । द-देना । य इत्तद्विदुस्त इमे समासते । ध-धारण करना । न-नहीं। प-रक्षा करना।
ऋग्वेद ९।९६४।३६ भ-प्रकाश करना । म-नापना। य-जो । अर्थात् ऋचाएं परम अविनाशी शब्दमय र-देना। ल-लेना। व-गति । अक्षर में ठहरी हैं, जिन में देवता अर्थात् । स-साथ । ह-निश्चय अर्थ । शब्द के विषय (अर्थ) ठहरे हैं। जो अक्षरार्थ ___तीर्थंकर २४ हैं, उन्हें हृदय-कमल के २४ को नहीं जानता है, वह ऋचाओं से क्या लाभ दल माना जा सकता है, एवं २५ वा 'म' प्राप्त करेगा।
| कर्णिका में हैं । इसे प्रकारान्तर से यों भी कहा
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३ तीसरा
ॐ नमः सिद्ध जा सकता है कि क से म पर्यन्त २४ व्यञ्जन । “ॐ क्या है ? यह अ, उ, म् आदि तीन हैं एवं कर्णिका का 'म' अनुनासिक है, जो वर्णों से बना है ? इन २४ दलों में अनुगुंजित है।
यह 'अ' वर्णमाला का प्रधान या बीजायोग शास्त्रानुसार नाभिकमल में १६ पत्र | क्षर है । पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है :-- हैं, जो १६ स्वर रूप में प्रकाशमान हैं । स्वयं "सर्वमुख स्थानं वर्णमित्येके " * अर्थात् राजन्ते इति स्वराः अर्थात् वे स्वयं प्रकाशमान हैं, मुख-उच्चारित सभी वर्गों में केवल एक 'अ' सिद्ध हैं, एवं व्यञ्जनात्मक प्रकाशमान-दृश्यमान
। ही प्रधान है। संसार का आधार है । इन स्वरों के बिना व्यञ्जन
समस्त शब्द-समूह, और समस्त ध्वनि अपूर्ण हैं, अनुच्चरणीय हैं।
समूह, स्थान-प्रयत्न भेद से उसी एक आकार वैसे ही मुख में अष्टदल कमल है, जो
का ही रूपान्तर है। अन्तस्थ एवं ऊष्म रूप में (य-र--ल-व-श-प
यही आकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित स-ह) वर्णमालामें प्रसिद्ध है।
रहता है, एवं बिना उसकी सहायता के न तो
कोई वर्ण कहते बनता है, एवं न उसे समझा ही इस वर्णमाला को शाश्वत-ज्ञान का प्रतिक
जा सकता है। माना जाता है, एवं यह प्राणी-मात्र के लोक
यह 'अ' अपने प्रबल अस्तित्व के कारण निर्माण तथा परलोक-साधना में आधारभूत है ।
अन्य वर्णों का अभाव एवं अपनी पूर्णता सूचित इसकी साधना के बल पर ही श्रुतसागर करता है, अतः यह बिन्दुरूप है। में अवगाहन किया जा सकता है । इसके महत्त्व सभी वर्गों को यह स्तम्भ बन स्थायित्व का प्रतिपादन करते हुए योगशास्त्र के अष्टम प्रदान करता है, एवं दण्डरूप में उनका नियमन प्रकाश में यह उल्लेख किया गया है कि- करता है, यह उसका कला रूप है। इमां प्रसिद्ध सिद्धान्त-प्रसिद्धाम् वर्णमातृकाम् ।। इसी कलामय रूप से यह हलन्त अथवा ध्यायेद् यः स श्रुताम्भोधेः पारं गच्छेच्च तत्फलात्॥ अपूर्ण वर्णों को उच्चारणों में सुकर करता है,
अर्थात् जो ज्ञानी पुरुष इसी वर्णमातृका | अतः यह उसका नादात्मक कार्य है। ... का ध्यान करता है वह अवश्य ही श्रुतसागर का
एक ही वर्ण में बिन्दु कला एवं नादरूप पार पा सकता है।
ब्रह्म की त्रिविधात्मिका शक्ति सन्निविष्ट है । यही वर्णमाला या मातृका मंत्रशास्त्र, तंत्र
यही 'अ' प्रधान है, प्रमुख है, प्रथम है,
| एवं अनादि, अनन्त तथा अमृतरूप भी है। शास्त्र, तथा योग शास्त्र का मूल बीज हैं।
श्रीमद् भगवद्गीता में कहा गया है" ॐनमः सिद्धम् ” में इसी सिद्ध पद । “अक्षराणामकारोस्मि" अर्थात् “ अक्षरों में मैं की उपासना, अर्चना एवं वन्दना की गई है।। अकार हूँ।
*अकारादेव सर्वेषामक्षराणां समुद्भावः । स्थान प्रयत्नादि भेदेन, स्याद्विशेषः प्रकाशते ॥ अहंदगीता २६४
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४]
तत्त्वज्ञान स्मारिका
[ खंड - हस्व, दीर्ध एवं प्लुत भेद से यह स्वयं यह उ पुष्टिदाता भी है, एवं मुक्तिदाता तीन प्रकार का है, जो क्रमशः सत्त्व, रज एवं भी । तमो गुणों का प्रतीक है।
म वर्णमाला का २५ वाँ अक्षर है, एवं - इसका अर्थ सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, | अनुनासिक हैं। अव्यय, एक, अखण्ड, निषेध, अभाव आदि यह हृदयकमल की कर्णिका में स्थित है। होता है और ये सब अनादिसिद्ध पुरुष के इसकी आकृति, बिन्दु एवं कलामय है गुण अथवा विशेषण हैं।
एवं आहत से अनाहत की ओर बढनेवाला है। ४. यह कंठ से उच्चरित है जो नादका-केन्द्र- इसके चन्द्र एवं बिन्दु, सूर्य एवं चन्द्र के प्रतीक स्थान है।
माने जा सकते हैं। 'उ' पांचवाँ स्वर है, जो पंच भूतात्मक इसके चारों ओर स्थित २४ दलों में क संसार का रूप अपने में समाविष्ट करता है। से म पर्यन्त २४ वर्ण हैं, जो जैनों के २४
. इसमें दो बलय हैं, एक ऊपर का, एवं तीर्थंकर, हिन्दुओं के २४ अवतार, एवं बौद्धों दूसरा नीचे का, दोनों के बीच में एक बिन्दु के २४ बुद्धों के प्रतीक माने जा सकते हैं। है । ऊपर का वलय उर्ध्व लोकों का, एवं नीचे पाणिनीय शिक्षा के अनुसार " कादयो का वलय संसार का प्रतीक है। बीच का बिन्दु | मान्ता स्पर्शाः ” अर्थात् ' क ' से लगाकर 'म' यह बताता है कि ब्रह्म की बिन्दु रूपात्मक | पर्यन्त वर्ण स्पर्श हैं । आकृति से ही द्विभावात्मक संसार का सर्जन दार्शनिक भाषा में स्पर्श का अर्थ है इन्द्रियहोता है।
संवेद्य वस्तु । इस प्रकार 'म' दृश्यमान संसार संगीत में पंचम स्वर प्रमोद एवं हर्ष का का प्रतीक हुआ । सूचक माना जाता है, अतः पंचम स्वर होने के | अ का अर्थ है अतीन्द्रिय जगत् , एवं उ कारण यह उ भी प्रमोद एवं हर्ष का सूचक है। का अर्थ है सतत गमन ।
यह पंच परमेष्ठियों का भी अनुव्यञ्जन | अब पूरे ॐ का अर्थ हुआ इन्द्रिय-संवेद्य करता है, एवं पंचम होने के कारण पाँचों में ज्ञान से अतीन्द्रिय जगत की ओर सतत गमन सर्वोपरि अरिहंत का रूप है।
करवानेवाली बीज वस्तु । ___ यह 'उ' अत्+ड धातु-प्रत्यय से बना अर्थात् दृश्य एवं अदृश्य, संसार का आदि है, जिसका अर्थ होता है ' सतत गमन'। एवं अन्त, इसी में व्याप्त है यानी यह ब्रह्मस्व
अर्थात् यह व्यक्ति को सतत गतिशील | रूपी है। बनाता है, एवं अ-अव्यक्त की ओर " चरैवेति । ___ अ से प्रारम्भ, उ से गमन, एवं म में चरैवेति "-" चलते रहो, चलते रहो" (ऐतरेय मापन, क्योंकि म् मा (मापना) धातु का ब्राह्मण ग्रंथ) का संदेश देता है ।
प्रतीक है।
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३ तीसरा ]
माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है
ॐ नमः सिद्धं
"
यह
अध्यक्षर रूप परमात्मा त्रिमात्रिक ऊँकार है ।" अकार; उकार एवं म कार इसके तीन पाद हैं, और ये पाद ही मात्राएँ हैं ।
प्रथम मात्रा अकार सर्वव्यापक और आदि होने के कारण जागृत अवस्था की द्योतक है द्वितीय मात्रा उकार श्रेष्ठ और द्विभावात्मक होने से स्वप्न अवस्था, एवं तृतीय मात्रा म कार मापक और विलीन करनेवाली होने से सुषुप्ति अवस्था की द्योतक हैं ।
ये ही तीन मात्राएँ क्रमशः विश्व, तैजस एवं प्राज्ञ नामक तीन चरणों की द्योतक हैं ।
मात्रा रहित ॐकार अव्यवहार्य, प्रपंचातीत एवं कल्पनारुप है यही ब्रह्म का चतुर्थ
चरण है ।
तांत्रिक परिमाषा में बिन्दुनवक अर्द्धमात्रा रूप है । यह ॐकार त्रिमात्ररूप है, इसलिए जैनागमों में ॐ के प्रणिधानपूर्वक नवपद की आराधना अनिवार्य बताई गई है ।
[५
प्र= प्रपंच न=नहीं है वः = तुम में अर्थात् आत्मा में कोई प्रपंच नहीं है, एवं उसका सदैव स्मरण आत्मा के रहे - सहे कलुष को भी समाप्त कर देता है |
श्री पंच परमेष्ठि वाचक यह ॐकार अ+अ + आ + उ + आदि ५ वर्णों के योग से बना है । जिन्हें क्रमशः अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का प्रतीक कह सकते हैं । यह परमेष्ठी- भगवन्तों का एकाक्षरी मंत्र है । ' पंचनमस्कृतिदीपक' नामक ग्रंथ में पूज्यपाद समन्तभद्रसूरि ने इसकी महिमा इस प्रकार गई है कि
" श्वेत वर्ण से ध्यान करने से यह ॐ शान्ति, तुष्टि, पुष्टि आदि प्रदान करता है, लाल वर्ण से ध्यान करने से यह वशीकरण करता है, एवं कृष्ण वर्ण से ध्यान करने से शत्रु का नाश, तथा धूम्रवर्ण के ध्यान से यह स्तम्मन करता है । "
6
'नमः' में चार वर्ण एवं एक विसर्ग है, जिनके अर्थ है न्-नहीं, अ-अभाव, मू- नापना, अ-पूर्णता, विसर्ग-विशिष्ट सृष्टि यानि सचराचर सृष्टि की पूर्णता के गायन - मूल्याङ्कन में अपूर्णता नहीं होनी चाहिए ।
नव पद, सिद्धचक्र का रुढि - प्रयुक्त नाम 'है । 'प्रयोग क्रम दीपिका' में कहा गया है। अकारो भूरुकारस्तु भुवो, मार्ण स्वरीरितः ॥ ११ ॥ अर्थात् अ, उ, म् में भूः, भुवः स्वः तीनों का समावेश हो जाता है । ॐकार को प्रणव भी कहते हैं । शिव पुराण में कहा गया है"नूतनं वै करोतीति प्रणवं तं विदुर्बुधाः " ।
नित्य नवीनता उत्पन्न करनेवाला होने से पण्डित - जन इसे प्रणव कहते हैं ।
वेदों में कहा गया है " तन्नम इत्युपासीत " अर्थात् "वह नमः ही है उसकी (अर्ह) उपाप्रणव का अर्थ है - प्रकृति से उत्पन्न हुए सना करो । नमः की छन्द शास्त्रानुसार तीन संसार के लिए यह नौ= नौका रूप है । अथवा | मात्राएँ प्रणव की त्रिमात्रता की सूचक हैं ।
सचराचर सृष्टि का भौतिक प्रतीक वर्णमातृका है एवं परा प्रतीक 'अर्ह" है जो मातृका कासाररूप है ।
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तत्त्वज्ञान स्मारिका
[ खंड त्रिमात्र का अर्थ है संसार अर्थात् नमने- नमः का विलोम मनः है, 'मन' संसार का वाले को संसार की सभी वस्तुएं आसानी से प्रतीक है, तो नमः मोक्ष का प्रतीक है । मन से उपलब्ध हो जाती हैं।
चलोगे तो बन्ध होगा, एवं उसके विपरीत चलोगे __ ये न और म दोनों अनुनासिक है, एवं | तो मोक्ष होगा-"मनः एव मनुष्याणां कारणं विसर्ग प्राणध्वनि है । ये दोनों प्राणायाममय बन्धमोक्षयोः ।" हैं। विसर्ग का उच्चारण-स्थान नाभि है ।
नमः अष्टांग योग का प्रतीक है । आठों प्राणायाम में नाभि नीचे का अंग, एवं नासिका
ही अंगों का जब हम द्रव्य-भाव रूप से संकोच उर्व अंग माना जाता है।
करते हैं, तभी किसी को नमस्कार होता है । ये इस प्रकार यदि 'नम्' को नासिकादि उर्ध्व
आठों अंग अ वर्गादि श वर्ग पर्यन्त आठों वर्गों अंगों, एवं विसर्ग को नाभि आदि अधो अंगोंका
| के प्रतीक हैं, जिनका न्यास ऋषिमण्डल स्तोत्र प्रतीक माना जाय तो यह शरीर के द्रव्य-संकोच
में शरीरांग में किया गया है :का प्रतीक हो जाता है।
| आद्यं पदं शिखां रक्षेत् , परं रक्षेत् तु मस्तकं, साथ में यदि आन्तरिक भावनाओं का
तृतीयं रक्षेत् नेत्रे दे, तुर्य रक्षेत् च नासिकां; भी संकोच कर दिया जाय तो यह भाव-संकोच |
पंचमं तु मुख रक्षेत् , षष्ठं रक्षेत् च घण्टिकां, का प्रतीक बन जाता है, यही योगरूप है क्योंकि
नाभ्यन्तं सप्तमं रक्षेत् , रक्षेत् पादान्तमष्टमम् वह भी तो चित्तवृत्तियों का विरोध-नियमन
॥६-८॥ ही है-"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" । 'नम्' धातु से ' नमः' बना है, जिसका
नमः पद सर्वोत्कृष्ट शरणागति का सूचक अर्थ है झूकना, अर्थात् यह नम्रता, विनय एवं | है,
है, क्योंकि जिसे नमस्कार किया जाता है उसकी सरलता का प्रतीक है।
शरण का स्वीकरण होता हैं। उसमें शरीरांग - किसी के गुणों को हम नीचे झुक कर |
एवं-आत्म प्रदेशों का समर्पण है । इस प्रकार या शिष्यत्व ग्रहण कर ही ले सकते हैं।
"ॐ नमः सिद्धम्" का अर्थ हुआ (मैं) अ-उ- पाणिनीय व्याकरण की “ नमः योगे
म् व्यक्त संसार से अव्यक्त सिद्ध पद (ब्रह्म) की
ओर गमन करने के लिए सर्व समर्पणपूर्वक सिद्ध चतुर्थी " की दार्शनिक व्याख्या इस प्रकार की
पद वाचक अर्ह की शरण स्वीकार करता हूँ। जा सकती है कि ननः से चतुर्थी अवस्था मोक्ष | की प्राप्ति होती है । मोक्ष की पूर्वावस्थाएँ धर्म, अब रही 'सिद्धम्' की बात । अ से क्ष अर्थ, काम आदि तो सहज ही प्राप्त होती हैं। पर्यन्त पचास वर्ण सिद्धरूप में प्रसिद्ध हैं, तो नमः यह बताता है कि सिद्धत्व को प्राप्त उनका ही चक्र (समुदाय) सिद्ध-चक्र कहा करने के लिए सिद्ध को नमस्कार करो। | जाता हैं
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३ तीसरा ]
ॐ नमः सिद्धं "अकारादि क्षकारान्तानां पञ्चाशत् सिद्धत्वेन | वान होता है। इसी अर्थ में समग्र संसार का प्रसिद्धानां यच्चक्रं समुदायस्तत् सिद्धचक्रम् । । ज्ञान-विज्ञान सिद्धपद निहित है।
सिद्धहेम शब्दानुशासन बृ. वृ. वर्णमातृका को लिपिमयी देवी भी कहते हैं, इनमें एक चन्द्र बिन्दु मिला दिया जाय | यह वर्णमातृका का लौकिक रूप है। सूत संहिता तो ये ५१ हैं । शरीर में इक्यावन ही शक्ति- | के टीकाकार माधवाचार्य ने तात्पर्य दीपिका में पीठ हैं और मातृका न्यास भी तदनुरूप ही | लिखा है किहोता है, इसीलिए सिद्ध चक्र एवं ऋषिमंडल यंत्र । ___मातृका का पररूप परा और पश्यन्ती से की आकृति पुरुषाकार है।
परे बिन्दु नादात्मक है। __ ये वर्ण ही मातृका हैं, एवं इनके पठन, वर्णमातृका सृष्टि का लौकिक रूप है और पाठन, स्मरण तथा विचिन्तन का फल योगशास्त्र | इसमें अकार से हकार पर्यन्त समस्त वर्णों का में इस प्रकार बताया गया हैं :
पाठ हो जाता है और यही ' अहं ' सूक्ष्म से ध्यायतोऽनादि-संसिद्धान् वर्णानेतान्यथा विधि । | लेकर स्थूल पर्यन्त अविल सृष्टि का वाचक है। नष्टादि विषयं ज्ञानं ध्यातुरूत्पद्यते क्षणात् ॥५॥
'अहं' सांसारिक बन्धन, ममता एवं आवर्त का अर्थात् अनादि काल से भली प्रकार से सिद्ध
इसी मातृका का पर रूप 'अहं' है, जो वर्णो का यथाविधि ध्यान करते हुए ध्याता को
संसार से मुक्ति, वीतरागता एवं माध्यस्थ्य का नष्टादि विषयक ज्ञान अल्प समय में उत्पन्न
प्रतीक है क्योंकि इसमें अग्नि बीजरूप रेफ होता है । सारस्वत व्याकरण में "सिद्धो वर्णः"
का सन्निवेश है। कह कर वर्ण का सिद्ध स्वरूप बताया गया है। इन्हीं सिद्ध वर्गों में समग्र ब्रह्ममय संसार
जब व्यक्ति (अहं) अ से ह पर्यन्त सभी व्याप्त है
सांसारिक वासनाओं एवं इच्छाओं को अग्नि
बीज स्वरूप उर्ध्वगत्यात्मक 'र' से जला देता या सा तु मातृका लोके पर तेजः समन्विता ।
है तब वह अहं बन जाता है। तया व्याप्तमिदं सर्वमा ब्रह्म भुवनान्तरम् ॥
'र' अन्तस्थ है, अर्थात् संसार-नाश की ब्रह्म के दो रूप हैं एक ''शब्द ब्रह्म" एवं | भावना सुप्त अग्नि के रूप में सांसारिक आत्माओं दूसरा “अर्थ ब्रह्म" । सृष्टि भी दो प्रकार की
| में विद्यमान रहती है, पर भौतिक-आडम्बर है-शब्दमयी एवं अर्थमयी । इस प्रकार सिद्ध | में वह लुप्त रहती है तब तक व्यक्ति अहं के वर्ण के दो रूप हुए—पदमय एवं पदार्थमय । | रूप में केवल व्यष्टि में ही आविष्ट रहता है।
___ महर्षि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में लिखा | जब “अकारादि हकारान्तं" कामनाओं के है "अर्थवन्तो वर्णाः” अर्थात् प्रत्येक वर्ण अर्थ- मध्य उर्ध्वगतिमय रेफात्मक अग्नि बीज का वपन
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<]
तत्वज्ञान स्मारिका
होता है तो वही साधारण आत्मा अह बन अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म वाचक परमेष्ठिनः ।
जाती है ।
यही अहँ पर रूप मातृका का सार है 1
1
'ॐ नमः सिद्धम् ' में पर रूपमातृका के सारभूत इसी अह की उपासना है । श्री सिद्धचक्रयंत्रोद्धार पूजन विधि की प्रथम चौबीशी में इसी भाव की पुष्टि की गई है :--
"अर्हमात्मानम अग्निशुद्धं, मायामृत प्लुतं, सुधा कुम्भस्थ माकष्ठं, ध्यायेच्छांतिककर्मणि” ॥२४॥
अर्हद्गीता में भी कहा गया हैरेफोग्निबीजं प्रकृतिर्विसर्गस्य निसर्गति ॥ ॥३३॥१६ ॥
ऋषिमण्डल स्तोत्र में भी कहा गया हैआद्यन्ताक्षर संलक्ष्य - मक्षरंव्याव्य यत् स्थितम् । अग्निज्वाला समं नादबिन्दु रेखा समन्वितम् ॥ १ ॥
अहं मनोमल का प्रतीक है, और अर्ह मनोमल का विशोधक है ।
अहं 'जीव' है तो अर्ह 'शिव' |
अ अहं का प्रतिपक्षी है । यही अ 'ब्रह्म' है, परमेष्ठि का वाचक है, वर्णमातृका रूप सिद्धचक्र का बीज है
सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणिदधमेह ||३|| ऋषिमण्डल स्तोत्र
. सिद्धम् में पाँच वर्ण हैं स्+इ+द्+ध्+अं, एवं मात्रा ४ हैं । ये पांच वर्ण भी पंच परमेष्ठियों के सूचक हैं, एवं ४ मात्राएँ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को देनेवाली हैं ।
[ खंड
यह 'सिद्ध' शब्द अर्ह का वाच्य है । [ मंत्र को प्राणवान्, चैतन्यवान् एवं फलदायी बनाने हेतु उसमें सृजन शक्ति का समावेश . करना अत्यन्त आवश्यक होता है ।
ह पुरुषाकार है, तो 'अ' प्रकृति रूप; ये दोनों मिलकर अहं बनते हैं और जब तक पुरुष तथा प्रकृति का भाव रहेगा तब तक सृष्टि में कर्मों का सर्जन होता रहता है । जब अग्नि बीज र के द्वारा पुरुष तथा प्रकृति का भेद समाप्त कर दिया जाता है, तब आत्मा का अहं रूप अर्ह बन जाता है ]
c
यही 'अ' नवपद सिद्धचक्र का बीज रूप है जो जैनागम में विशुद्ध ज्ञान मार्ग का 'अहं' का अर्थ है 'शरीर संज्ञानी', तो प्रतीक है । श्री सिद्धचक्र के पूजन के द्वितीय " का अर्थ है 'आत्म संज्ञानी' । वलय में वर्ग से अ आदि १६ स्वर, क वर्ग से पर्यन्त २५ व्यञ्जन, ४ अन्तस्थ, ४ ऊष्माक्षर तथा एक अनाहत नाद की अर्चना की गई है।
अहं यदि 'व्यष्टि' है तो अहे " ' समष्टि' हैं ।
उसके दूसरे मंत्र इन्हीं वर्णों की विविधा - मिका व्याख्या है यह 'अहं' ही दूसरे मंत्रों में वर्णमाला के आकार को ग्रहण कर व्याप्त है ।
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[ ९
३ तीसरा ]
ॐ नमः सिद्धं यह अहं प्राणायाम-मय है, इसका प्रथमा- | उस पिण्डस्थ रूप में वर्णमाला का ध्यान क्षर अ पूरक है, ह रेचक है, एवं म कुम्मक है। करना पदस्थ ध्यान कहलाता है । म को बिन्दु रूप में भी व्यक्त करते हैं । यह पदस्थ ध्यान का मूल अथवा सार “अकाबिन्दु सभी प्राणियों के नासाग्र भाग में स्थित राधं हकारान्तं बिन्दु रेखा समन्वितं" अर्ह हैं। है, एवं योगियों द्वारा चिन्तनीय है । श्री सिद्ध- । श्री जयसिंहदेवसूरि विरचित धर्मोपदेशचक्र यंत्रोद्धार पूजन-विधि में इसकी पुष्टि की माला विवरण में अहं रूप सिद्ध - मातृका का
महत्त्व प्रतिपादित किया गया हैआह्वानं पूरकेणैव, रेचकेन विसर्जनम् ।।२२।। । " अकारादि हकारान्तं प्रसिद्धा सिद्धमातृका"
तो यह स्पष्ट हुआ कि सिद्धचक्र जिसको इस-सिद्ध मातृका की अपनी एक लिपि नवपद भी कहते हैं, सिद्ध वर्णों का समुदाय है, जिसका न्यास मंत्र जपादि में प्रत्येक साधक है, जिसके मूल में अ से ह पर्यन्त तेजोमय अर्ह । के करना चाहिए । स्थित है।
जपादौ सर्वमंत्राणाम् विन्यासेन लिपेविना । ॐ ही स्फुटानाहत मूल मंत्रं,
कृतं तन्निष्फलं विद्यात् तस्मात् पूर्व लिपि न्यसेत् ॥ स्वरैः परीतं परितोऽस्ति सृष्टया ॥
___अनादि सिद्ध मातृका को पद भी कहते यत्राहमित्युज्ज्वलमाद्यबीजं,
हैं। पद वाचक है एवं उसका अर्थ वाच्य है। श्रीसिद्धचक्रं तदहं नमामि ।।
अर्ह पद परमेष्टी भगवान का वाचक है, तांत्रिक भाषा में जिसे बिन्दु नवक कहते हैं, |
एवं पंच परमेष्ठी उसके वाच्य हैं । उसे बिन्दु, अर्द्वन्दु, निरोधिनी, नाद-नादान्त,
संसार के समस्त पदाथों के साक्षात्कार शक्ति, व्यापिनी, समना उन्मना, समाहित हैं ।
हेतु अर्ह पद की उपासना, शरण एवं प्रति____ आगमिक भाषा में इसे अरिहंत, सिद्ध,
ष्ठापना आवश्यक है । अर्ह के तीन पद अ = आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान चारित्र
उत्पाद, र = व्यय. एवं ह = ध्रौव्यात्मकता एवं तप अर्थात् नवपद की संज्ञा से अभिहित कर
के प्रतीक हैं। सकते हैं। मांत्रिक भाषा में से इसे स्वर (अ वर्ग)
'अ'- अव्यक्त होने से बिन्दु रूप है, क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, अन्तस्थ कलात्मक है, एवं 'हं' की गूंज नादाऊष्म एवं क्ष वर्ग कह सकते हैं। कहा गया है
त्मक है। " ननु क्षकारेण सह नव वर्गाः "
अर्ह ' का व्याकरण शास्त्रानुसार अर्थ (तंत्रालोक ६ अध्याय) | है “ योग्य" । अहँ जब तप की पावन अग्नि श्री सिद्धचक्र यंत्र आकृत्यात्मक है, एवं में हं की हुंकृति को भस्म कर देता है, तब वह उसकी स्थापना पिण्डस्थ रूप में की गई है। अ - अशेष यानी सम्पूर्ण बन जाता है।
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तस्त्वज्ञान स्मारिका
[ खंड "ॐ नमः सिद्धम् " में इसी अर्ह का अर्ह उसका वाच्य-वाच्यार्थ, तात्पर्यार्थ, अनुपदस्थ ध्यान है।
मेयार्थ एवं प्रमेयार्थ है। इसीलिए तो कहा गया है "एकः शब्दः, यही अक्षर है, क्योंकि यह त्रिकालाबाध सम्यक् ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग् है । यही अव्यय है, क्योंकि यह नाश को प्राप्त भवतीति ।" ( पातंजल महाभाष्य ) नहीं होता और यही अमृतरूप है, इसकी विद्या ___ यह अर्ह रूप सर्वज्ञ परमात्मा स्याद्वाद से ही अमरत्व की प्राप्ति होती हैशैली से मूर्त, अमूर्त, कला सहित, सूक्ष्म, स्थूल । “विद्ययाऽमृतमश्नुते" (उपनिषद्) व्यक्त, अव्यक्त, निगुर्ण, सगुण, सर्वव्यापी, देश- नामृतं ज्ञानतः परम् (अर्हद्गीता ३-६) व्यापी, अक्षय, क्षयवान् , अनित्य एवं नित्य आदि यही पद एवं उसकी ध्वनि मंत्रशास्त्र का १६ प्रकार के हैं, एवं नाभिकमल के १६ दलो | प्राण है । के प्रतीक है।
क्योंकि यही ध्वनि प्राणवायु को लेकर इसी अर्ह के रूपों के यदि युग्म बना | मनुष्य की चारों ओर एक तरंगमाला का निर्माण दिए जाय तो वे मूर्त-अमूर्त, अकला-सकला, करती है, जिसके अनुसार संसार परिणमित होता सूक्ष्म-स्थूल, आदि आठ युग्म बनेंगे जिन्हें मुख । है । इसे दार्शनिक भाषा में तदाकार वृत्ति कहते के अष्ट दल कमल की संज्ञा देंगे। हैं, एवं इसकी प्राप्ति " ॐ नमः सिद्धम् " की
अर्ह की चार मात्राएँ है जिसमें नाद, | उपासना से आसानी से की जा सकती है। बिन्दु एवं कला से परे ‘ब्रह्म' का तुरीय रूप
| "ॐ नमः सिद्धम् " का समग्र मंत्र ज्ञान भी समाविष्ट है। इसकी चारों मात्राएँ धर्म, | का प्रतीक है, एवं ज्ञान-प्राप्ति हेतु यह मंत्र है । अर्थ, काम, एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाली हैं। अर्हद्गीता में कहा गया है कि “नामृतं ___ इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि 'ॐ नमः | ज्ञानतः परम्' अर्थात् ज्ञान से परे कोई अमृत सिद्धम् ' में जिस सिद्ध की उपासना की गई है | नही है । वह आद्य ज्ञान का उद्घाटक, उद्घोषक एवं | इसी ज्ञान से धर्म, दान, तप चारित्र एवं प्रकाशक वर्ण है।
करुणा मुदितादि भावना का प्रादुर्भाव होता समग्र संसार वर्णमय है, एवं वर्ण में ही | है। अन्ततः इसी ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति होती है । संसार समाया हुआ है।
'ॐ नमः सिद्धं ' का अर्हद्गीता में इस वर्ण का अर्थ है वः-तुम, न-नहीं हो अर्थात् | प्रकार विवेचन किया गया हैं :सब में मैं ही हूँ और यह निज स्वरूप ही आगे | “ जीवाजीवमयो लोकः कर्ताऽयं परमेश्वरः । जिन स्वरूप में परिणत होता है। इस व्युत्पत्ति । __ स्वरूपस्य स्वयं धर्ता, सिद्धः शुद्ध सनातनः ॥" से वर्ण अभेदात्मक संसार का प्रतीक है, एवं ।
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३ तीसरा ]
61
'दुग्धे सारं यथा सर्पिः, पुष्पे परिमलस्तथा ॥ तथा लोकेऽपि चैतन्यं । तस्मिन् कैवल्यमुत्तमम् ॥”
२०-८
इसी सिद्ध- पद को समझाते हुए अर्हदगीता में आगे कहा गया है कि
ॐ नमः सिद्धं
46
' सर्व संगविनिर्मुक्तः, सिद्ध-केवल - बोधनात् । स एव परमेष्ठीति, गेयोऽर्ह तात्विकैः जनैः ॥ १ ॥”
66
'तेनैव मातृका - पाठेऽपि
ॐ नमः सिद्धमुच्यते" ॥२॥
अर्थात् सभी प्रकार के संग से रहित केवल ज्ञान के कारण इसी सिद्ध की हो परमात्मा, परमेष्ठी या अह ँ के रूप में तत्त्वविद् जनों को उपासना करनी चाहिए ।
मातृका पाठ में उसे सिद्धम् " कहा गया 1 वाचक है।
" ॐकारः
ही “ ॐ नमः "ॐ भी सिद्ध का
सिद्ध-वाचकः ( अर्हद्गीता २५/६ )
[ ११
अतः सभी साधकों को सिद्ध पद की ओर बढने के लिए “ ॐ नमः सिद्धम् " की उपासना करनी चाहिए, जिसका बीज अर्ह है । श्री अर्हद्गीता में प्रत्येक वर्ण का सविस्तर विवेचन किया गया है, एवं उन सब में गूढार्थों का सन्निवेश प्रदर्शित किया है ।
"
छन्दशास्त्रानुसार गणों का (न गण,
भ गण, स गण, आदि) भी सविस्तार विवेचन उसमें हुआ है।
ॐ शब्द नमः शब्द, एवं सिद्ध शब्द की विविधात्मिका व्याख्या अर्हद्गीता में की गई है, जो इस ॐ नमः सिद्धम् के विवेचन से भी एक बृहत् विवेचन है । यहाँ उसके विवेचन को अधिक उद्धृत इसलिए नहीं किया कि मेरा यह विवेचन तो उसकी पुष्टि के लिए एक परिशिष्ट मात्र है ।
R
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ऋतं सत्यं च
ॐ अर्ह -तात्तिक रहस्य वैदिक ऋचा का समन्वयात्मक रहस्य
ले. सोहनलाल पटनी
+
- --
-
ddartheeksheeshshobhshoeslasheedeobsfeofastestereope dadaanabeantasteethamposech.desebebadedesksheeshstisaslesoredesehddest
___ दृश्य एवं अदृश्य इस संसार में एक स्थायी इसी ऋत से बने शब्दों पर यदि हम विचार व्यवस्था है, जिसके कारण इसकी प्रत्येक वस्तु | करें तो हमें ऋत का स्वरूप समझ में आ का अस्तित्व है। इस व्यवस्था के कारण ही | जायेगा । जैसे 'ऋ' का अर्थ है देवताओं की सृष्टि में गत्यात्मकता दिखाई पड़ती है, एवं सत्य माता अदिति एवं 'क्त' (त) का अर्थ है युक्त । के कारण ही गत्यात्मकता में भी उसका ध्रौव्य देवताओं की माता से युक्त का तात्पर्य है पद विद्यमान रहता है।
प्रकाशक तत्त्व जो समस्त चराचर सृष्टि के मूल प्रकृति अथवा संसार की व्यवस्था की जो | में विद्यमान है, एवं जिसके कारण ही संसार की सतत् प्रक्रिया चल रही है, उसके मूल में कोई | गत्यात्मकता संसरण-शीलता विद्यमान है। देवता शक्ति अवश्य है-ऐसा विज्ञान भी मानता है। का अर्थ यास्क ने अपने निरुक्त में बताया है
नास्तिक उसे केवल व्यवस्था कहकर ही “ देवो दानाद् दीपनाद् वा” प्रकाशित करने चुप हो जाता है, पर वेदों में इस व्यवस्था को के कारण अथवा प्रिय वस्तु देने के कारण देव 'ऋत' नाम से अभिहित किया गया है । ऋत | कहा जाता हैं। शब्द में ऋ (गमनादि) धातु है, एवं क्त प्रत्यय है। इसीलिए ऋतम्भर का अर्थ होता है सत्य
ऋत का शास्त्र-सम्मत अर्थ है सृष्टि का | (अस्तित्व) का धारण-पोषण करनेवाला परमेश्वर ! धारक तत्त्व, ईश्वरीय नियम, ब्रह्म, आदित्य, इसी प्रकार ऋतम्भरा का अर्थ है चराचर कर्मफल ।
सृष्टि ! जो 'ऋत' याने परमात्म-तत्त्व से परिपूर्ण इसके इन अर्थों में भारत के सभी दर्शनों है अथवा सदा एक रूप रहनेवाली समाधि की को अपना शास्त्र-सम्मत अर्थ मिल जाता है। वह मूर्ति जिसमें सत्य का ही धारण होता है
सांख्य और योग इसे सृष्टि का धारक और 'ऋति' का अर्थ गति, आक्रमण, मार्गतत्त्व कहेंगे तो न्याय इन्हें ईश्वरीय नियम। मंगल, अभ्युदय, स्मृति, आदि होता है । कहेगा।
इसके ये शब्द परमात्म-तत्त्व की ओर वेदान्त ब्रह्म कहेगा तो वैशेषिक एवं संकेत करते हैं। 'ऋत' का अर्थ है निश्चित व्य. मीमांसा इसे कर्मफल-दाता कहेंगे । वस्था और 'ऋत' का अर्थ है पुष्ट-वीर्य परमात्मा।
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३ तीसरा ]
'ऋद्ध' का अर्थ समृद्ध होता है, जो परमात्मा का ही एक गुण है और उस से बना 'ऋद्धि' शब्द परमात्मा की शक्ति की ओर संकेत करता है । 'ऋत-धामा' शब्द का अर्थ है जगत् की व्यवस्था करनेवाले विष्णु । शिव ऋतध्वज कहे जाते हैं और ब्रह्मा को ऋतवादी एवं ऋतव्रत कहा जाता है
1
6
ऋतं सत्यं च
तो यह ऋ त्रिदेवात्मक है और इसके उच्चारण भी हस्व, दीर्घ एवं प्लुत ऐसे तीन प्रकार के हैं ।
स्व से संसार की सूक्ष्मावस्था, दीर्घ से स्थूलावस्था एवं प्लुत से रुपातीतावस्था का संकेत लिया जा सकता है ।
इन तीनों अवस्थाओं का पर्यवसान ॐ में किया जा सकता है ।
अब सत्यं की बात करें । सत् पद सत्य का आधार है ।
"
मूलतः सत् अस्तित्व का सूचक है एवं सत्य का वाचक भी । ' सत्य पद को सिद्ध करने के लिए इसमें ' यत् ' प्रत्यय जोडना पडता हैं यह ' यत् ' सत्य की भव्यता ( अस्तित्व ) एवं कार्यता का द्योतक है ।
वैदिक - दर्शन में प्रायः सत्य का प्रयोग, कार्य-सत्य के अर्थ में होता है और ऋत के शाश्वत सत्य से उसको पृथक बताया जाता है । सत् का प्रयोग श्रेय के अर्थ में भी होता है । ' सत् ' मंगलमय भाव व्यवस्था है, सद्भावे साधुभावे सदित्येतत्प्रभुः । सद् का अर्थ शुभ में भी माना जाता है जैसे सद्गति और अच्छे के अर्थ में भी; जैसे सज्जन, सदाचार ।
[ १३
'यत् ' के योग से सत्य वर्तमान (अस्तित्व) का ही नहीं वरन् कार्य, अत एव भावि भी है इस अर्थ में वह भव्य (होनेवाला) भी है ।
इसीलिए परमात्मा को परम सत्य कहते हैं । परमाणु की सत्ता से लेकर ईश्वरीय सत्ता तक सत् निवास करता है, अतः यह धौव्यात्मक है । यही ध्रौव्यात्मक परम सत्य शिव है, है इसीलिए कलिकाल आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने 'ॐ अर्ह ' मंत्र के रूप में सृष्टि के मूल तत्त्व ऋतं सत्यं' की धौव्यात्मकता एवं शाश्वतता की अभ्यर्चना की है ।
"
यह ईश्वरवादी दर्शनों में ईश्वर, शैवदर्शन में शक्ति एवं जैन-दर्शन में कर्मफल है । ऋग्वेद की ४ - २१-३ ऋचा में कहा गया
है
ऋत सबका मूल कारण है । ऋतू से ही मरुत् की उत्पत्ति हुई है । मरुत् वायु का देवता है और प्राण, अपान, व्यान, उदान तथा समानादि पंचवायु ही शरीर को गति एवं अस्तित्व प्रदान कर उसे प्रकाशित करते हैं ।
ॐ भी शरीर में व्याप्त है एवं ॐ में शरीर व्याप्त है ।
इसी प्रकार पंच प्राणात्मक संसार में शरीर समाया हुआ है एवं शरीर में पंच प्राण समाए हुए हैं ।
मुद्गलोपनिषद् में कहा गया है - “ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता, मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्य एव वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेना धीतेनाहो
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१४ ]
रात्रान् संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु ।
"
अर्थात्- “ ॐ मेरी वाणी में स्थिर हो । हे स्वयंप्रकाश आत्मा ! मेरे सम्मुख तुम प्रकट हो ओ । हे वाणी और मन ! तुम दोनों मेरे ज्ञान के आधार हो, अतः मेरे ज्ञानाभ्यास की रक्षा करो | मैं इस ज्ञानाभ्यास में रात-दिन व्यतीत करता हूँ। मैं ऋत का उच्चारण करता हूँ, सत्य का उच्चारण करता हूँ । "
इस उद्धरण से ज्ञात होता है कि ऋत और सत्य दोनों अलग अलग हैं । ऋत शब्द का प्रयोग वेद काल के पश्चात् भौतिक नियमों के लिए होने लगा और बाद में तो ऋत में आचार सम्बन्धी नियमों का भी समावेश हो गया ।
ऋग्वेद में उषा, सूर्य एवं पूषा को ऋत का पालन - कर्ता कहा गया है ।
इस ऋत के परे जाना असम्भव है, क्योंकि वरुण ऋत के रक्षक है।
66
तत्त्वज्ञान स्मारिका
"
ऋतस्त गोपा ” (ऋग्वेद) और द्यौ और पृथ्वी ऋत पर स्थित है ( १०. ताओं से प्रार्थना की जाती
[ खंड
मात्र को ऋत के मार्ग पर ले चलें व अनृत के मार्ग से दूर रखें |
१२१. १) देवथी कि वे प्राणी
यह अमृत सत्य का विलोम झूठ नहीं था । ऋत को सत्य से पृथकू माना जाता था । ऋत वस्तुतः सत्य का नियामक तत्त्व है और ऋत के माध्यम से ही सत्य की प्राप्ति स्वीकृत की गई है ।
इसीलिए आचार्यश्री ने अर्ह के पूर्व ॐ के उच्चारण की व्यवस्था की । जिस प्रकार परवर्ती वैदिक साहित्य में ऋत का स्थान सत्य ने ले लिया, वैसे ही परवर्ती जैन साहित्य में ॐ का स्थान केवल अर्ह ने ले लिया ।
पर शास्त्रीय - - परम्परा में आज भी 'अर्ह * : का उद्घोष किया जाता है, और 'ऋतं च सत्यं च' की भावना का साक्षात्करण कर जगत् के धौव्य तत्त्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा प्रत्येक कार्य के लिए प्रारम्भ में की जाती है |
यह धौव्य पद सिद्ध पद है जिसका नमन 'ॐ नमः सिद्धम् ' में किया गया है ।
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0 बीजाक्षर एवं उनका महत्त्व
लेखकः-प्रशांतयोगी
मंत्र शास्त्र में बीजाक्षरों का बड़ा महत्त्व हैं। केन्द्रित कर इच्छोपलब्धि के लिए तत्पर बनाने
जिस प्रकार ध्वनि-तरंगे इथर पर आकाश- हेतु तदनुकूल स्फोट (ध्वनि) पैदा करना होगा। मार्ग में निरंतर विचरण करती रहती हैं, एवं हम | इस स्फोट-ध्वनि के तांगाघात से भा. इच्छानुसार रेडियो के स्टेशनों पर सुई केन्द्रित | वलय चक्र उद्भूत होंगे। कर उन तरंगों को सुन सकते हैं। वैसे ही ये
इन भाव-वलयों के आवर्ती से विपरीत बीजाक्षर भी मंत्र की शक्ति को इच्छानुसार फल
भाव अथवा विघ्न उसी प्रकार दूर होते हैं, जिस प्रदान करने में सहायता देते हैं।
प्रकार शक्ति-संचालित नौका-प्रवाह की विपरीत शास्त्र में कहा है:-शब्द-ब्रह्म में निष्णात
| दिशा में आगे बढती रहती है । होने से पर-ब्रह्म की उपलब्धि होती है ।*
__इसका यह अर्थ नहीं कि-बिना बीजाक्षरों ब्रह्म-शक्ति शब्दातीत है, एवं यदि इस
के मंत्र फलदायी नहीं होता । " भावना फलतीह परा-शक्ति का साक्षात्कार करना है, तो हमें
सर्वत्र " के शास्त्रवचन के अनुसार भावना से सर्व प्रथम लौकिक मातृका का अध्ययन कर
जपा प्रभु का नाम स्मरण भी अतुल फल-प्रदान उसमें निष्णात होना पडेगा।।
करता है। प्रभु के नाम को ही मंत्र मानकर तत्पश्चात् हमें वर्ण मातृका के सार एवं
भी ऋषियों ने विश्व की समग्र सिद्धियों को उसके परा रूप ॐ अहं आदि आद्य बीजों का
प्राप्त किया है। आश्रय लेना ही पड़ेगा। ये ॐ अहं आदि समग्र मंत्रशक्ति के सार
परन्तु ये बीजाक्षर हमारे जप को सूक्ष्मी
| कृत कर ( Pin Pointed ) सामान्य साधक वर्ण मातृका का बाह्य रूप वैखरी रूप है, | को भी सत्वर फलोपलब्धि करवाने में सहायता जो समस्त संसार में व्याप्त हैं । इसे विश्वविग्रहात्मिका भी कहते हैं, क्योंकि सारा संसार इसमें | जिस प्रकार दूध स्वयं अमृतमय है, पर विजूम्भित हो रहा है उस विश्व के प्रपंचात्मक | उसमें इच्छानुसार अन्य वस्तुओंका मिश्रण कर विग्रह को अपने मानसिक भावानुसार अभि- | उसे नए नए स्वादिष्ट पक्वान्नों में परिवर्तित
* शाब्दे ब्रह्माणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।
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तत्त्वज्ञान स्मारिका
[खंड किया जा सकता है। वैसे ये सब बीजाक्षर | यह 'हो' प्राण रसायण बना यानी ह प्राण केवल एक ॐ में पर्युषित हैं।
बीज, र अग्नि बीज अर्थात् चैतन्य शक्ति और बीजाक्षर क्या हैं ? ये हैं वाक्-बीज। इं गतिनाद । ये सब तत्त्व प्राण शक्ति के लिए वाक् क्या है ? सृष्टि का व्यक्त रूप । जैसे वट अत्यावश्यक हैं। अतः ये प्राण रसायण का काम वृक्ष । और ये बीजाक्षर क्या है ? वट वृक्ष के करते हैं और इनका सूक्ष्मीकृत सूत्ररूप संकेत बीज । जिस प्रकार वट के सूक्ष्म बीन में विशाल ही है। वट वृक्ष की प्राणवत्ता समाई रहती है वैसे ही ॐ बीजाक्षर में अ उ म्-तीन वर्ण हैं इन बीजों में सृष्टि-तंत्र के 'अणोरणीयान्' । जिनका अर्थ है-अ-अव्यक्त, अशेष; उ-उपलब्धि ' महतो महीयान् ' स्वरूप का परिस्पन्दन हो एवं म्-महत्ता । अर्थात् अशेष महत्ता की उपरहा है।
लब्धि यानी सिद्धि-दाता बीज या एकाक्षर मंत्र । इन बीजाक्षरों में नाद का प्रतीक आव- मंत्र में तीन बातें होती हैं :श्यक रूप से समाया हुआ रहता है ।
बीज, मंत्र एवं पल्लव, जैसे-ॐ नमः __ नाद का स्थान तो नाभिमंडल है, पर यह | सिद्धम् बिन्दुरूप कंठ के माध्यम से सहस्र-दल कमल
___बीज को ध्यानाकर्षण, मंत्र को विशेषण में भ्रमरवत् गुंजता रहता है । इसका वैखरी रूप
और पल्लव को द्रवण कह सकते हैं । अनुस्वार है जो पंचावयवात्मक है, और मंत्र भी
ये बीज इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए पंचांग होता हैं एवं प्राण भी पांच ही होते हैं।
चैतन्य-शक्ति का ध्यानाकर्षण करते हैं। ये ङ् ञ् ण् न् म् ये पांच अनुस्वार हैं । इनमें स्व
ध्यानाकर्षण ही बीजाक्षर-रूप हैं जैसे ऐ। रात्मक अनुस्वार अं तो समाया हुआ ही हैं ।
विशेषण पद से अपनी दयनीयावस्था का प्रदर्शन यह पंचावयवात्मक अनुस्वार रूप नाद
और इष्ट की शक्ति की महत्ता बताते हैं। हमारी पंच भूतात्मक सृष्टि का नियमन, सन्तुलन
एवं द्रवण से कार्य सिद्धि के लिए कृपाएवं स्पन्दन करता है । इन सब का सार अथवा
कटाक्ष की आकांक्षा करते हैं। एकी भूत स्वरूप है “ अं" एवं त्रिकलात्मक द्रवण भी दो प्रकार से होता है-साधक रूप है -
तो विनयावनत होकर करुणाद्र हो जाता है ___अं इं उं जो गं (गं गं गणपतये नमः) मे | एवं इष्ट शक्ति करुणा से आप्लावित हो कर अं के रूप में है । इनका तुरीय रूप है विसर्ग | अनुग्रह के लिए अवतरित होती है। ठः ठः स्वाहा ।
__यही साधक व साध्य का साधारणीकरण विसर्ग का व्यक्त रूप है ह जो प्राण ध्वनि है अर्थात् इस उच्च सात्त्विक अवस्था में साधक है। इससे अग्नि बीज र एवं नाद इं मिलाने पर | तथा साध्य एक ही भूमि पर उतर आते हैं, एवं
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बीजाक्षर एवं उनका महत्त्व
[१७ साधक पर अनुग्रह की पुष्टि हो उसके विग्रह होकर स्वर व्यञ्जनों से मिलकर शक्ति के केन्द्र की समाप्ति हो जाती है।
बन जाते है, एवं निरन्तर-उच्चारण से स्फोटवैसे तो अ से लगाकर ह पर्यन्त सारे ध्वनि पैदा कर शक्ति का सर्जन करते है। अक्षर सिद्ध है । कहा गया है कि " निर्बीजम- यही शक्ति-इच्छित कार्य की पूर्ति में सहाक्षरं नास्ति' (बीज-रहित कोई अक्षर नहीं है) | यक बनती है । और ' नास्त्यनक्षरं मंत्रम् ' (अक्षर-रहित कोई ।
यह शक्ति-विसर्जन तरंगाकार होता है, एवं मंत्र नहीं ) अर्थात् अक्षर में अपरिमित शक्ति प्रयुक्त बीजाक्षर की प्राणवत्ता के सदृश भावनिहित है । पर उन्हें बीजाक्षर बनाने के लिए |
वलय का निर्माण कर तदनुसार फल-प्रदान उनमें नाद का व्यक्त रूप मिलाना पड़ता है।
करवाने में सहायक बनता है। ___ यह नाद उनमें दो रूपों में मिलता है
अक्षर बीजों का स्वरूप इस प्रकार है :एक अनुस्वार एवं दूसरा विसर्ग के रूप में ।
* - मृत्युनाशन ये अनुस्वार एवं विसर्ग मंत्र में शिव-शक्ति
आँ – आकर्षणकारी का काम करते हैं एवं फल-प्राप्ति में सहायक
ई - पुष्टिकर बनते हैं । जैसे अं अः ।
ई - आकर्षणकारी अं से हम शक्ति का संचयन का काम उँ - बलवर्द्धक करते हैं, अर्थात् स्फोट-ध्वनि पैदा कर अनुगुंजन | ॐ - उच्चाटन के लिए मुँह बन्द कर देते हैं। एवं अः से विस
* – क्षोभकारी र्जन करते हैं अर्थात् उस संचित-शक्ति को कार्य
* - सम्मोहक सिद्धि के लिए खर्च करते हैं।
लँ – विद्वेषकारी जैसे अणुबम में न्यूट्रोन एवं प्रोटोन नाभि ल - उच्चाटनकारी में स्थित होते हैं, एवं इलेक्ट्रोन नाभि के चारों एँ - वश्यकारी
ओर विशेष कक्षों में चक्कर लगाते हैं. वैसे ही ऐ - पुरुषवश्य अनुस्वार एवं विसर्ग नाद रूप में नाभि में अव- ओ - लोकवश्य स्थित रहते हैं, एवं दूसरी ध्वनियाँ (वर्ण) इलेक्ट्रोन औं - राजवश्य की तरह कण्ठ, तालु, मूर्द्धा आदि विशेष कक्षों
अः - मृत्युनाशकारी में चक्कर लगाते रहते हैं।
कं कः- विष बीज जब नाभि टूटती है तो न्यूट्रोन और खं खः- स्तम्भन प्रोटोन आगे बढ़कर शक्ति के स्रोत बनते जाते गं गः – गणपति (ऋद्धिदाता) है । वैसे ही अनुस्वार एवं विसर्ग नाभि से अलग | घं घः - स्तम्भन
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सत्त्वज्ञान स्मारिका ... - सुरबीज
चूं कि ही प्राण-रसायण है, अतः इनके - लाभकारी
आगे व पोछे ही का समावेश करना आवश्यक जं - घातकारी
है, जैसे ही मैं ही, मृत्युनाशक ही आँ ही .. - कामनापूरक शान्तिदाता आकर्षणकारी। टं - क्षोभन
___ यदि सम्पूर्ण वर्णमाला ही बीज रूप नहीं ठं ठः - विष मृत्युनाशन
होती तो सिद्धचक्र में इनकी (वर्णमाला) की डं - गतिमान
स्थापना कर उसकी पूजार्चना नहीं की जाती । ढं - सम्प्रति बीज
बीजाक्षरों का संक्षिप्त स्वरूप यहाँ समणं - प्राण बीज
झाया जा रहा हैतं - अष्ट सिद्धि प्रदाता
ही - माया बीज सर्जक थं - मृत्युभय नाशक दं - दुर्गाबीज वशकारी
इसे किसी भी मंत्र में संयुक्त किया जा धं – जयसुखकारी
सकता है। नं - ज्वरनाशकारी (बीज)
श्री – लक्ष्मी बीज पं - सर्व विघ्न-विनाशक
श्ची – इन्दुबीज शान्तिदाता फं- धन-धान्य-वर्द्धक
वी - सुधा बीज
क्री – अंकुश बीज बं - रोग–विनाशक
क्लीं- अनंग बीज भं - पिशाच भय-विनाशक
क्ष्मं - आश्रय बीज मं - आह्वान बीज (भूत प्रेतादि)
ब्लीं क्लीं – रत्न बीज अष्ट महासिद्धिकारी
ह्यो – महाशक्ति बीज यं - उच्चाटन, उग्र कर्मकारी
हाः – निरोधन बीज वं – विषमृत्यु-विनाशक
ठः - स्तंभनकारी शं- श्रीकारी
ब्लै ब्लौ --- विमल पिण्ड पं - धर्मार्थ-काम-मोक्षकर
ग्लै - आकर्षणाक्षर
ग्लो – स्तम्भन सं - ज्ञानकारी
हूँ - विद्वेषकारी हं - कल्याण बीज
ब्लू- द्रावक लं - भूलाभकारी
द्रां द्रीं - द्रावक क्षं - मृत्युनाशक
नमः - शोधक, अर्चक
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बीजाक्षर एवं उनका महत्त्व स्वाहा - होम संज्ञा (त्याग सूचक) अक्षरों का प्रयोग करता है जिनमें अर्थ-प्रेषण
इन सब बीजाक्षरों का · सिद्धम् ' के समा- की योग्यता है। पर अक्षर बिचारे क्या करेंगे ? ह्वानपूर्वक जाप होना चाहिए।
यदि उनमें परस्पर सामीप्य नहीं होगा। वैसे __ इन बीजाक्षरों एवं उनके स्वरूप को सम- ही बीजाक्षरों से भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए झने के बाद इनकी जपविधि को समझना | उनमें सामीप्य रहना चाहिए । हमारी आकांक्षा आवश्यक हैं।
है सिद्धि की। जपकर्ता साधक को इन चार बातों का | हमने ॐ मूल बीजाक्षर को एवं एक प्राण पूरा ध्यान रखना चाहिए ।।
| शक्ति के प्रतीक ही को लिया । फिर इस प्राण ___ (१) अक्षराक्षर संतानम् - मंत्र के अक्षरों शक्ति को इच्छानुसार फल प्राप्त करने के लिए को स्पष्टता से उच्चरित करना चाहिए, जिससे | क्लीं ब्ली आदि बीजाक्षरों के साथ जोड़ दिया प्रत्येक अक्षर मंत्र में मिला होते हुए भी अलग तो ये बीजाक्षर अब महासिद्धिदाता रसायण सत्ता का निरूपण करे। उच्चारण में शुद्धता | बन गये। का ध्यान रखना परमावश्यक है ।
__ यदि ये अलग अलग रूक रूक कर बोले (२) न द्रुतम् - मंत्रोच्चारण में शीघ्रता, जाते तो आन्तरिक स्फोट-ध्वनि को पैदा नहीं व्यग्रता, उद्विग्नता नहीं होनी चाहिए। इनसे | कर सकेंगे एवं हमें हमारा इष्ट साधन प्राप्त मंत्र का प्रभावक पौरुष लक्ष्य केन्द्रित नहीं नहीं होगा। होता है।
बीजाक्षरों एवं मंत्र पद के उच्चारण से (३) न विलम्बितम् -- मंत्रोच्चारण में आव-सिद्धि प्राप्त करने के लिए निम्न बातों का ध्यान श्यकता से अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिए। | रखना चाहिए:
यदि मंत्रो के उच्चारण में एक अक्षर के | उत्साहान्निश्चयाद् धैर्यात् , संतोषात् तत्त्वदर्शनात् । बाद दूसरा अक्षर बोलने में विलम्ब कर दिया | मुनेर्जनपदत्यागात्, षडभियोगः प्रसिध्यति ॥ तो उन दो अक्षरों के मिलने से जो शक्ति-भाव
अर्थात् मंत्र-जप से सिद्धि प्राप्त करने के पैदा होता है वह नहीं होगा एवं मंत्र सार्थक |
लिए मनमें उत्साह, भावना में निश्चय, वृत्ति में नहीं बनकर निरर्थक बन जायगा ।
धैर्य, हृदय में संतोष, बुद्धि में जिज्ञासा एवं जनवाक्य के उच्चारण में भो वाक्य के शब्दों समूह से अलग होकर एकान्तप्रियता की भावना में आपस में आकांक्षा, योग्यता एवं सामीप्य की होनी चाहिए, तभी मंत्र-योग की सिद्धि हो आवश्यकता होती है।
सकती है। __ आकांक्षा होती है साधक की अपने भावों ये बीजाक्षर एक प्रकार के प्रतीक हैं, जिनमें को दूसरों तक पहुँचाने की, अतः वह वैसे ही | ईश्वरीय-शक्ति की प्रगाढ़ प्राणवत्ता समाई हुई है।
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२०]
तत्त्वज्ञान स्मारिका उपासना चार प्रकार को होती है :
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि - (१) प्रतीकोपासना
वाक् चैव कामः शक्तिश्च, प्रणवः श्रीश्च कथ्यते । (२) प्रतिरूपोपासना
तदायेषु च मंत्रेषु, प्रणवं नैव योजयेत् ॥ (३) भावोपासना
अर्थात् वाम्बीज-ऐं, कामबीज-क्ली, (४) एवं निदानोपासना
शक्ति - बीज-ही एवं श्री बीज-श्री को प्रणव ही प्रतीकोपासना में ईश्वरीय-शक्ति के कुछ कहते हैं, अतः इनके पहले ॐ लगाने की आवश्यप्रतीक निर्धारित रहते हैं।
कता नहीं होती-वशीकरण, आकर्षण संतापकरण प्रतिरूपोपासना में प्रतिमा की स्थापना एवं त्याग--सूचकता के लिए स्वाहा, क्रोध-शमन होती है।
शान्ति एवं पूजन-अर्चन में 'नमः' का प्रयोग . भावोपासना में ध्यान योग का महत्त्व है। करना चाहिए। निदानोपासना में संकेतों का महत्त्व है। सम्मोहन उद्दीपन पुष्टि एवं मृत्युञ्जय के
जैसे मोक्ष के लिये उपासना में श्वेत रंग को | लिए वौषट् । महत्त्व दिया जाता है, तो अनुग्रह के लिये लाल प्रीतिनाश एवं मारण के लिए हुँ' । रंग को धारण किया जाता है।
उच्चाटन, विद्वेष तथा मानसिक विकारों बीजाक्षरों में सब से सरल और महान् की शान्ति के लिये फट । विघ्न-विनाश तथा बीजाक्षर 'ॐ' एवं ' नमः' हैं, इसके बीच में । पोड़ा शमन के लिए हुं फट् का ग्रहकृत प्रयोग किसी भी देवता के विशेषण को या नाम को |
| किया जाता है। डाल दिया जाय तो वह सुन्दर मंत्र बन जाता है, जैसे “ॐ वीतरागाय नमः " अथवा " ॐ
लाभ-हानि एवं मंत्रोद्दीपन के लिए वषट्
उच्चारण करने का विधान है। नमो वीतरागाय"। इस महान् बीजाक्षर ॐ को कहाँ कहाँ ।
पर इन सबसे ऊपर का बीज है नमः नमो लगाना चाहिए इसके लिए शास्त्र कहते हैं
| अथवा णमो ! क्योंकि यह शोधक है। प्रणवाचं गृहस्थानां, तच्छून्यं निष्फलं भवेत् । अन्य देवताओं के नाम की योजना ॐ आधन्तयोर्वनस्थानां, यतीनां महतामपि ॥ | नमः के साथ करने पर चतुर्थी का प्रयोग होता
अर्थात्-"गृहस्थ को मंत्र के आदि में ॐ | हैं-ॐ नमः वीतरागाय, शिवाय । एवं वानप्रस्थ यति और महात्माओं को मंत्र के | चतुर्थी का प्रयोग सम्प्रदान के अर्थ में आरम्भ और अन्त में ॐ लगाना चाहिए उस होता है, अर्थात् हम देवता के लिए कुछ कर रहे के बिना मंत्र निष्फल होगा।"
| है-अपने कल्याण के लिए।
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बीजाक्षर एवं उनका महत्त्व
[ २१ ___ इस चतुर्थी-प्रयोग में आत्म-लीनता का अतः मनुष्य भी मंत्रोच्चार द्वारा निर्बाध भाव नहीं है । पर एक पद ऐसा है जिसमें नमः सिद्ध पद के ही सुख को चाहता है। के साथ द्वितीया का प्रयोग होता है । वह है | अतः अविनाशी सुख के चाहक आत्माओं 'सिद्धम् ।
के लिए सिद्ध भगवान को नमस्कार परम उपा
देय होता हैं, क्योंकि-संसार की सभी वस्तुएँ द्वितीया-प्रयोग में आत्मीयता, लीनता,
विनाशी हैं, एक सिद्ध पद ही अविनाशी है। तदाकार-वृत्ति का भाव है क्योंकि अपने समस्त कर्मों का पर्यवसान इस एक ही कर्म में हम
___ अतः साधक को इन सब बीज मंत्रों को
छोड़ कर केवल इस एक ही पद की उपासना करते हैं।
करनी चाहिए। अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं यह पञ्चाक्षरी मंत्र हमारे पांचों प्राणों का के नामों की योजना इस मंत्र में इसलिए नहीं | प्रतीक हैं, एवं उनका पञ्चभूतात्मक संसार से है कि अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु सम्बन्ध एवं विच्छेद करवाने में सहायक होता है। पदवी का अन्त है, पर मात्र एक सिद्ध अवस्था साधक की जैसी इच्छा होगी वैसा ही ही एक ऐसी अवस्था है जिस पर काल का | | काम इस मंत्र से होगा । तो यह है मंत्रराज - वश नहीं।
ॐ नमः सिद्धम्
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__“ नाद विन्दु कला"
HA.
(रहस्यात्मक विवेचन)
__ ले. दिव्यज्ञानी কককককককককককককককককককককককককককককৰ ৰুৰুৰুকৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুকৰুৰুৰুৰুৰুকককককক
दार्शनिक जगत में नादि-बिन्दु एवं कला | में अनुगुंजित अनाहत-नाद में विलयन प्राप्त का अत्यधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया है | करता है। और इन्हें ॐ की क्रमशः व्युत्पत्ति, अर्थापत्ति एवं
तब प्रश्न यह उठता है कि नाद क्या है ? व्याप्ति ही माना गया है। ॐ चिन्दु-नाद एवं
एवं उसका स्थान कौन-सा है ? कला से समन्वित है।
___नाद शब्द बना है 'नद' धातु से, जिस एवं संसार के संचलन एवं विलयन दोनों इसीमें समाए हुए हैं । नाद जब व्याप्त होना
का अर्थ है शब्द करना-कलकल ध्वनि करनाचाहता है तो नाद नाभिमंडल में अनुगुंजन
गरजना । इस धातुको घञ् प्रत्यय लगकर शब्द
सिद्ध हुआ नाद, जिसका अर्थ है ध्वनि । करता है फिरसृष्टि क्रम-कण्ठ स्वरूप बिन्दु से अभिव्यक्त |
मातृका-शास्त्र में इसे वर्णोंको अव्यक्त मूल होकर संसार में कलारूप में प्रगट होता है।
| रूप कहते हैं, और योगशास्त्र में इसे अनुनासिक ___ संहार क्रम-और जब लय होना चाहता है
ध्वनि कहते हैं, जिसे हम चन्द्र-बिन्दु के द्वारा तो त्रिगुणात्मक-त्रिकलात्मक संसारको समेटकर
| प्रगट करते है। सोऽहं, अहँ अथवा ॐ के उच्चारण (-भाष्य- | दर्शनशास्त्र इसे अनाहत नाद "ध्वनि' कहता जाप से थककर उपांशु जाप (बिन्दु) का सहारा | है, जो साधना की उच्च अवस्था में कर्णलेकर अन्त में मानस जापके द्वारा नाभिमंडल | गह्वरों में निनादित होती है । x - संगीत-रत्नाकर में नाद की परिभाषा देते हुए कहा गया है
__ नकारं प्रागनामानं दकारमनलं विदुः । जातः प्रागातिसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ।। अर्थात् नाद को मूल धातु है नद् । नद् का नकार प्राणवाचक तथा दकार अग्निवाचक है । अतः जो अग्नि एवं प्राणवायु के योग से उत्पन्न होता है । इसका यह तात्पर्य हुआ कि नाद जीव की मूल प्राणशक्ति है, जो नाभि में निवास करती है ।
यह नाद दो प्रकार का होता है-आहत तथा अनाहत । यह नाद पिण्ड में प्रकाशित हो रहा है अत: इसे पिण्ड भी कहा जाता है । आहतोऽनाहतश्चेति द्विधा नादो निगद्यते। सोऽयं प्रकाशते पिण्डे तस्मात् पिण्डोऽभिधीयते ।
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मूलतः नाद अव्यक्त ध्वनि है जिसका स्थान नाभिकमल | नाभि - मंडल में सोलह दलों का कमल है, जिस से स्वरमाला अ आ वगेरे उत्पन्न हुई है ।
स्वर स्वयं प्रकाशमान है । "स्वयं राजन्ते इति स्वरा : " । एवं संसार की सभी भाषाओं में इनकी व्याप्त है ।
नवजात शिशु और गुंगे स्वरों को उच्चारित करके स्वरों के माध्यम से अपनी स्थिति का बोध कराते हैं ।
नाद बिन्दु कला
नाभि हमारी ज्ञानवाहिका परंपरा का मूल है । गर्भ धारण से अर्थात् माता से जुडा हुआ रहता है । मानवसृष्टि से आज तक जो ज्ञान का प्रवाह एक के बाद दूसरी पीढी को सौंपा गया है, उसके मूल में नाभि ही है ।
अतः नाभि के षोडश दल कमल के पराग के रूप में नाद निवास करता है।
यह नाद दो प्रकारका है। सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म रूपसे यह नाद संसारकी सारी वस्तुओं के मूल ॐ में, अईं में व्याप्त है, तो स्थूल रूप में यह संसार की सारी ध्वनियों में व्याप्त है ।
यह नाद चार रूपों में व्यक्त होता हैसंसार की समस्त ध्वनियों में इसकी व्याप्ति
[ २३ वैखरीरूप हैं, और उनमें मूल ध्वनि परारूप है । मध्यमा वाणी का स्थान कंठ है-मध्ये तिष्ठति सा मध्यमा । पश्यन्ती वाणी का स्थान हृदय है । नाभि परा वाणी का स्थान है । मुख वैखरी वाणी का स्थान 1
इसे कह सकते है कि जब अव्यक्त नाद अभिव्यक्त होना चाहता है तो वह हृदय तक आता है, एवं सारे विकल्पों को पार कर कंठ (बिन्दु) से घोषारूप प्राप्त कर मुख से वैखरीरूपा-वर्णरूपा के कला के रूप में व्यक्त होगी।
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कंठ संसार में सेतुरूप है, यानी अहे मंत्र रूप, क्योंकि यह वह सेतु है जहाँ से हम मंत्रोउच्चार मात्र द्वारा अच्छी सृष्टि का निर्माण कर सकते हैं । एवं उच्चाटन मंत्रों द्वारा बुरी सृष्टि का निर्माण कर सकते है ।
यह विष्णु - रूप है, यानि सृष्टि का पालनकर्ता । यह कंठ - काव्य संसारका प्रवर्तन करता है अपनी इच्छानुसार । मम्भटाचार्य ने अपने काव्यप्रकाश में कहा है
अपारे संसारे कविरेव प्रजापतिः । यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं प्रवर्तते ॥ १ ॥ अर्थात् अपार संसार में कवि ही प्रजापति है। उसे जैसा अच्छा लगता है वैसा ही संसार बना देता है |
जो नाद केवल ज्ञान से जाना जाता है और जो बिना संघर्ष या स्पर्श के पेदा हो जाए उसे अनाहत नाद कहते है ।
जैसे दोनों कान जोर से बन्द करने पर सन् सन् की अस्पष्ट आवाज आती है वह अनाहत नाद है । योगियों को वह स्पष्ट सुनाई पड़ती है ।
जो आवाज संघर्ष से उत्पन्न होती है एवं कानों से सुनाई पड़ती हैं उसे आहत नाद कहते हैं । जैसे कंठ में प्राणवायु के संघर्ष से क वर्ग, तालु से जीभ टकराकर च वर्ग आदि पैदा करती है । आहत नाद भूमिदाता एवं अनाहत नाद मुक्तिदाता माना जाता है ।
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तत्त्वज्ञान स्मारिका कवि के संसार-प्रवर्तन का माध्यम कंठ है, | ॐकारमय है । ॐ गणेशरूप मंगलमय आकृतिजो बिन्दु-रूप है।
रूप ॐ यही ॐ स्वस्तिकरूपम भी है। कंठ--प्रदेश से निसृत नाद मुखकमल से निश्चल परावारूप प्रणवात्मक नादरूप वर्ण मातृका का रूप धारण करता है । तो नाद | कुण्डलिनी शक्ति ही प्रकृति है । के वर्ण मातृका रूप ५२ स्वर-व्यञ्जन है। उच्चारण से पूर्व यह नाद पर प्रणवरूप
इस मातृका-स्मरण का फल मुनि मेरु- | में नाभिमंडल में व्याप्त रहता है। सुंदरकृत बालावबोध में कहा गया है
___ जब वह जागृत होता है, तो भ्रमर के "ध्यायतोऽनादि संसिद्धान् वर्णानेतान् यथाविधि। समान गुञ्जन करता हुआ हृदयकमल के व्यनष्टादिविषये ज्ञानं ध्यातुरुत्पद्यसे क्षणात् ॥" | अनों से मिलकर कंठ मार्ग में आ कर निश्चित
अर्थ :-इन अनादिसिद्ध वर्गों का यथा | रूप एवं आकृति ग्रहण कर मुखकमल से स्थूल विधि अर्थात् सिद्धचक्र की उपासना और ऋषि- | संसार में प्रवेश करता है। मंडल की उपासना-पूर्वक करने से ध्याता को इस प्रकार यह नाद-चैतन्य नाभिप्रदेश समग्र ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
में सुषुप्त अवस्था में रहता है, और बिन्दुरूप इस वर्ण-मातृका का परा रूप अ से ह कंठ में स्वप्नवत् आचरण करता है । पर्यन्त अग्निबीज युक्त अहं है।
जिस प्रकार स्वप्न में हम न जागृत होते तो यह सिद्ध हुआ कि अहंमय नाद नाभि- हैं और न सोए हुए, वैसे ही बिन्दु में संकल्पाकमल में अव्यक्तरूप से विद्यमान है। त्मक-विकल्पात्मक स्थिति रहती है, एवं मुँह से - जब वह व्यक्त होता है, तो मातृका के |
| निकलकर जागृत होकर शब्दोच्चारण करते हैं । साधक से बिन्दुरूप कंठ से निकलकर कलारूप नाद-बिन्दु-कला को हम ब्रह्मा-विष्णु एवं मुख से प्रकट होता है और उसके पीछे जैसी | शिव की संज्ञा भी दे सकते है । भावना होती है वैसा ही स्फोट उत्पन्न होता है, ब्रह्मा अव्यक्त मूल-रूप, विष्णु परावर्तित और उससे उद्भूत ध्वनि-तरंगे सृष्टिक्रम में | रूप, एवं अन्तिम शिवरूप कला है। आलोडन–प्रत्यालोडन उत्पन्न कर नवोन्मेषमय अहं का 'अ' अव्यक्त का नादरूप, संसार का सर्जन करती है।
'र' अन्तर का बिन्दुरूप, एवं 'हं' प्रकट नाद बिन्दु का यह सृष्टिक्रम है। कला रूप है।
नाद बिन्दु-कला को अमात्र अहँ मात्र नाद में सत्त्व, रज व तमकी साम्यावस्था ( अर्धमात्र एवं त्रिमात्ररूप भी) कह सकते है। है, तो बिन्दु में उनका विचयन और कला में नाद अमात्र है, बिन्दु अर्धमात्रा सेतुरूप है, । उनका प्रकटन है। एवं कला त्रिमात्र त्रिगुणात्मक संसाररूप है। जैसे यदि साधक के मनमें बुरी भावना इस प्रकार यह नाद-बिन्दु-कला प्रणवाक्षर । है और वह नादात्मक अहं मंत्र का उच्चारण
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" नाद बिन्दु कला"
[२५ कलयन कर रहा है तो उसके तमो गुण की सृष्टि | "अग्निज्वाला समं नाद बिन्दु रेखा समन्वितम्"। होगी । और यदि उसकी प्रवृत्ति रागात्मक है
(ऋषिमंडल स्तोत्र ) तो रजो गुण की सृष्टि, एवं यदि उच्चावस्था में नाद-बिन्दु-कला को वर्णो में स्वर-व्यंजन हो तो सतोगुण की प्रतिष्ठा होगी।
और वर्ण के रूप में देखे जा सकते हैं, जिसका .. यह नाद बिन्दु से कला तक पहुंचकर | स्थान नाभिमंडल है, व्यंजन बिन्दु है, जो अकापुनः शुद्ध, स्वरूप में कैसे सुस्थित रहता है ? | रादि स्वरों से मिलकर कंठ में आ कर ग्रहण इसका उत्तर वेदान्त में उर्णनाभि (मकडी) के करते हैं । एवं वर्ण उनका कलारूप प्रकटन है। दृष्टान्त से दिया गया है
__यह नाद सूर्यरूप प्रकाशित तत्त्व है, जो " यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च ।" चराचर संसार को प्रकाशित करता है।
जिस प्रकार मकडी अपने जाल को बुनती जपसूत्र के ७८वे श्लोक में कहा हैहै, एवं स्वयं उसे समेट भी लेती है, वैसे ही यह "सूयते ऋध्यते येन ते जो भुवन–नाभिषु । नाद ऊर्णनाभिवत् संसार का निर्माण भी करता सवितेति च तं विद्धि पूषेति भर्गरूपिणम् ।। है एवं संहार भी करता है।
अर्थात् निखिल-भुवन की नाभि में जो तेज नाद बिन्दु-कलात्मक ॐ अ--उ-म अरि- | शक्ति रहती है, उस तेजः-शक्ति को जो उत्पन्न हत आचार्य उपाध्याय एवं मुनिरूप है। करता है और पोषण करता है, उसी साक्षात् नाद अरिहंत रूप है।
भर्गरूपी देवता को सविता और पूषा कहआचार्य एवं उपाध्याय बिन्दुरूप है, क्योंकि कर जाने । वे गीतार्थ हैं और वे द्वादशांगरूप वर्ण मातृका | बिन्दु इस सूर्यको किरणें हैं, जिनके माध्यम और उसके सार अहँ का उपदेश देते हैं। से वह सकल पदार्थों ( कलाओं) का लय एवं
तथा मुनि कलारूप हैं, क्योंकि वे संसार | उदय करता है । के प्राणियों को नाना भाँति उपदेश देकर पापा- | इस प्रकार यह नाद उत्पाद-व्यय-प्रौव्यापहाररूप संवर की शिक्षा देते हैं।
स्मक भी है। नवकार मंत्र का सार है ॐ ( अरिहंत, अतः नाद ही साधक का परम ध्येय आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ) नमः (णमो का | होना चाहिये । अन्यय रूप ) और सिद्धम्--जो “ॐ नमः साधक को कलारूप शरीर को शक्ति के सिद्ध " के रूप में पंचाक्षर पंचमंगलरूप बनता | अनुसार बिन्दुरूप शून्य में ध्यान अवस्थित कर है। इसका सार है ' अहँ '।
नादरूप ॐ अहँ में परा-मातृका का ध्यान अहँ में अ से ह पर्यन्त वर्ण–मातृका समाई | करना चाहिए। हुई है; जो नाद सरल रेखा, बिन्दु एवं कला | इस ध्यान की उच्चावस्था में यह नाद
वक्र रेखा से उत्पन्न है । कहा गया है कि---- ! अनाहत-ध्वनि का अनुगंजन करेगा।
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तत्त्वज्ञान स्मारिका . इन सारी बातों का सारांश यह भी हो साथ ही यह नमः सिद्धपन का साधक की सकता है कि यदि आप नाद-बिन्दु का और झुकाव प्रदर्शित करता है, अतः सिद्ध एवं समन्वित रूप देखना चाहते हैं तो आपको एक साधक के बीच पद सेतुरूप है । ही मंत्र पद ॐ नमः सिद्धम् में स्पष्ट रूप से |
सिद्धम् पद साक्षात् कला रूप है। कला दिखाई देगा।
का अर्थ है मूल यानी ॐ रूप सिद्धि-बीज का ॐ नाद का कलारूप नमः, बिन्दु का | नमन कर अपनी नमनीय--अवस्थारूपी जल का सेतु रूप एवं सिद्धम् उसका कला रूप है, सिंचन कर सिद्ध पद रूपी मूल को प्राप्त करो। क्योंकि ॐ तो प्रणव ध्वनि है, उसका मूल है।
__ तो साधको को यदि किसी भी कार्य की प्रकर्षेण नवः अस्ति यः सः प्रणवः-अर्थात् जिस में प्रचुर नवीनता है, नित्य नया सर्जन करने
सिद्धि प्राप्त करनी है तो उन्हें बिन्दु-नाद-कला
मय ॐ नमः सिद्धम् की उपासना करनी चाहिए। की क्षमता है वह हुआ प्रणव ।
यह ॐ प्राण बीज एवं सिद्धि बीज हैं । | बालकों को भी विद्याभ्यास के प्रारम्भ में नमः बिन्दु है क्योंकि यह साधक की गुण- इस मंत्रात्मक त्रिपदी को इसीलिए पढ़ाते हैं कि ग्राहकता, विपन्नावस्था एवं कृपाकांक्षिता का | वे संसार में पहले वर्णमातृका एवं फिर यह संकेत करता है।
| मातृका का ज्ञान प्राप्त करें।
SHASHA म....न....न....क......!!! * परमात्मयशक्ति सोहजिक प्रतीति आराधकों को वीर्योल्लास
बढनेवाली होती है। * अपनेमें समागत परमात्माका विशुद्ध स्वरूप छीपा हुआ है, यह विश्वास जब ज्ञानी गुरु के प्रताप से हो उठती है तब अपनी
आराधना प्रबल हो जाती है । * विचारों में दीनता अपने अंतरंग-स्वरूप की जानकारी की
सामीले से हो उठती है ।
"
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सूर्यप्रज्ञप्ति के अनुसार सूर्य गतिशील है। डॉ. तेजसिंह गौड
___(पी. एच. डी.) छोटाबजार-उन्हेल
(जि. उज्जैन ) म. प्र.
A
सूर्यप्रज्ञप्ति जैनधर्म के महान् ग्रंथों में एक (१८) चन्द्रादिका उच्चत्वमान प्रमुख आगम-ग्रंथ है। जो कि गणितानुयोग के (१९) सूर्य-संख्या अन्तर्गत है।
(२०) चन्द्रादि का अनुभाव सूर्यप्रज्ञप्ति के मुख्य विषय का वीश प्राभृतो | इनमें से पहले प्राभूत के आठ, दूसरे में में विवेचन है । जो इस प्रकार हैं :- तीन और दसवे में बाईस उपप्रामृत याने प्राभृत(१) सूर्यमंडलों की संख्या
प्राभृत है। (२) सूर्य के प्रकाश्यक्षेत्र का परिमाण
विश्ववंद्य भगवान श्री महावीर स्वामी के (३) सूर्य का तिर्यक् परिभ्रमण
प्रधान शिष्य गणधर गौतम स्वामी तथा अन्य (४) सूर्य का प्रकाश संस्थान
गणधरादि भी अपनी-अपनी शंकाओं का समा(५) सूर्य का लेश्या प्रतिघात
धान भगवान महावीर के सम्मुख प्रस्तुत (६) सूर्य की ओजः संस्थिति
करते थे। (७) सूर्यलेश्या संस्पृष्ट पुद्गल
___ गणधर गौतम स्वामी ने सूर्य के विषय में (८) सूर्योदय संस्थिति
भी भगवान महावीर के सम्मुख कुछ प्रश्न प्रस्तुत (९) पौरुषी छाया प्रमाण
किये थे जिनका समाधान भगवान महावीरने (१०) योग स्वरूप
किया है। (११) संवत्सरों को आदि
यह सब विवरण आगमग्रंथ 'श्री सूर्यप्रज्ञप्ति' (१२) संवत्सर भेद
में मिलता है। (१३) चन्द्रमा की वृद्धि-अपवृद्धि
उसी विवरण को यहाँ संक्षेप रूप से उद्धृत (१४) ज्योत्स्ना प्रमाण
किया जा रहा है । यथा : (१५) चन्द्रादिकी शीघ्र गति निर्णय ____ गौतमस्वामी :-" जब सूर्य सबसे आभ्यंतर (१६) ज्योत्स्ना लक्षण
मंडल में से निकलकर सबके बाद के मंडल में (१७) चन्द्रादिका च्यवन और उपपात चाल चले तथा सबके बाद के मंडल से निकल
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२८
तत्त्वज्ञान स्मारिका कर सबके अभ्यंतर मंडल में चाल चले तब यह प्रथम प्राभृत के छठे प्राभृत में एक रात्रिकाल-कितने रात्रि-दिनका होवे ?
दिन में सूर्य कितने क्षेत्र स्पर्श कर चलता है"उत्तर :-यहाँ ३६६ तीन सो छाछठ दिन इस विषय में विस्तार से प्रकाश डाला गया है का काल होवे ।"
और आठवें प्राभृत में प्रमाण कहा गया है। . प्रश्न:-" पूर्वोक्त काल में सूर्य कितने मंडलों। इनमें भी सूर्य के गतिशील होने के प्राप्तिमें चलता है ? कितने मंडलों में एक समय विवरण है। चलता है और कितने मंडलों में दो समय प्रथम प्राभूत के अंत में सूर्य का मार्ग चलता है?
५०९ तथा ५१० योजन का बताया गया है। उत्तरः-सामान्यतः सूर्य १८४ मंडल में यदि सूर्य परिभ्रमण नहीं करता होता तो चलता है, जिसमें से १८२ मंडल में सूर्य दो। फिर उसके मार्ग की लम्बाई का विवरण क्यों समय चलता है, और प्रथम एवं अंतिम मंडल | दिया जाता ? यह विचारणीय है । में एक समय चलता है, क्योंकि बीच के १८२ श्री सूर्यप्रज्ञप्ति के प्राभृत में सूर्यकी तिरछी मंडलों में सूर्यका आना व जाना होने से दो गति का विवरण है। समय चलता है और प्रथम व अंतिम मंडल में
इस प्राभृत का प्रारंभिक विवरण बहुत ही जाकर फिर दूसरे पर आ जाता है । इससे
-क्षीवर्य दोनों मंडलों में एक ही समय चलता है।"
प्रश्नः-भगवन् ! सूर्य की तिरछी गति उस (सूर्यप्रज्ञप्ति १।४-५)
| प्रकार की है ?" इसी विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि
उत्तर:-" अहो शिष्य ! इसमें अन्यतीर्थीयों सूर्य परिभ्रमण करता है। इससे आगे सूर्य- | को प्ररूपणारूप आठ पडिवत्तियाँ कही है। प्रज्ञप्ति में दिनरात्रि का विवरण किया गया है । | उनमें से कितनेक ऐसा कहते हैं कि:वहाँ भी स्पष्ट हो जाता है कि :
पूर्व दिशा के लोक के चरिमान्त से प्रभात सूर्य कब कहाँ होता है ? तब दिन-रात्रि | में पूर्व आकाश में निकलता है। वह तिरछे लोक कितने मुहूत के होते है ?
में विनाश को प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ :
(२) कितनेक ऐसा कहते हैं कि पूर्व दिशा “१२ वे मंडल में सूर्य चलता हो तब | के लोक के चरिमांत से प्रभात में सूर्य आकाश १५० मुहुर्त का दिन होता है और १४३ | में रहता है । वही सूर्य तीरछे लोक में प्रकाश मुहूर्त की रात्रि होती है।"
| करके पश्चिम दिशा के लोकांत में संध्या समय इससे आगे भी सूर्य का परिभ्रमण प्रति- में आकाश में विचरे । (३) कितने ऐसा कहते पादित किया गया है और प्रत्येक मंडल के परि- हैं कि पूर्व दिशा के लोक के चरिमांत में प्रभात भ्रमण का विवरण दिया गया है। । में सूर्य आकाश में रहता है । वह तीरछे लोक में
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सूर्य प्राप्ति के अनुसार सूर्य गतिशील है।
[ २९ प्रकाश करके पश्चिम के चरिमांत में संध्या समय पश्चिम-विभाग में प्रकाश रहे तब उत्तर-दक्षिण आकाश में प्रवेश कर अधो लोक में आता है। विभाग में रात्रि होती है। वहाँ वह प्रकाश करता है। फिर पृथ्वीमें से इस प्रकार वे दोनों सूर्य जम्बूद्वीप के दक्षिणनिकलकर लोक के अन्त में प्रभात में सूर्य उत्तर विभाग में रात्रि व पूर्व–पश्चिम विभाग में आकाश में रहता है । इस तीसरे मत से यह
प्रकाश रहते हुए जम्बूद्वीप की पूर्व-पश्चिम लोक वर्तुलाकारवाला है ऐसा होता है। इससे सूर्य |
रेखा आदि प्रभात-रात हुए दोनों सूर्य आकाश
में प्रकाश करते हैं" । २।९ दिन को उपर के भाग में और रात्रि को नीचे के भाग में प्रकाश करता है । जहाँ प्रकाश रहता है
इस विवरण से दो सूर्य होनेका स्पष्टीकरण
मिलता है । वहाँ दिन और जहाँ अदृश्य होता है वहाँ रात्रि । यह मत राजप्रसिद्ध व विदेशी प्रजा का है।
दूसरे प्राभूत के दूसरे प्राभृत में सूर्य किस
प्रकार चलता है ? इस प्रश्न का समाधान किया उक्त तीनों मतवालों में विशेषता है, जो
गया है। इस प्रकार है -
तथा तीसरे प्राभृत प्राभृत में यह बताया (१) सूर्य का विमान नहीं है, देवतारूप गया है कि हरएक मुहर्त में सूर्य कितना चलता सूर्य नहीं है, परन्तु किरणों के संघातरूप गोला- | है ? इस सम्बन्ध में चार मत बताये गये हैं । यथाकार है । लोकों के अनुभव से प्रतिदिन पूर्व दिशा
(१) एक एक मुहूर्त में छः हजार योजन के आकाश में उत्पन्न हो सर्व स्थान प्रकाश
(२) एक एक मुहूर्त में पांच हजार योजन रहता है।
(३) ----,, - चार हजार योजन (२) दूसने मतानुसार यह देवता रूप सूर्य
(४) -------,, ---- छः हजार, पाँच तथाविध जगत के स्वभाव से आकाश में उत्पन्न हजार व चार हजार योजन चलता है। होता है और अस्त होता है।
आगे सूर्य की इन गतियों का औचित्य (३) तीसरे मत के अनुसार-यह देवता- प्रतिपादित किया गया है कि कौन-सी गति रूप सूर्य सदैव स्थित पृथ्वी पर प्रदक्षिणा
किस हेतु से उचित है। करता करता है।"
आठवें प्राभृत के अंत में कहा गया है आगे पुनः तीन मत आकाशोदय व समु
" ढाई द्वीप में १३२ चंद्र, १३२ सूर्य
निरंतर परिभ्रमण करते हैं । " द्रोदय के रह गए हैं। दूसरे प्रामृत के प्रथम प्राभूत के अंतमें कहा गया है कि
यहाँ श्री सूर्यप्रज्ञप्ति के आंशिक विवरण
को प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह स्पष्ट हो __ "वे दोनों में एक सूर्य दक्षिण दिशा के |
| जाता है किविभाग में प्रकाश करे और दूसरा उत्तर दिशा
श्री सूर्यप्रज्ञप्ति में सर्वत्र सूर्य को ही गतिके विभाग में प्रकाश रहे, तब जम्बूद्वीप के पूर्व - मान बताया गया है । सम्पूर्ण विवरण के लिए पश्चिम विभाग में रात्रि होती है। और सब | समय एवं क्षण की अत्यंत आवश्यकता है।
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वैदिक साहित्य में पृथ्वी विषयक विवरण
कन्हैयालाल गौड एम. ए. साहियरन १७ लाला लजपतराय मार्ग, निगमनिवास
उज्जैन (म. प्र.)
AVANNN
वेदों में पृथ्वी को ' महीमाता' कहा गया | हो पृथ्वो अपने स्थान पर स्थिर है और सूर्य है, वह सबकी महती जननी है । धुलोक सार्व- | पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करता है। भौम जनक अथवा पिता है । इन दोनों का अयुक्त स्वप्न शुन्ध्यवः अन्तर्भाव अदिति में है, जो सब देवों की सूरो रथस्य नात्यः । माता है।
(ऋ. १०७२।५८) ताभिर्याति स्वयक्तिभिः । ११५०९ ऋग्वेद __पृथ्वी शक्ति को महती जननी है। " पवित्र करनेवाला बुद्धिमान तथा कभी न उसी की शक्ति से प्रकृति चराचर का प्रसव | गिरनेवाला सूर्य अपने रथमें सात घोडे जोडता करती है । समस्त पदार्थ उसी से उद्भूत हुए | है और फिर उन स्वयं जुड जानेवाले घोडौं से हैं । वह 'माता' है जिसकी गोदमें बालनारा- | वह सर्वत्र जाता है।" यण खेलते हैं अथवा जो उनकी रक्षा करती है। आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो ___वह मनुष्य तथा पशुओं की भी जननी ।
निवेशयन्नमृतं मर्त्यच । है । वन्य जन्तु भो उसके परिवार के अंग हैं,
हिरण्मयेन सविता रथेना क्योंकि वह जंगली जीव, नाग सुपर्ण और |
देवोयाति भुवनानि पश्यन् ॥ मत्स्यादि को भी उत्पन्न करनेवाली है।
" सवितादेव स्वर्णिम रथ पर चढकर अन्धउसके विराट प्रसव से औषधि, वनस्पतियाँ
कार मुक्त अन्तरिक्ष के मार्ग में भ्रमण करने
वाले देवताओं और मनुष्यों को अपने-अपने तक का जन्म होता है । जिसके द्वारा वह प्रज
कर्म में लगाते हुए, सम्पूर्ण लोकों का अवलोकन नन कार्य को जिसका वह आदि स्रोत है, सदा
करते हुए आगमन करते हैं।" अग्रसर करती रहती है।
उपरोक्त दोनों ऋचाओं का अध्ययन करने _प्रकृति रूप से यह मातृशक्ति ब्रह्मका एक
से स्पष्ट हो जाता है कि " पृथ्वी नहीं घूमती है अभिन्न अंग है। (ऋ. ३. ९. ४. ३)
| वरन् स्वयं, सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है।" पृथ्वी के आरंभ से अब तक की उसकी | | वेदमत से पृथ्वी स्थिर है, तथा उसकी कहानी बडी रोचक है । इसका कतिपय भाग | उत्पत्ति धन-धान्य उत्पन्न करने तथा प्रजा का प्रामाणिक है और अधिकांश धुंधला है। कुछ भी । पोषण करने के लिए की गई है।
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वैदिक साहित्य में पृथ्वी विषयक विवरण [३१ आर्य विश्वा स्वपत्याग्नि
जिस प्रकार धुलोक स्थिर है, पृथ्वी स्थिर तस्थुः कृण्वानासो अमृत त्वायं गातुम् । । | है, यह सब जगत स्थिर है तथा ये पर्वत मह्य महिद्भ पृथिवी वितस्थे ।
स्थिर है। माता पुत्रेरदितिधत्य सेवेः ।
उस प्रकार यह प्रजाओं का रंजन करने
वाला राजा स्थिर है। (९।७८।९ ऋग्वेद)
वेद चार है जिनमें से ऋग्वेद तथा अथर्वजो अमरत्व-प्राप्ति के लिए मार्ग तैयार | वेद इन दोनों के अध्ययन से यह सिद्ध हो करते हैं, वे उत्तम कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। | गया है कि
बडे वीर पुत्रों से युक्त (माता अदितिः) पृथ्वी स्थिर है। माता तथा खंडन के अयोग्य ( पृथिवी ) पृथ्वी यजुर्वेद में भी पृथ्वी स्थिर है विषयक ऋचा धारण-पोषण के लिए अपनो महिमा से विस्तत | है दखिए :हुई । वही हे अग्ने ! तू हवि खाता है ।
परतोऽपि तिसृणां धुलोक स्कम्भेमें विष्टमिते
प्रभू तिलोक-संस्तवः ।
यत्रोराट्र। योश्च भूमिश्च तिष्ठतः ।
यमनी दीप्ता चासि । स्कम्भ इदं सर्व मात्मनवद् ,
यत्र असि । यमती यत् प्राणान्निमिषच्चयत् ॥
ध्रुवा अक्षि धरित्री। (१०।८।२ अथर्ववेद) पशुसंस्तवः पूर्ववत् । सर्वाधार शक्ति से आश्रित होकर ही यह | इषेत्वो-जेत्वारम्यै । द्यो; और भूमि अपनी अपनी कक्षा में अव
त्वा पोषायत्वा । लोकं स्थित है।
ता इन्द्रमिति व्याख्यातम् ॥ स्कभ्भ में वह समाया हुआ है, जो आत्मा- (१४।२२। पृ. २६८ यजुर्वेद) वाला है, अर्थात् चैतन्यपूरित है, जो साँस | और अवलोकन के लिए---- लेता है, और आँख झपकता है।
ोस्ते द्योश्च रो तव अर्थात् जड-चेतनात्मक यह सम्पूर्ण संसार पृथिवी च अंतरिक्षं च वायुश्च । उसी सर्वाधार परमेश्वर में ही समाया हुआ है। छिद्रं पृणातु पूरयतु ते किं च । ध्रुवा द्यौः ध्रुवा पृथिवी
सूर्यश्च ते तव नक्षत्रेः ध्रुवं विश्वमिदं जगत् ।
सहलोकं स्थानं कृणोतु । ध्रुवाक्षः पर्वता इमें
साधुन्या साधुम् ध्रुवो राजा विशामयम् ।।
द्वितीयाथैया छान्दसः । (६८८ १ अथर्ववेद) । (३३।४३।पृ. ४४२ यजुर्वेद)
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३२]
तत्त्वज्ञान स्मारिका - समस्त प्राणिओं के भीतर जो केन्द्र अथवा । हे बालखिल्ये इष्टके ! तुम मूर्धा के हृदय है, जिसका नाम प्रजापति है, उभी में | समान सर्वश्रेष्ठ हो । तुम धारण करनेवाली और सभी कुछ है ।
स्थिर हो, अतः स्थिर रूप से इस स्थान को गुण-दोष दोनों ही उस बिन्दु या बीज के | धारण करो। भीतर रहते हैं। ऐसी सर्वरूपेश्वरी दैवी-शक्ति को
तुम धारण करनेवाली भूमि के समान स्थिर प्रणाम करने के कारण ही भारत के मनीषियों
हो, इस स्थान को धारण करो। ने समन्वय-प्रधान धर्म और दर्शन को जन्म
तुम्हें अन्न-वृद्धि के लिए स्थापित करता दिया । शान्तरूप और विकरालरूप एक ही
हूँ। तुम्हें कल्याण की वृद्धि के निमित्त स्थापित तत्त्व के द्विधारूप हैं।
करता हूँ। - इसलिए सब में पूज्य-बुद्धि या आत्मा
तुम इस स्थान में विधिपूर्वक निवास करो। बुद्धि रखना आवश्यक है। प्रकृति के विधान में सबका नियत स्थान |
तुम स्वयं नियम में रहकर अन्य से भी नियम है। किसी का अभाव नहीं किया जा सकता।।
पालन करनेवाले हो, इस स्थान में रहो । अपने-अपने स्थान में सबकुछ सुशोभित है। तुम पृथ्वी के समान अविचल हो, नीचे
वैदिक-धर्मके ऋषियोंने प्रकृति (पृथ्वी) के | रखी इष्टका को धारण करो। अन्नप्राप्ति के विराट रूप का बहुत हो काव्यमय ढंग से वर्णन | निमित्त तुम्हें स्थापित करता है। किया है। भक्तिप्रधान वैदिक-धर्म में जिस
धन की प्राप्ति के निमित्त तुम्हें स्थापित दैवी अथवा प्राकृतिक-शक्ति के समय समय पर करता है, धन की पुष्टि के निमित्त मैं तुम्हें उपासना प्रचलित हुई उनका एकत्र वर्णन पाया
स्थापित करता हूँ।" जाता है । उनमें पृथ्वी भी सम्मिलित हैं। मूर्धासिं राड्र्धवाक्षि
___ इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया है कि पृथ्वी धरूणा धर्यसि धरणी।
अपने स्थान पर स्थिर होकर वह प्रजाको
देश को सम्पन्नता प्रदान कर रही है। आयुषे त्यां वर्चसे त्वा कृण्यै त्वा क्षेमाय त्या ॥२१॥
पृथ्वी का निर्माण अन्न प्राप्ति के लिए हुआ। यंत्रो राड् यन्त्र्यसि
जिस प्रकार अग्नि में जलाने की शक्ति, चन्द्रमा यमनी ध्रुवासि धरित्री।
में चाँदनी, कमल में शोभा और सूर्य में चमक इषे त्योर्जे त्या रच्यै
का सम्बन्ध है उसी प्रकार पृथ्वी में समस्त त्वा पोषाय-त्वा ॥२२॥ (यजुर्वेद) चराचर को पावन करने की शक्ति विद्यमान है।
ज
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र दार्शनिक आलोक में आत्मा
डॉ. बलिराम शुक्ल एम. ए., पीएच. डी., न्यायाचार्य अध्यक्ष-न्याय एवं सर्वदर्शन विभाग
___नई दिल्हो
ROSSASARASHRSITISAR* दर्शन मुख्य रूप से तीन बातों का विचार । मूर्त अथवा आध्यात्मिक (Concrete or और विश्लेषण करता है।
Idealistic) मत है। (१) मैं क्या हूँ?
___भारतीय-दर्शनों में चार्वाक से होकर (२) यह बाह्य संसार क्या है ? और
अद्वैत-वेदान्त तक सभी दर्शनों में आध्यात्मिक (३) मुझमें और इस संसार में क्या सम्बन्ध हैं ? |
तत्त्व के रूप में आत्मा के अस्तित्व और निषेध इन प्रकार के विचारों के फलस्वरूप सभी |
का विस्तृत उहापोह प्राप्त होता है। भारतीय दर्शनों में "मैं" के अर्थात् आत्मा के दस प्रकार का विस्तत. सर्वाङ्गीण तर्कपूर्ण विचार का सृजन हुआ तथा मैं (आत्मा) के |
(आत्मा) के विवेचन पाश्चात्य-दर्शन में प्राप्त नहीं है। विश्लेषण को प्रमुख स्थान मिला । ____ पाश्चात्य दर्शन में भी Philosophy of
__अतः प्रस्तुत में भारतीय-दर्शनों के आधार the self का प्रामुख्य दृष्टिगोचर होता है।
पर आत्मा (self) का विश्लेषण करना ही पाश्चात्य-दर्शन में आत्मा शब्द तीन अर्थो ।
उचित होगा। में प्रयुक्त होता है।
चार्वाक मत : इसका पहला अर्थ है " एक अमूर्त एकता चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाणवादी होने से उसके अथवा तत्त्व जो अपनी अभिव्यक्ति से पृथक है ।" मत में आत्मा नामक आध्यात्मिक-तत्त्व की
दूसरा अर्थ-" मानसिक-दशाओं का वह सिद्धि बाह्य भौतिक-पदार्थों के समान बाह्य समुदाय जो अपने तत्त्व से पृथक् है।" प्रत्यक्ष से या सुख-दुःख से आंतरिक-भावनाओं तथा तीसरा अर्थ है-“ एक आध्यात्मिक
की तरह आभ्यन्तर प्रत्यक्ष से संभव नहीं है । तत्त्व जो अभिव्यक्ति के आधार पर प्रमाणित . आत्मा को प्रामाणिकता को अनुमान से होता है, तथा परिवर्तनों के मध्य में अपने तादा- भी प्रस्थापित करना प्रस्थापक हेतु के अभाव त्म्य को भी नहीं खोता हैं।"
में अशक्य है। __पहला मत तात्त्विक मत (Nounaenal) चैतन्य--भूतपदार्थों की परिणति विशेष है, दूसरा अनुभव पर आधारित है, तथा तीसरा | का नाम है ।
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तत्त्वज्ञान स्मारिका जिस प्रकार गुड-आटा आदि में पहले न अतः नैरात्म्यदर्शन से ही कामतृष्णा, रहनेवाली मद-शक्ति उसी के सुरारूप में परिणत | भवतृष्णा और विभावतृष्णा का क्षय होकर होने पर आ जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि निर्वाण की प्राप्ति होती है। भूतों के शरीर के रूप में परिणत हो जाने पर बौद्ध क्षणभंगवादी होने के कारण उनके चैतन्य प्रादुर्भूत हो जाता है।
मत से किसी भी वस्तु की स्थायी सत्ता नहीं है। ___ अन्त-समय में व्याधि आदि के कारण | सतत प्रवहमानता, अनवरत परिवर्तनचैतन्य का विनाश होकर मृत्यु की अवस्था प्राप्त
शीलता ही है। होती है। जब तक चैतन्य रहता है तब तक
अस्थायी Becoming के सिद्धान्त के स्मृति-अनुसंधान आदि व्यवहार चलते रहते हैं।
अनुसार ह्यूम के समान बौद्ध दार्शनिक भी आगम का प्रामाण्य कल्पित होने से उसके
ज्ञान (आत्मा) को मानसिक प्रक्रियाओं का
क्रम मात्र अथवा विज्ञान सन्तान मात्र मानते हैं । आधार पर भी आध्यात्मिक आत्म-तत्त्व की सत्ता
___ उनके अनुसार आत्मा पञ्चस्कन्ध है, यह का प्रतिष्ठापन नहीं किया जा सकता।
अस्थायी मनोदशाओं तथा शारीरिक प्रक्रियाओं वैसे आगम भी भूत-चैतन्यवाद का समर्थन
का संघातमात्र है। करता है । अतः चार्वाक-मत के अनुसार नित्य
यह रूपस्कन्ध, वेदना स्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, आध्यात्मिक सत्ता की स्थापना न होने से पर
संस्कारस्कन्ध तथा विज्ञानस्कन्ध का संघात है। लोकादि की भी कल्पना निराधार है।
__इन पाँच प्रकार के स्कंधों का संघात ही बौद्ध मत :
यथार्थवादियों का अहंप्रत्ययवेद्य आत्मा है । प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम के समान
____ आत्मा का यह विचार ह्यूम के विचार के ही बौद्ध-दार्शनिक भी आध्यात्मिक आत्मतत्त्व
समान है, परन्तु बौद्धों का आत्मा का प्रत्यय की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं ।
शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार की ___ वे अनात्मवाद या नैरात्म्यवाद के सिद्धान्त
क्रियाओं को भी अपने में सम्मिलित करता है । को स्वीकार करते हैं।
परन्तु ह्यूम का प्रत्यय मात्र प्रत्यय है। उसमें बौद्धों की मान्यता के अनुसार आत्मदर्शन मानसिक तथा शारीरिक क्रियाओं का समावेश ही सभी दुःखों का मूल कारण है । [ नहीं है।
१ विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येनानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्नि । २ तथा च लौकायतिकाः परलोकापवादिनः । चैतन्यखचितात् चित्तात्कायान्नात्माऽन्योऽस्तीते मन्यते ॥
न्या. म. व्र, प्र ननु चाश्रितमिच्छाऽऽदि देह एव भविष्यति । भूतानामेव चैतन्यमिति प्राह बृहस्पतिः || वही
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दार्शनिक आलोक में आत्मा नित्य आत्मा माननेवाले सुख-दुःख आदि नैरात्म्यदर्शन का मार्ग क्षणिकता का भावनाओं के उत्पन्न होने पर उसमें विकृति का | निश्चय है । अनुभव करते हैं तो उसे धर्म-अधर्मादिके समान सभी पदार्थो को क्षणिक मानने पर ज्ञान अनित्य मानना होगा और यदि सुख आदि के | का भो कोई आश्रय सिद्ध न होने से आत्मा की उत्पन्न होने पर भी यदि वह निर्विकार है तो | कल्पना रब पुष्प तुल्य सिद्ध होती है। सुख-दुःख के रहने या न रहने से क्या विशेष सतत परिवर्तनशील शारीरिक और मानहोता है ?
सिक क्रियाओं में प्रवहमान एकता है, परन्तु यदि कोई विशेष नहीं है तो कर्म का | उनके कोई स्थायो तत्त्व नहीं है। अस्थायी वैफल्य हो जाएगा, इसलिए कहा गया है कि
शारीरिक तथा मानसिक क्रियाएँ अविधा के
कारण भ्रमवशात् स्थायी आत्मा मान ली वर्षाऽऽतपाभ्यां किं व्योम्नः
जाती है। चर्मण्यस्ति तयोः फलम् ।
मिलिन्द प्रश्न में बौद्ध दार्शनिक नागसेनने चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः
राजा मिलिन्द को रथ के दृष्टांत द्वारा आत्मा रवतुल्यश्येदसत्समः ॥
की संघातरूपता को समझाया है। अर्थात् “जिस प्रकार वर्षा या धूप से | जिस प्रकार रथ, चक्र, ध्रुवा तथा रथ के आकाश में कोई विकृति नहीं आती है, परन्तु | अन्य अवयवों के संघात के अतिरिक्त कुछ चमडे में उससे विकृति उत्पन्न होती है। यदि | नहीं है। आत्मा चर्म के समान है तो अनित्य होगा और
उसी प्रकार " मैं " आत्मा भी रूपस्कन्ध, आकाश के समान है तो वह असत् के वेटनाकन्ध. संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध तथा समान है।
विज्ञानस्कन्ध के संघात के अतिरिक्त कुछ भी इस लिए मुमुक्षु को मूर्धाभिषिक्त इस आत्म- | नहीं है। ग्रहरूपी मदमोह को छोडना चाहिए।
सांख्य मत :आत्मग्रह के विनष्ट होने पर आत्मीयग्रह का सांख्य का मत है कि प्रकृति कर्ता है और विनाश होता है। जब 'मैं' का अस्तित्व नहीं पुरुष या आत्मा पुष्कर-पलाश की तरह निर्लेप है तो "मेरे" का कहाँ अस्तित्व रह जाता है ? परन्तु चेतन है । इस प्रकार से अहंकार और ममाकार की चेतना पुरुष का स्वाभाविक गुण है, यह ग्रन्थि का विमोचन करनेवाला नैरात्म्यदर्शन ही न्याय-मत के समान उसका आकस्मिक गुण निर्वाणद्वार है।
नहीं है। ३ ज्ञानं बौद्धगृहे तावत्कुतो नित्यं भविष्यति । अन्येऽपि सर्वे संस्काराः क्षणिका इति गृह्यताम् ।। वहीं
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तत्त्वज्ञान स्मारिका आत्मा कभी भी अचेतन नहीं होती, चैतन्य मरण, बन्धक, मोक्ष की व्यवस्था का तर्कयुक्त उसका स्वभाव होने से वह अपने स्वभाव से प्रतिपादन संभव नहीं है। कभी विहोन नहीं होता है।
पुरुष के भोगों के लिए प्रकृति जगत के वह शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। | रूप में परिणत होती है । और पुरुष के लिए
पदार्थो का ज्ञान बुद्धिमें होता है जो कि | यह संसार को समेट लेती है । प्रकृति का अचेतन विकार है ।
जिस प्रकार बछडे की तृप्ति के लिए स्तन ज्ञान इन्द्रियों तथा पदार्थ के सन्निकर्ष से | से दूध प्रवर्तित होता है, उसी पुरुष के लिए उत्पन्न होता है।
प्रकृति की प्रवृति होती है। यह ज्ञान आत्मा का धर्म समझा जाता है ।
सांख्य जीव के अतिरिक्त किसी विशेष पुरुष
की सत्ता को नहीं स्वीकार करता । पुरुष शुद्ध चैतन्यमय आत्मा जब बुद्धि में प्रति- ।
विशेष की कल्पना योगदर्शन में उपलब्ध होती हैं । बिम्बित होती है, तो अचेतन-बुद्धि भी अपने को
न्याय मत :चेतन समझने लगती है। जैसे जपा-कुसुम के सम्पर्क से स्फटिक में रक्तता भासित होती है ।
न्याय मत के अनुसार आत्मा भी द्वादश
तत्त्वज्ञानोपयोगी प्रमेयों से एक हैं। आत्मा या पुरुष ज्ञाता तथा दृष्टा है । वह भोक्ता है, भोग्या प्रकृति है।
न्याय मानता है कि आत्मा एक स्थायी
| तत्त्व है, जो ज्ञान, इच्छा सुख-दुःखादि चतुर्दश प्रकृति और उसके विवर्त दृश्य या भोग्य है।
गुणों का आश्रय है। आत्मा ज्ञाता है, परन्तु वह क्रियाशील
आत्मा अपने तात्त्विक-स्वरूप में चेतन कर्ता नहीं हैं।
नहीं हैं, चैतन्य-ज्ञानादि आत्मा के आगन्तुक सुख-दुःख, ज्ञान आदि भी बुद्धि के ही | धर्म है। धर्म हैं । क्रियाशीलता भी बुद्धि में ही रहती है। चेतना उसका स्वरूप नहीं है, यह उसका आत्मा भ्रम से अपने आपको क्रियाशील |
बाहरी गुण है। तथा ज्ञाता समझने लगती है। पाप--पुण्यादि | मन और आत्मा के संयोग से विषयों के सभी धर्मबुद्धि के हैं, जो आत्मा में प्रतिबिम्बित | सम्पर्क के फलस्वरुप चेतना उत्पन्न होती है। होते हैं।
सुषुप्तिकी अवस्था में मन जब पुरीतती सांख्य सिद्धान्त के अनुसार पुरुष अनेक | नाडी में प्रवेश कर जाता है, उस अवस्था में पुरुष को अनेकता को स्वीकार किये बिना जन्म, | आत्मा की चेतना नष्ट हो जाती है।
१. आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्ति-प्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् । न्या. सू. १-१-९.
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दाशनिक आलोक में आत्मा मोक्षावस्था में आत्मा के अशेष विशेष गुणों यही वजह है कि दुःखों के कारणों का का ध्वंस हो जाता है।
| समूहोच्छेदन हो जाने से पुनः संसार की कोई इसलिए न्याय की इस मुक्ति को कुछ संभावना नहीं रहती है। विद्वानों ने शिला की उपमा दी है । “मुक्तये | इसीलिए उपनिषदों में इस अवस्था का शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् ” कहकर श्री वर्णन "न स पुनरावर्तते" के रूपमें प्राप्त होता है। हर्षने इसको खिल्ली उडाई है।
वैशेषिक और न्याय मत में आत्मा के तात्पर्य यह है कि अपने निजी रूप में स्वरूप के विषय में कोई मतभेद नहीं । आत्मा-अविज्ञान ही है।
द्रव्य के नौ प्रकारों में वैशेषिक आत्मा का न्यायसिद्धान्त के अनुसार आत्मा ज्ञाता,
भी समावेश करते हैं।
आत्मा के जीव और ईश्वर भेद भी वैशेभोक्ता तथा कर्ता है। ज्ञान, इच्छा, आदि
षिकों को मान्य है ऐसा समझा जाता है । इसके आगन्तुक गुण हैं।
___ जीव प्रति-व्यक्तिभेद से भिन्न होने से ज्ञान इच्छा के समान अदृष्ट अर्थात् पाप
अनन्त प्रकार के हैं। और पुण्य भी आत्मा के गुण है ।
न्याय-मतसिद्ध आत्मा के स्वीकार न करने विदित कर्मो से पुण्य तथा निषिद्ध कर्मों से
पर पाप-पुण्य व्यवस्था, स्मृति-संस्कार का पाप उत्पन्न होते हैं।
कार्य-कारण सिद्धान्त तथा प्रत्यभिज्ञा व्यवहार संस्कार भावना के रूप में आत्मा का वह को पुष्टि नहीं हो सकती है। गुण है, जिसके कारण पूर्वानुभूत वस्तुओं, घट- न्यायमंजरीकार जयन्त ने बौद्धों के विज्ञा नाओं आदि का स्मरण होता है ।
नवाद और क्षणभंगुरवाद का निराकरण करके मुक्ति की अवस्था में पाप-पुण्यादि सभी स्थायी-आत्मा की सत्ताकी पुष्टि की है। विशेषगुण नष्ट हो जाते हैं।
इसी प्रकार वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचमोक्ष की अवस्था आत्यन्तिक-दुःख-निवृत्ति
| स्पति, उदयन प्रभृति नैयायिकों ने बौद्ध, सांख्य की अवस्था है। इसमें २१ प्रकार के दुःखों का
और चार्वाक-मत की तीव्र आलोचना को है ।
आत्मा को जडता का आरोप जो न्याय पूर्णतया विनाश हो जाता है।
मत पर किया जाता है, वह उचित नहीं है । जिसके कारण पुनः दुःख उत्पन्न होने की क्योंकि जडना का अर्थ है ज्ञानादि का संभावना ही नहीं रह जाती है।
अत्यन्ताभाव । वह २१ दु.खों में दुःख के कारणों का भी क्योंकि " ध्वंस-प्रागभावयोरधिकरणेनात्यदुःख के रूपमें परिंगणन किया गया है। न्ताभावः” इस नियम के अनुसार जहाँ ज्ञाना
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तत्त्वज्ञान स्मारिका दिका ध्वंस रहता है या प्रागभाव रहता है वहाँ । ज्ञान की अवस्था में भी होता है । उस समय अत्यन्ताभाव नहीं रहता है।
भी जडत्वप्राप्ति होगी। ___मुक्तिकाल में अशेष विशेष गुणों का ध्वंस अतः ज्ञानात्यन्ताभाव को जडत्व कहना होने से वहाँ उनका अत्यन्ताभाव नहीं रहेगा। समीचीन है। अतः आत्मा को जडता का आरोप खंडित
यद्यपि नव्य नैव्यायिक उपर्युक्त नियम को हो जाता है।
स्वीकार नहीं करते हैं । उनके मत में भी प्रतिज्ञान के ध्वंस या प्राणभाव को जडत्व
योगिव्यधिकरणज्ञानात्यन्ताभाव को जडत्व माना नहीं कहा जा सकता है।
जाता है और वह जडत्व मुक्तिकरण में आत्मा
में न होने से श्री हर्ष का उपर्युक्त कथन क्योंकि शिक्षणावस्थायी ज्ञान का धंस | उपेक्षणीय है !
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-
-
म.... न....नी....य....सू....त्र.... * विचारों की शक्ति पर भरोसा रख कर मानव अपना विकास
कर सकता है । किंतु आचारमें परिणत न होनेवाले विचार कारी बन लेनार हैं
अतः आराधककी पवित्र फरज है कि विचारों में आचारशक्तिका मिश्रण करना चाहिए ।
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वैदिक साहित्य में आत्म-तत्व विवेचन
ले. डॉ. राम संजीवन त्रिपाठी एम. ए. (संस्कृत एवं दर्शन ) वेदान्ताचार्य - साहित्यरत्न विद्यावारिधि (पी एच., डी.) मार्ग-निर्देशक एवं चेतनाविज्ञान प्राध्यापक
महर्षि वेदानुसंधान प्रतिष्ठानम्-नयी दिल्ली mednesedbasedootshdeebsthdchhshobshseseshishedd e sisamasoiedstseestostee shahesh bstershdoot
भारत को प्राचीनकाल से धर्मगुरु, अध्या- इस प्रकार यदि यह कहा जाय कि-वेदों स्मगुरु या जगद्गुरु पद से अभिहित किया के त्रिविद्यार्थ विवेचन में, आध्यात्मिक अर्थ की जाता रहा है।
दृष्टि से मात्र आत्म तत्त्व का विश्लेषण ही वेदों __इसका मुख्य आधार “ अध्यात्म-चिन्तन" |
का विशेषतः वेदो के अन्तिम भाग (उपनिषदों) अथवा आत्मचिन्तन की गंभीरता और आत्मज्ञान में वेदान्त का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है तो कोई का विस्तार है। यह चिन्तन वेदों में मौलिक असंगत बात नहीं होगी। एवं विस्तृत रूप में मिलता हैं । वेदों को समस्त ऋग्वेद के दशम मण्डल के १२९वें सूक्त ज्ञान का भण्डार माना गया है और “वेद" | में पहली बार एकतत्त्ववाद का दर्शन होता है। शब्द का व्युत्पत्ति लब्ध अर्थ भी “ ज्ञान" है, जहाँ " कस्मै देवाय हविषा विधेम " के जो आत्म-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान का समानार्थक है। रूप में जिज्ञासा कर के सृष्टि के देवता प्रजा
अध्यात्मवादियों ने तो प्रत्येक ऋचा (वेद- | पति को “ हिरण्यगर्भ" नाम से एकमात्र तत्त्व मन्त्र) में उस तत्त्व का मूलतः दर्शन किया, जिसे
म तत्व का मलतः दर्शन किया जिसे के रूपमें स्वीकार किया गया । आत्मज्ञान या ब्रह्मदर्शन कहते हैं ।
__इसो मण्डल के एक सौ नब्बेवें सूक्त में __ वेदों में प्रमुख ऋग्वेद की पहली ऋचा में विराट् पुरुष की कल्पना भी एक तत्त्व की इयत्ता ही उक्त प्रमाण मिल जाता है । यथा -
का पोषण करती है। ___ " अग्नि मीले पुरोहितम् ” में “ अग्नि" |
किन्तु इसे समष्टिभूत आत्मा के रूप में शब्द का "अ" वर्ण वैयाकरणों और आत्म- | माना गया है । यथावेत्ताओं के मत में ब्रह्म का वाचक है। " पुरुष एवेदं सर्वं यद भूतं यच्च भाव्यम् ।
गीता का " अक्षराणाम् अकारोऽस्मि" | उतामृतरत स्मशानो पदेन्नेनातिरोहति ॥" वचन भी इस तत्त्व का पोषण करता है। हिरण्यगर्म और विराट्पुरुष के अतिरिक्त
इसके अतिरिक्त आत्मम् शब्द में प्रथम वर्ण | वैदिक-दर्शन में ऋग्वेद से उपनिषदों तक, दो "अ" ऋग्वेद की प्रथम ऋचा का प्रथम वर्ण है। अन्य समानार्थक सत्ताओं को वैदिक-साहित्य
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तत्त्वज्ञान स्मारिका के प्रमुख प्रतिपाद्य विषय के रूप में देखा जा | ___जहाँ एक ओर पूर्ण तत्व के रूप में, सकता है।
| * तस्मादेतस्माद्वा आत्मन आकाशः जायते, ये सत्ताएँ हैं-(१) ब्रह्मन् और (२)
आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः आत्मन् । दो पर्यायवाची, शब्दों से व्यक्त इन सत्ताओं |
अग्नेरावः, अद्भ्यः पृथिवी पृथ्या ओषधम् का, एकत्व और पूर्णत्व
ओषधिभ्ये इमानि सर्वाणि भूतानि जायन्ते ।" " पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
-से विकासवाद का दार्शनिक सिद्धान्त __ पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते ॥” | वर्णित है वहीं " शिवं शान्तं शाश्वतमद्वैतं चतर्थं इस मंत्र में स्पष्ट तथा प्रतिपादित हो जाता है। तं मन्यन्ते स आत्मा विज्ञेयः ।" - यदि और सूक्ष्म वीक्षण करें, तो पूर्ण चेतना | | ऐसा कहकर परम साध्यभूत तत्त्व के रूप के आत्मा-विस्तार की अभिव्यक्ति हमें में आत्मा को स्वीकार किया गया । " ऋचोऽक्षरे चरमे व्योमन् ,
। उक्त दोनों धारणाओं के बीच, मध्यमा यस्मिन् देवा अधिविश्वे निषेदुः ।
| प्रतिपदा न्यायानुसार हर वर्ण के विचारकने यस्तन्न वेद किं ऋचः,
आत्मा को अपने पक्ष में लेने का प्रयास किया। करिष्यसि य इह तद्विदुः त इमे समासते ॥" | । यहाँ तक कि जडवादी विचारकों के मत के इस मन्त्र में सम्यक्तया दृष्टिगोचर होती है। प्रमाणभूत मंत्र भी वेदों में उपलब्ध हैं। ___ सृष्टि-सिद्धान्त के निरूपणार्थ भारतीय
___अति प्राकृतों के मत का “आत्मा वै पुत्र दर्शन में संभवतः सर्वोतम विषय आत्मा या
नामासि" पोषक कौशीतकी उपनिषद् का ११ आत्मन् ही समझा गया है।
वाँ मंत्र अपने पुत्र में आत्मीय प्रेम का प्रदर्शन यह शब्द अंग्रेजी भाषा के Self (सेल्फ) का समानार्थक है । कहीं कहीं Being के रूप
कर पुत्र के पुष्ट या नष्ट होने पर (अहमेव
पुष्ये नष्टो वा) ऐसा भाव प्रकट करता है । में भी इसे दार्शनिको ने आत्म-विवेचन के सन्दर्भ में ग्रहण किया हैं।
चार्वाकों के विचारधारा का समर्थन करने - बाइबल के न्यू टेस्टामेन्ट (New Testa- | वाले " स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः । तैत्ति. उप. ment) के गंभीर चिन्तन से भी कहीं गंभीरतर | द्वितीय वल्ली प्रथम अनु. के मन्त्र से, घर में और गंभीरतम चिन्तन के प्रसंग में वेदों के अन्तिम | आग लग जाने जैसा घटनाओं में पुत्र को भी भागभूत उपनिषदों में इस आत्मा, आत्मन् या छोड़कर अपने को बचाने की प्रवृत्ति से एकाकी आत्म शब्द का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में भाग निकलने आदि में स्थूल शरीरात्मवाद की किया गया है।
पुष्टि होती है। * तैत्तिरीय उपनिषद् वल्ली-२ अनुवाद-१
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वैदिक साहित्य में आत्म-तत्त्व विवेचन .. इन्द्रियात्मवाद जैसे कुछ अन्य जड़वादी तो स्वयं उसी के द्वारा होता है । " उद्धरेदात्मदार्शनिकों को भी स्वमत-पोषक "ते ह प्राणाः नात्मानम् " यह भी निर्देश दिया गया कि जब प्रजापति पितरमेयोचुः (छांदो. ५।१।७) में | जानने आदि के लिये एकमात्र विषय वह प्रमाण मिल जाते हैं।
आत्मा ही है। तो उसी को सर्वप्रकार से ज्ञान इसके अतिरिक्त
का केन्द्रबिन्दु बनाया जाये । x अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः,
आत्मा वाडरे द्रष्टव्यः, श्रोतव्यों, अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः.
मन्तव्यः निदिध्यासितव्यश्च" अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः,
इस प्रकार की विचारधारा में यह भी अन्योऽन्तर आत्मा आनन्दमयः.
तत्व छिपा हुआ है किइन मंत्रों में प्राण, मन, बुद्धि और यहाँ तक कि
आत्मा और ब्रह्म में यदि किसी प्रकार भौतिक-सुख या अहं को भी आत्माट का अन्तर हूँढ़ने का प्रयास किया भी जाय तो अभिहित किये जाने के उदाहरण हैं।
हम सिर्फ यह कह सकते हैं कि ब्रह्म शब्द का ___ कुछ अन्य भाट्टादिकों के मतों के समर्थ
प्रयोग जहाँ समष्टिगत आत्मा के लिये हुआ
वहाँ आत्मा का प्रयोग व्यक्तिगत के लिये हुआ। नार्थ " प्रज्ञानधन एवानन्दमयः “माण्डूक्योपनिषद् के ५वे मन्त्र और " असदेवेदमग्र
- वृहदारण्यक उपनिषद् में आत्मा के बारे में
यूनान के परमेनाड्डीज (Parmenides) जैसा आसीत्" छान्दो० ६।१ (शून्यवादी बौद्ध
सिद्धान्त मिलता है। मत पोषक) मंत्र भी क्रमशः आत्मा का अविद्या
वह यह कि " आत्मा ही सत्य है और इस युक्त चैतन्यात्मा और शून्यात्मवाद के पक्ष में
से परे कुछ नहीं।" प्रमाण बनते हैं; किन्तु, वास्तव में आत्मा के
इस समूचे सिद्धान्त को हम तीन सूत्रों में वास्तविक और पूर्ण-स्वरूप तक पहुँचने के लिये
व्यक्त कर सकते हैंउक्त दार्शनिकों के लिये पृथक्-पृथक प्रमाणभूत
(१) आत्मा ही वास्तविक है। ये वैदिक-मंत्र अरुन्धती-तारा (ज्ञान) न्याय से (२) हमारे ज्ञान का विषय आत्मा है । विशुद्ध-तत्त्व के ज्ञानार्थ क्रम के रूप में मान्य हैं।
(३) अनुभूति का विषय होने से आत्मा विशुद्धात्मा का ज्ञान तो " अहं ब्रह्मास्मि"
अनिर्वचनीय है। (वृद्ध. १।४।१०) की स्थिति में पहुँच कर ही
सभी लोक और समस्त ब्रह्माण्ड-समवाय हो पाता है।
तथा उस में रहनेवाले जड़-चेतनभूत समस्त उस विशुद्ध साच्चदानन्द-स्वरूप आत्मा तत्त्वों की सत्ता, उस आत्मा के अंश के रूप में का जिसे “ रस" (रसो वै सः) और ' आन- ही स्थित हैं- तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।" न्दायेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते' आदि । इस प्रकार वैदिक-साहित्य में आत्मचिंतन मन्त्रों में आनन्द-स्वरूप माना गया, उसका ज्ञान का पर्याप्त विचार प्राप्त होता है ।
- तैत्तिरीय उपनिषद् वल्ली-२ अनुवाक २ से ५
उस
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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा डा. सागरमल जैन
निर्देशक पार्श्वनाथ विद्या - शोध संस्थान - वाराणसी ५
जैन दर्शन में ' द्रव्य ' के वर्गीकरण का एक आधार अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवधारणा भी है ।
षट् द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव ये पांच अस्तिकाय माने गये हैं, जब कि काल को अनस्तिकाय माना गया है ।
अधिकांश जैन दार्शनिकों के अनुसार काल का अस्तित्व तो है, किन्तु उसमें कायन्व नहीं हैं, अतः उसे अस्तिकाय के वर्ग में नहीं रखा जा सकता है यद्यपि कुछ वे आचार्यो ने काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में भी आपत्ति उठाई है, किन्तु यह एक भिन्न विषय है, जिसकी यहां अपेक्षित नहीं है ।
सर्व प्रथम तो हमारे सामने मूल प्रश्न यह है कि अस्तिकाय की इस अवधारणा का तात्पर्य क्या है ?
व्युत्पत्ति की दृष्टि से " अस्तिकाय " शब्दों के मेल से बना है ।
66
39
अस्ति + काय- -" अस्ति " का अर्थ सत्ता या अस्तित्व और काय का अर्थ है, शर अर्थात् जो शरीररूप से अस्तित्ववान है, वह अस्तिकाय है ।
दो
এএ*
किन्तु यहाँ " काय या शरीर शब्द भौतिक शरीर के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, जैसा कि जनसाधारण समझता है ।
क्योंकि पंच अस्तिकायों में पुद्गल को छोड़कर शेष चार अमूर्त है । अतः यह मानना होगा कि यहाँ काय शब्द का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में ही हुआ है ।
""
पंचास्तिकाय की टीका में कायत्व शब्द ICT अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया हैं:
" कायत्वमाख्यं सावयवत्वम्" अर्थात् काय का तात्पर्य सावयवत्व है।
जो अवयवी द्रव्य है, वे अस्तिकाय और जो निरवयवो द्रव्य है वे अनस्तिकाय है ।
अवयवी का अर्थ है अंगों से युक्त । दूसरे शब्दों में जिस में विभिन्न अंग अंश या हिस्से (Parts ) हैं वह अस्तिकाय है । यद्यपि यहां यह शंका उठाई जा सकती है कि अखण्ड- द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना कहां तक युक्तिसंगत होगी ?
जैन दर्शन में पंच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन एक अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य हैं ।
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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४३ अतः उनके अवयवी होने का क्या | जो बहुप्रदेशीय द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय है तात्पर्य है ?
और जो एक-प्रदेशीय द्रव्य हैं वह अनस्तिकाय है __पुनश्च कायत्व का अर्थ सावयवत्व मानने | अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवमें एक कठिनाई यह भी है कि परमाणु तो अवि- | धारणा में इस आधार को स्वीकार कर लेने पर भाज्य, निरंश और निरवयवी है तो क्या वह | पूर्वोक्त कठिनाईयां बनी रहती हैं। प्रथम तो धर्म, अस्तिकाय नहीं है ?
अधर्म और आकाश ये तीनों स्व-द्रव्य-अपेक्षा ___ जब कि जैनदर्शन के अनुसार परमाणु | से तो एकप्रदेशी हैं, क्योंकि अखण्ड हैं, पुनः पुद्गल का ही एक रूप है और पुद्गल अस्ति- | | परमाणु-पुद्गल भी एकप्रदेशी है । काय माना गया है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में तो उसे अप्रदेशी प्रथम इन प्रश्नों के संबन्ध में दार्शनिकों |
भी कहा गया है, क्योंकि इन्हें अस्तिकाय नहीं का प्रत्युत्तर यह होगा कि
कहा जायेगा? ___ यद्यपि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य है; किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से
यहाँ भी जैन-दार्शनिकों का सम्भावित ये लोकव्यापी हैं, अतः क्षेत्र की दृष्टि से इनमें
प्रत्युत्तर वही होगा जो कि पूर्वप्रसंग में दिया सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना
गया है। की जा सकती है।
धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व यद्यपि यह केवल वैचारिक-स्तर पर की |
द्रव्यापेक्षा से नहीं, अपितु क्षेत्र-अपेक्षा से है । गई कल्पना या विभाजन हो है।
द्रव्य-संग्रह में कहा गया हैदूसरे प्रश्न का प्रत्युत्तर यह होगा कि यावन्मानं आकाशं अविभागि पुद्गलावष्टब्धम् । यद्यपि परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानाहम् ॥ निरवयव है, अतः स्वयं तो कायरूप नहीं है,
--२७ (संस्कृतछाया) किन्तु वे ही परमाणु स्कन्ध बनकर कायत्व या प्रो. जी. आर. जैन भी लिखते हैं सावयवत्व को धारण कर लेते हैं, अतः उन में
“Pradesh is the unit of space कायत्व का सद्भाव मानना चाहिए। occupied by one indevisible atom fo
__ पुनः परमाणु में अवगाहनशक्ति है, अतः | matter.' उसमें कायस्व का सद्भाव है ।
अर्थात् “प्रदेश आकाश की वह सबसे जैन दार्शनिकों ने अस्तिकाय और अनस्ति- छोटी ईकाई है जो एक पुद्गल-परमाणु घेरता काय के वर्गीकरण का एक आधार बहुप्रदेशत्व है।' विस्तारवान होने का अर्थ क्षेत्र में प्रसाभी माना है।
| रित होना है।
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तत्त्वज्ञान स्मारिका क्षेत्र की अपेक्षा से हो धर्म और अधर्म को | । जैन अस्तिकाय की अवधारणा में प्रचय असंख्य प्रदेशी और आकाश को अनन्त-प्रदेशी | या विस्तार को जिस अर्थ में ग्रहण किया जाता कहा गया है, अतः उनमें उपचार से कायत्व की । हैं, वह बहुआयामी विस्तार है न कि ऊर्ध्व एकअवधारणा की जा सकती है।
रेखीय विस्तार । ... पुद्गल का जो बहुप्रदेशीपना है, वह पर- जैन दार्शनिकों ने केवल इन्हीं द्रव्यों को 'माणु की अपेक्षा से न होकर स्कन्ध की अपेक्षा अस्तिकाय कहा है, जिनका तिर्यक्-प्रचय या से है, इसीलिए पुद्गल को अस्तिकाय कहा गया बहुआयामी विस्तार है, काल में केवल ऊर्ध्व है, न कि परमाणु को।
प्रचय या एकआयामी विस्तार है, अतः उसे ... परमाणु तो स्वयं पुद्गल का एक अंश या | . प्रकार मात्र है।
यद्यपि प्रो. जी. आर. जैन ने काल को वस्तुतः इस प्रसंग में कायत्व का अर्थ एकआयामी ( Mono dimensional ) और विस्तारयुक्त होना ही है, जो द्रव्य-विस्ताररहित हैं। शेष को द्वि-आयामी (Two dimensional) वे अनस्तिकाय हैं।
माना है। विस्तार की यह अवधारणा क्षेत्र की अव- ।
किन्तु मेरी दृष्टि में शेष द्रव्य त्रि-आयामी धारणा पर आश्रित है।
है, क्योंकि वे स्कन्ध रूप हैं, अतः उनमें लम्बाई, वस्तुतः कायत्व के अर्थ के स्पष्टीकरण में चौडाई, मोटाई तीनों ही है। सावयवत्व एवं सप्रदेशत्व को जो अवधारणायें स्कन्ध में लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई के प्रस्तुत की गई हैं वे सभी क्षेत्र के अवगाहन की
रूप में तीन आयाम होते हैं । संकल्पना से संबंधित है।
___ अतः कहा जा सकता है कि जिन द्रव्यों विस्तार का तात्पर्य है क्षेत्र का अवगाहन । |
में त्रि-आयामी विस्तार हैं वे अस्तिकाय द्रव्य हैं। · जो द्रव्य जितने क्षेत्र का अवगाहन करता है वही उसका विस्तार ( Extention ), प्रदेश
यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि
| काल भी लोकव्यापी है फिर उसे अस्तिकाय प्रचयत्व या कायत्व है। विस्तार या प्रचय दो प्रकार माना गया है, ऊर्ध्व प्रचय और
क्यों नहीं माना गया ? तिर्यक् प्रचय ।
इसका प्रत्युत्तर यह है कि यद्यपि लोका___ आधुनिक शब्दावली में इन्हें क्रमशः उर्ध्व | काश के प्रत्येक प्रदेश पर कालाणु स्थित हैं, एकरेखीय विस्तार ( Longitudenal Exten- | किन्तु प्रत्येक कालाणु ( Time-Grain ) अपने ion) और बहुआयामी विस्तार ( Multi | आप में एक स्वतंत्र द्रव्य है, वे परस्पर निरपेक्ष dimensional Extension) कहा जा | है, स्निग्ध एवं रुक्ष-गुण के अभाव के कारण सकता है।
| उनमें वन्ध नहीं होता है, अर्थात् उनके स्कन्ध
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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४५ नहीं बनते हैं, स्कन्ध के अभाव में प्रदेश-प्रच- को व्याप्त करता है, अतः उसमें विस्तार है, यत्व की कल्पना सम्भव नहीं है, अतः वे अस्ति- । वह अस्तिकाय है । काय द्रव्य नहीं है।
हमें इस भ्रान्ति को निकाल देना चाहिए ___ काल द्रव्य को अस्ति काय इसलिए नहीं | कि केवल मूर्त-द्रव्य का विस्तार होता है और कहा गया कि उसमें स्वरूपतः और उपचारतः | अमूर्त का नहीं। दोनों ही प्रकार से प्रदेश-प्रचय की कल्पना । आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया का अभाव है।
| है कि अमूर्त द्रव्य का भी विस्तार होता है, यद्यपि पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने पुद्गल | वस्तुतः अमूर्त द्रव्य के विस्तार की कल्पना उसके ( Matter ) का गुण विस्तार (Extention) | लक्षण या कार्यो (Functions) के आधार माना है, किन्तु जैन दर्शन की विशेषता तो वह पर की जा सकती है, जैसे धर्म द्रव्य का कार्य है कि वह आत्मा, धर्म, अधर्म और आकाश | गति को सम्भव बनाना है, वह गति का माध्यम जैसे अमूर्त द्रव्यों में भी विस्तार की अवधारणा माना गया है । करता है। इनके विस्तारवान (कायत्व से युक्त | अतः जहां जहां गति है या गति का सम्भव होने) का अर्थ है वे दिक् ( Space ) में प्रसा- है, वहीं धर्मद्रव्य की उपस्थिति एवं विस्तार रित या व्याप्त है।
है, यह माना जा सकता है। धर्म एवं अधर्म तो एक महास्कन्ध के रूप इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंच में सम्पूर्ण लोकाकाश के एक सीमित असंख्य- सकते हैं कि किसी द्रव्य को अस्तिकाय कहने प्रदेशी क्षेत्र में प्रसारित या पर्याप्त है। का तात्पर्य यह है कि वह द्रव्य दिक् में प्रसारित
___ आकाश तो स्वतः ही अनन्त (लोक एवं | है या प्रसारण की क्षमता से युक्त है। अलोक ) में विस्तरित है, अतः इनमें कायस्व की
विस्तार या प्रसार (Extention) ही अवधारणा की सम्भव है।
कायत्व है, क्योंकि विस्तार या प्रसार की उपजहां तक आत्मा का प्रश्न है, देकार्त उसमें स्थिति में ही प्रदेश–प्रचयत्व तथा सावयवता 'विस्तार' को स्वीकार नहीं करता है, किन्तु जैन | की सिद्धि होती है। दर्शन उसे विस्तारयुक्त मानता है, क्योंकि आत्मा अतः जिन द्रयों में विस्तार या प्रसार का जिस शरीर को अपना आवास बनाता है, तब लक्षण है, वे अस्तिकाय हैं। उसमें समग्रतः व्याप्त हो जाता है । ____ हम यह नहीं कह सकते हैं कि शरीर के | हमारे सामने दूसरा प्रश्न यह है कि जैन अमुक भाग में आत्मा है और अमुक भाग में दर्शन में जिन द्रव्यों को अस्तिकाय माना गया नहीं है, वह अपने चेतना-लक्षण से सम्पूर्ण शरीर है उनमें प्रसार (कायत्व) नहीं मानने पर क्या
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तत्त्वज्ञान स्मारिका कठिनाई आयेगी और इसी प्रकार काल को, । आकाश विस्तरित है तो उसका विस्तार या जिसे अनस्तिकाय माना गया है, अस्तिकाय | प्रसार किसमें है ? या प्रसार-लक्षणयुक्त मानने पर क्या कठिनाई ___ वस्तुतः आकाश स्वतः ही विस्तीर्ण है। आयगी ?
अन्य द्रव्य उसमें अवगाहन करते हैं, सर्व प्रथम यदि आकाश को प्रसारित
विस्तरित होते हैं और गति करते हैं। विस्तार नहीं माना जायेगा तो उसके मूल लक्षण या
तो उसका स्वलक्षण है। वह अन्य किसी में कार्य की ही सिद्धि नहीं होगी।
विस्तरित नहीं होता।
यदि उसके विस्तार या अवगाहन के लिए ___ आकाश का कार्य अन्य द्रव्यों को स्थान
हम किसी अन्य द्रव्य की कल्पना करेंगे तो देना है, द्रव्यसंग्रह में कहा गया है
अनन्तता के दुश्चक्र ( Fallacy of infinite ___"अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण
regress ) में फँस आवेगे, अतः उसे स्वरूपतः आगासं"
ही विस्तारवान या अस्तिकाय मान लिया है। अर्थात्-" जो जीवादि द्रव्यों को स्थान धर्मद्रव्य गति का माध्यम है । “गमण देता है वही आकाश है ।"
णिमित्तं धम्म” (नियमसार) प्रसार या विस्तार तो आकाश का स्वरूप गति विस्तीर्ण-तत्त्व में ही सम्भवित है। लक्षण है । उसके अभाव में उसकी सत्ता ही । यदि धर्मद्रव्य गति का माध्यम है, तो उसे सम्भव नहीं होगी।
उतने क्षेत्र में विस्तीर्ण या व्याप्त होना चाहिए यदि आकाश विस्तरित न होगा तो अन्य जिसमें गति की सम्भव है। द्रव्यों का स्थान कैसे दे पावेगा? अतः आकाश यदि गति का माध्यम स्वयं विस्तीर्ण या को विस्तार युक्त अथवा अस्तिकाय मानना प्रसारित नहीं होगा तो गति सम्भवित ही नहीं आवश्यक है । विस्तार की सम्भावना आकाश
होगी। जैसे जल का प्रसार जितने क्षेत्र में होगा में ही सम्भव है।
उतने ही क्षेत्र में मछली की गति सम्भवित होगी।
उसी प्रकार धर्मद्रव्य का प्रसार जिस यदे आकाश स्वयं विस्तरित न होगा तो
| क्षेत्र में होगा उसी क्षेत्र में पुद्गल और जीवों की उसमें अन्य-द्रव्यों का अवगाहन या विस्तरण
गति सम्भवित होगी। कैसे होगा ? अब स्थिति, विस्तार, गति आदि
अतः धर्म द्रव्य को विस्तारयुक्त या अस्तिकिसी प्रसारित या विस्तरित द्रव्य में ही सम्भव
काय मानना आवश्यक है। है, अतः आकाश को विस्तारयुक्त (अस्तिकाय)
गति लोक (universe) में ही सम्भव है मानना आवश्यक है।
क्योंकि धर्मद्रव्य का विस्तार लोक तक यहां यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि यदि | सीमित है।
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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४७ अधर्म द्रव्य स्थिति का माध्यम है। "अधम्मं | उपस्थिति के कारण स्कन्ध-रचना की सम्भावना ठिदि जीव-पुग्गलाणं च०" (नियमसार)। | है, अतः उनमें भी उपचार से काय व माना जा
जिसके कारण परमाणु-स्कन्ध की रचना | सकता है । पुनः उनमें अवगाहन-शक्ति भी मानी करते हैं, और स्कन्धरूप में संगठित रहते हैं, | गई है, अतः उनमें कायत्व या विस्तार है। जो आत्म-प्रदेशों को शरीर तक सीमित रखता यदि पुद्गल को अस्तिकाय नहीं माना है और विश्व की एक व्यवस्था में बांध कर जायेगा तो एक मूर्त-विश्व की सम्भावना ही रखता है वही अधर्म द्रव्य है।
निरस्त हो जायेगी। विश्व को एक व्यवस्थित रचना बनाये रखने
जीव-द्रव्य में यदि हम विस्तार की सम्भाके लिए यह आवश्यक है कि अधर्म-द्रव्य का |
वना का अस्वीकार करेंगे तो कठिनाई यह होगी
कि जीव अपने स्वलक्षण चैतन्य-गुण से अपने प्रसार लोकव्यापी माना जाय, अन्यथा विश्व के मूल घटक परमाणु अनन्त-आकाश में छितर
शरीर को व्याप्त नहीं कर सकेगा । जावेगें और कोई रचना सम्भवित नहीं होगी।
शरीर में चैतन्य का संकोच एवं विस्तार अतः जहाँ२ गति का माध्यम है, वहां वहां
देखा जाता है, अतः उस चैतन्य-गुण के धारक उसका विरोधी स्थिति का माध्यम भी होना
आत्मा विस्तारयुक्त या अस्ति काय मानना चाहिए, अन्यथा उस गति का नियंत्रण कैसे होगा ?
आवश्यक है।
शरीर का विस्तार तो बाल्य-काल से युवाविश्व में गति के संतुलन को और इस रूप
वस्था तक प्रत्यक्ष रूप से देखा जाता है, यदि में विश्व के संतुलन को बनाये रखने के लिए |
हम शरीर को विस्तारयुक्त और आत्मा को अधर्म द्रव्य को लोकव्यापी एवं विस्तार-लक्षण |
विस्तार-रहित मानेंगे तो दोनों में जो सहचार युक्त अर्थात् अस्ति काय मानना आवश्यक है।
भाव है, वह नहीं बन पायेगा। पुद्गल-द्रव्य में विस्तार है, यह तो प्रत्यक्ष
इसीलिए वेदान्त ने आत्मा को सर्वव्यापी सिद्ध है, क्योंकि जिन पुद्गल-स्कन्धों का हमें
मान लिया । यद्यपि आत्मा को सर्वव्यापी प्रत्यक्ष होता है, वे सब विस्तार-युक्त हैं,
मानने के सिद्धान्त में भी अनेक तार्किक असंस्कन्ध की रचना हो परमाणुओं के तिर्यक |
॥ हा परमाणुओं के तियेक | गतियाँ हैं, किन्तु प्रस्तुत आलेख के सन्दर्भ से प्रचय से होती है, अतः वे कार्यरूप है ही। अलग होने के कारण उनकी चर्चा यहां अपेक्षित
यद्यपि पुद्गल-द्रव्य के अन्तिम अविभाज्य | नहीं है । जैन-दर्शन में आत्मा शरीरव्यापी है, घटक वे परमाणु जो स्वयं तो स्कन्धरूप नहीं | अतः वह अस्तिकाय है । है, किन्तु उनमें भी स्नग्ध और रूक्ष गुणों । अब एक प्रश्न यह शेष रहता है कि काल ( Positive and Negative charges ) की । को अस्तिकाय क्यों नहीं माना जा सकता है
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४८]
तत्त्वज्ञान स्मारिका यद्यपि अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य - इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तक काल के विस्तार का अनुभव किया जा और जीव अस्तिकाय होते हुए भी उनका सकता है, किन्तु फिर भी उसमें कायत्व का विस्तार-क्षेत्र या कायत्व समान नहीं है । आरोपण सम्भव नहीं है ।।
जैन-दार्शनिकों ने उनमें प्रदेश-दृष्टि से क्योंकि काल का प्रत्येक घटक अपनी
भिन्नता स्पष्ट की है। स्वतंत्र एवं पृथक् सत्ता रखता है । कालाणुओं
___भगवतीस्त्र में बताया गया है कि-धर्म द्रव्य में स्निग्ध एवं रूक्ष गुण के अभाव में कोई ।
और अधर्म द्रव्य के प्रदेश अन्य द्रव्यों की स्कन्ध या संघात नहीं बन सकता है।
अपेक्षा सब से कम है । वे लोकाकाश तक __ यदि उनके स्कन्ध की परिकल्पना भी कर
(Within the universe) सीमित है, अतः ली जाय तो पर्याय-समय की सिद्धि नहीं
असंख्य-प्रदेशी है। होती है।
धर्म द्रव्य एवं अधर्म द्रव्य की अपेक्षा जीव . .. पुनः काल के वर्तना-लक्षण की सिद्धि केवल वर्तमान में ही है, और वर्तमान अत्यन्त
| द्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक है । सूक्ष्म है, अतः काल में विस्तार या प्रदेश | क्योंकि प्रथम तो जहां धर्म द्रव्य और -प्रचय नहीं माना जा सकता और इसलिए | अधर्म द्रव्य एक एक है, वहां जीव द्रव्य अनन्त वह अस्तिकाय भी नहीं हैं।
हैं । पुनः प्रत्येक जीवद्रव्य के असंख्य प्रदेश हैं । जीव द्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा भी पुद्गल
द्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, क्योंकि सभी अस्तिकाय-द्रव्यों का विस्तार-क्षेत्र
प्रत्येक जीव के साथ कर्म–पुद्गल संयोजित है। समान नहीं है, उसमें भिन्नतायें हैं।
जहां आकाश का विस्तार-क्षेत्र लोक और ___काल की प्रदेश-संख्या पुद्गल की अपेक्षा अलोक दोनों है, वहां धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य | भी अनन्त गुणा मानी गई, क्योंकि प्रत्येक जीव केवल लोक तक ही सीमित है।
और पुद्गल की वर्तमान अनादि भूत और अनन्त पुद्गल के प्रत्येक स्कन्ध और प्रत्येक जीव । भविष्य की दृष्टि से अनन्त पर्यायें हैं । का विस्तार-क्षेत्र भी भिन्न है ।
यद्यपि इन सभी को अपेक्षा आकाश द्रव्य __पुद्गल-पिण्डों का विस्तार-क्षेत्र उनके | के प्रदेशों की संख्या ही सर्वाधिक मानी गई है, आकार पर निर्भर करता है।
क्योंकि धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल और काल जब कि प्रत्येक जीवात्मा का विस्तार-क्षेत्र | सभी सीमित लोक में ही स्थित (Within the उसके द्वारा गृहीत--शरीर के आकार पर निर्भर | finite universe है, जब कि आकाश अनन्त करता है।
अलोक में भी स्थित है।
(३)
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vvvv
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४९ __यद्यपि यहां यह समस्या बनी हुई है, अवगाहन-शक्ति का अर्थ तो दूसरों को असंख्यात-प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त । समाहित करने की क्षमता है। पुद्गल-परमाणु कैसे समाहित हो सकते हैं ? . जैसे एक कमरे में एक बल्ब का प्रकाश क्योंकि जैन-दशेन यह मानता है कि एक फैल रहा है, यदि हम उसी कमरे में हजार दूसरे आकाश-प्रदेश दिक् (स्पेइस) की वह सबसे छोटी बल्ब भी जला दें तो उनका प्रकाश भी उन्हीं इकाई है, जिसे एक पुद्गल-परमाणु घेरता है। आकाश-प्रदेशों में समाहित हो जावेगा । इसी
किन्तु इस धारणा के अनुसार तो असंख्य का दूसरा उदाहरण ध्वनि का है। पुद्गल परमाणु ही समाहित होंगे, अनन्तानन्त
यह बात विज्ञान-सम्मत है कि विश्व में नहीं । इस समस्या का उत्तर निम्न रूप में
अनादि-भूत एवं वर्तमान में जो कुछ ध्वनि हुई दिया जा सकता है
है, वह सब ध्वनि तरंग के रूप में विश्व में और (१) एक अमूर्त सत्ता उसी स्थान में दूसरी | विश्व के प्रत्येक सूक्ष्मतम भाग में उपस्थित है । अमूर्त सत्ता को रहने में बाधक नहीं बनती है।
जैन-दर्शन की भाषा में कहे तो एक चूंकि परमाणु भी परमाणु रूप में अमूर्त है, अतः
आकाश-प्रदेश में अनन्तानंत ध्वनियाँ उपस्थित एक ही आकाश-प्रदेश में अनन्त-परमाणु एक
है । यहां यह ध्यान रखना चाहिए-प्रकाश और साथ रह सकते हैं, यह मानने में कोई बाधा
ध्वनि पौद्गलिक ही नहीं बल्कि मूते भी है। नहीं आती है। (२) परमाणु और परमाणुपिण्ड (स्कन्ध) |
। अतः मूर्त में भी अवगाहन-शक्ति होने से में अवगाहन शक्ति है, अर्थात् वे दूसरों को |
| एक ही आकाश-प्रदेश में अनन्त-परमाणुओं स्थान दे सकते हैं । जिस प्रकार आकाश अपने
| एवं मूर्त-स्कन्धों की उपस्थिति को सम्भवित अवगाहन--गुण के कारण दूसरे द्रव्यों को स्थान
माना जा सकता है। देता है, उसी प्रकार परमाणु और स्कन्ध भी। (३) जैन-दर्शन के अनुसार लोकाकाश के अपनी अवगाहन-शक्ति के आधार पर दूसरे पर- प्रदेश लोक के प्रत्येक भाग में है । जिस स्थान माणुओं और स्कन्धों को स्थान देते रहेंगे। | में विश्व का सर्वाधिक घनीभूत पुद्गल-पिण्ड ___ यहां हमें इस भ्रान्ति को दूर कर लेना उपस्थित है, उसी स्थान में आकाश-प्रदेश चाहिए कि अवगाहन शक्ति का अर्थ संकोच- भी है। विस्तार है।
इसका अर्थ यह हुआ कि वहां दूसरे स्थिर ___यद्यपि जीव और पुद्गल में संकोच-विस्तार एवं गतिवान पुद्गल-पिण्डों के समाहित होने की शक्ति भी है, किन्तु यह उनके प्रसार-गुण की सम्भावना बनी ही रहती है, क्योंकि-विश्व (कायत्व) के कारण है।
का कोई भी भाग किसी भी स्थिति में आकाश
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५०]
तत्वज्ञान स्मारिका शून्य नहीं रहता है, अतः उसी स्थान (आकाश अवधारणा का आधुनिक विज्ञान से कहां तक -प्रदेश) में अनन्तानन्त पुद्गलपिण्डों का समा- तालमेल है ? यह प्रश्न भी विचारणीय है । हित होना सम्भव है।
सर्व प्रथम तो हमें यह देखना है कि जैन.. कोई घनीभूत से घनीभूत पुद्गल-पिण्ड भी दर्शन के षट् द्रव्यों की धारणा विश्व की व्याख्या आकाशरहित नहीं होता है, अर्थात् उसमें | के लिए क्यों आवश्यक है ? सदैव ही अवगाहन-शक्ति बनी रहती है और
दिक् (स्पेस), काल (टाइम) और पुद्गल इसलिए वह दूसरे अनन्त परमाणुओं एवं पुद्गल |
(मेटर) ये तीन तत्त्व तो विश्व के मूल आधार पिण्डों को अपने में समाहित कर सकता है
है। इनके बिना विश्व की कल्पना नहीं की जा और यह सम्भावना कभी समाप्त नहीं होती है।
सकती है। .. (४) यह भी सम्भव है लोकाकाश को असंख्य-प्रदेशीय केवल इसीलिए कहा गया हो
दिक् और काल तो विश्व की प्राथमिक कि लोक की सीमितता बताना था, यदि अनन्त
शर्ते हैं, क्योंकि विश्व के कारणभूत पुद्गल प्रदेशी कहते तो लोक असीम (infinite ) | द्रव्य का अस्तित्व किसी काल और किसी स्थान हो जाता । वस्तुतः तो वह अनन्त-प्रदेशी ही है। में ही सम्भव है ।
(५) यह भी सम्भव है कि परमाणु के चाहे आइन्स्टीन के सापेक्षतावाद ने यह उत्कृष्ट आकार को लेकर यह माप बताया गया | सिद्ध कर दिया हो कि दिक् और काल की हो कि एक आकाश-प्रदेश एक परमाणु के | अवधारणाएँ गति-सापेक्ष है, किन्तु यह सापेक्षता आकार का है।
दिक् और काल के सम्बन्ध में ज्ञान की सापेक्षता जैसे समय का माप परमाणु की जघन्य । है और उनके अस्तित्व की नहीं है, क्योंकि इन गति के आधार पर किया है, अर्थात जघन्य गति | अमूर्त-सत्ताओं को मानवीय-ज्ञान किसी ऐन्द्रिक से एक परमाणु जितने काल में एक आकाश | अनुभूति के तथ्य के सन्दर्भ में ही समझ सकता प्रदेश से दूसरे आकाश प्रदेश में पहुंचता है। है और वह तथ्य गति है । गति उन्हें समझने वही एक समय (काल का सबसे छोटा भाग) | का माध्यम है, किन्तु इसके विपरीत यह भी का माप है।
कहा जा सकता है कि गति की अवधारणा उत्कृष्ट-गति से तो एक परमाणु एक हो । स्वयं दिक् (आकाश) और काल की अवधारणा समय में विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पर आधारित है। गति, दिक् एवं कालसापेक्ष है । ( अर्थात् १४ राजू ) की यात्रा कर लेता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार दिक् (आकाश) - अस्तिकाय विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जैन- और काल के कार्य (फंक्शन) अलग-अलग है । दर्शन में स्वीकृत पंच अस्तिकाय एवं काल की दिक् (स्पेस) स्थान प्रदान करता है, तो काल
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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा द्रव्यों में परिवर्तन को सम्भवित बनाता है। अतः | से थोड़ा भिन्न अवश्य है, पुनश्च विश्व में केवल दोनों स्वतंत्र द्रव्य है।
| स्थिति नहीं है, उसमें गति भी है । पुद्गल (मेटर) तो विश्व का मूल उपादान
यद्यपि गति पुद्गल एवं जीव की अपनी है,अतः उसकी सत्ता तो निर्विवाद रूप से स्वीकार
क्रियाशक्ति से ही सम्भव है, फिर भी यदि गति करनी होगी।
के लिए कोई माध्यम नहीं होगा तो गति सम्भव विश्व में जीवन की उपस्थिति भी अनुभव- |
नहीं होगी। सिद्ध है, अतः जीवास्तिकाय का अस्तित्व भी स्वीकार करना ही होगा । चाहे वैज्ञानिक जीवन
जैन-दार्शनिकों ने इस हेतु धर्मद्रव्य की का विकास पुद्गल से मानते हो और उसे : अवधारणा को प्रस्तुत किया तो विज्ञान ने 'ईथर' स्वतंत्र द्रव्य नही मानते हो और किन्तु वे भी की खोज की। अभी तक इसे विज्ञान से सिद्ध नहीं कर पाये हैं। यद्यपि आधुनिक-खोजों के परिणामस्वरूप
पुद्गल जीवन को अभिव्यक्त होने के लिए | विज्ञान में ईथर का स्वरूप बहुत कुछ बदल अवसर प्रदान करता हो, किंतु आवश्यक नहीं | गया है। है कि वह जीवन की रचना भी करता हो।
आज ईथर भौतिक नहीं, अपितु अभौतिक किन्तु क्या दिक (आकाश), काल, पुद्गल बन गया है और इस रूप में वह धर्म-द्रव्य की और जीव केवल इन चार की सत्ता मानकर
अवधारणा के अधिक निकट आ गया है । विश्व की व्याख्या सम्भव हो सकेगी ? जैन
इस प्रकार जैन दर्शन के षट् द्रव्य-विज्ञानदार्शनिकों का प्रत्युत्तर होगा, नहीं ।
सम्मत ही है। प्रथम तो हमें इनसे पृथक् ऐसे तत्त्व की कल्पना करनी होगी जो विश्व को एक व्यवस्था __ आज आवश्यकता इस बात की है कि में बांध कर रखता है, पुदगल-पिण्डों एवं पर- विज्ञान की नवीन खोजों के प्रकाश में जैनदर्शन माणुओं को अनन्त आकाश में छितर जाने से | की इन अवधारणाओं को परखा जावे । रोकता है, वैज्ञानिक इसे गुरुत्वाकर्षण (ग्रेव'टेशन) आज जैन दर्शन और विज्ञान दोनों ही के नाम से जानते हैं।
इस स्थिति में है कि वे एक-दूसरे का सहयोग जैन दर्शन में इसे हम अधर्म द्रव्य कहते लेकर अपनी गुत्थियों को अधिक सफलतापूर्वक हैं, यद्यपि जैन दर्शन का अधर्मद्रव्य गुरुत्वाकर्षण सुलझा सकते हैं ।
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Vay परमाणु-पुदगल संस्थान
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प्रेमलाल शर्मा : डॉ. शक्तिधर शर्मा
पंजाबी युनिवर्सिटी-पतियाला (पंजाब) MAMundedessettesbabsterbolesteresssettesetsetsekshshreshtottartin
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्यकाल शब्दों की व्याख्या भी यथा सम्भव पाठकों के में पू. उपा. श्री विनयविजयगणो जैन-दार्शनिकों
| सौकर्य के लिए कर दी है। में एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक माने जाते है।
___ यहाँ हम पुद्गल की परिभाषा अथवा गुणों उन्होंने 'श्री लोकप्रकाश' नामक एक बहुत
का विवेचन नहीं करेंगे । क्योंकि इन विषयों से बड़ा ग्रन्थ लिखा । उस ग्रन्थ में जैन-दार्शनिकों के अभिमत सभी सिद्धान्तों का विवेचन आ सम्बन्धित एक लेख * छप चुका है। अतः मा जाता है।
पुद्गल परिमाण–'संस्थान' का विवेचन ही करेंगे। यह ग्रन्थ कई भागों में विभक्त है, 'द्रव्य- पुद्गल के संस्थान-बन्ध-गति आदि दस लोकप्रकाश' भी उनमें एक भाग है, इसके
परिणामो में 'संस्थान' परिणाम महत्त्वग्यारहवेसर्ग में 'पुद्गल' पर सारगर्भित विवेचन
| पूर्ण हैं । (१) मिलता है । इस ग्रन्थ की अभी तक कोई व्याख्या उपलब्ध नहीं है। यदि द्रव्य-लोकप्रकाश के
संस्थान से तात्पर्य है-पुद्गलों की आकृति, ग्यारहवे सर्ग की व्याख्या की जाय तो अच्छे । अर्थात् जिसमें परमाणु-पुद्गल एकत्रित होकर २ परिणाम आने की सम्भावना है । इस दिशा | विशिष्ट संघात को धारण करे। ये पुद्गलमें हमारा प्रयास जारी है।
संस्थान Solid state Physics x में वर्णित ___ इस ग्रन्थ के ग्यारहवे सर्ग में परमाणु
क्रिस्टल-आकृतियाँ से मिलते हैं। पुद्गल विषयक विवेचन के थोडा हिस्सा अपने ढंग से प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
इस प्रकार परमाणु-पुद्गल के पांच संस्थान इस लेख में श्लोक बीच में न देकर अन्त होते हैं- (१) परिमण्डल (२) वृत्त (३) व्यस्र में सन्दर्भ के रूप में दिये गये हैं । पारिभाषिक । (४) चतुरस्र (५) आयत-संस्थान २
४ देखिए-'विश्वसंस्कृतम्' वर्ष १९८० मार्च * देखिए-Introduction to solid state physics 5 th Edition by ckittle.
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पुदगल संस्थान
(१) परिमण्डल
(२) वृत्त
(३) त्र्यत्र
प्रतर
घन
प्रतर
घन
प्रतर
घन
युग्मप्रदेश
युग्मप्रदेश
(क) (ख) (ग)
(घ) ओजः प्रदेश युग्मपदेश ओजः प्रदेश युग्मप्रदेश
(क)
(ख) ओजः प्रदेश युग्मप्रदेश
(ग) (घ) ओजः प्रदेश युग्मप्रदेश।
परमाणु-पुद्गल संस्थान
(४) चतुरस्र
(५) आयत
प्रतर
श्रेणी
प्रतर
घन
(क) (ख) (ग) ओजः प्रदेश युग्मप्रदेश ओजः प्रदेश
(घ) युग्मप्रदेश
(क) (ख) (ग) (घ) ओजः प्रदेश युग्मप्रदेश ओजः प्रदेश युग्मप्रदेश
(ङ) ओजः प्रदेश (च) युग्मप्रदेश * ओजः प्रदेशः- अयुग्ममात्रे च । “ ओजे तपरौ जरौ गुरुश्चेत् ” इत्यादौ अयुग्मपादे प्रयोगात् ( वाचस्पत्यम् द्वि० भाग)। प्रथम-तृतीयादौ विषमराशौ अर्थे प्रयोगः ।
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५४
तत्त्वज्ञान स्मारिका (१) परिमण्डल संस्थान-मण्डलाकार में | होते हैं। देखिए पृ. ५३ की तालिका-यहाँ अवस्थित वलयाकार परिमण्डल संस्थान कह- *ओजः प्रदेश से तात्पर्य है और युग्म प्रदेश से लाता है । (३)
तात्पर्य है सम । (२) वृत्त संस्थान-कुलाल के चक्र की तरह । १-(क) युग्मप्रदेश-प्रतर-परिमण्डलऔर भीतर से पूर्ण अर्थात् अन्दर से कोई भी | बीस आकाश प्रदेशों को घेरनेवाले परमाणु भाग रिक्त न हो तो वह वृत्त पुद्गल संस्थान | पुद्गल संस्थान युग्मप्रदेश–परिमण्डल कहकहलाता है । जैसे-*
लाता है। (३) व्यस्र-सिंघाड़े के रूप को धारण
। चारों दिशाओं में चार चार परमाणु रखे करनेवाला व्यस्र-त्रिकोण पुद्गल-संस्थान | जाय और विदिशाओं में एक एक परमाणु रखा कहलाता है । (४)
जाय तो उक्त संस्थान बन जाता है । (६) (४) चतुरस्र-कुम्भिका आदि की तरह
__ (स्व) युग्मप्रदेश घन--परिमण्डल-युग्मप्रतर चार भागों से सन्निविष्ट चतुरस्र-संस्थान कह
परिमण्डल के ऊपर हो बीस और परमाणुओं को लाता है।
रखा जाय तो युग्म-घन- परिमण्डल संस्थान (५) + आयत-दण्ड की भान्ति लम्बा
कहलाता है । (७) कार लिये हुए पुद्गल-आयत-संस्थान कह
२-(क) ओजः-प्रदेश-प्रतरवृत्त-पांच लाता है । (५)
अणुओं से उत्पन्न उक्त संस्थान बन जाता है । इन संस्थानों में आयत के तीन भेद होते क्योंकि वह पाँच आकाश प्रदेशों को घेरे हैं- * श्रेणी, x प्रतर और ° घन । अन्य | हुए रहता है । इसके चारों दिशाओं में एक चार संस्थानों में प्रत्येक के दो दो भेद प्रतर | एक परमाणु प्रतिष्ठित रहता है और एक मध्य
और घन होने से कुल ग्यारह भेद होते हैं। भाग में स्थित रहता है। ८ परिमण्डल संस्थान को छोडकर अन्य चारों । (ख) युग्म-प्रदेशप्रतरवृत्त-बारह प्रदेशों संस्थानों के प्रतर और धन भेदों के भी क्रमशः को अवगाहित किये हुए बारह परमाणुओं का ओज प्रदेश तथा युग्म प्रदेश नामक दो दो भेद । युग्म-प्रदेश प्रसरवृत्त कहलाता है ।
+ आयत लम्बा इति भाषा (आङ्+यम्+ल:) विस्तृतः, विशाल आकृष्ट वा । * श्रेणी : पुं० स्त्री (श्रयति श्रीयते वा) पंक्ति : विलोली० वीथी आलिः राजिः रेखाका x प्र+तृ भाव अप् प्रकपंग तरणे आधारे प्रवरणाधारे • पुं० हन् मूर्ती, अम् घनादेशश्च, मेघे, मस्तके, समूहे दीघे, विस्तरे च वाचस्वत्यम् द्वि० भाग,
प्रिंट-१९६२
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चार आकाश प्रदेशों में रुचक - आकार (चूड़ी के सदृश ) से परमाणु रखे जाँय । वे रुचकाकार में दो दो परमाणु प्रत्येक दिशा में रखे जाय तो यह संस्थान बन जाता है । (९) (ग) ओजः - प्रदेश - घन - वृत्त सात श-प्रदेशों को अवगाहित किये हुए सात अणुओं के पुञ्ज को ओजःप्रदेशघनवृत्त कहते हैं ।
आकाश
परमाणु - पुद्गल संस्थान
अर्थात् ओजः - प्रदेश - प्रतरवृत्त के पांच अणुओं के मध्य भागवाले अणु के ऊपर और नीचे एक एक अणु रखने से यह संस्थान बनता है । (१०)
(घ) युग्म - प्रदेश - घनवृत्त- बत्तीस आकाश प्रदेशों को घेरे हुए बत्तीस परमाणुओं का पुञ्ज युग्मप्रदेश घनवृत्त कहलाता है ।
युग्मप्रदेश - प्रतरवृत्त के बारह अणुओं के ऊपर ही बारह और अणुओं को रखकर चौ अणु हो जाते हैं । उनके मध्य भाग में चार ऊपर और चार नीचे रखने से बत्तीस अणुओं का यह संस्थान बनता है । (११)
३– (क) ओजः - प्रदेशप्रतर - त्र्यत्र - तीन आकाश प्रदेशों को अवगाहित किये हुए तीन परमाणु - पुद्गलों से यह संस्थान बनता है ।
दो परमाणुओं को एक पंक्ति में रखा जाय और एक परमाणु नीचे की ओर रखा जाय तो ओजः-प्रदेश-प्रतर–त्र्यत्र कहलाता है । (१२)
(ख) युग्मप्रदेशप्रतर- त्र्यत्र -छह आकाश प्रदेशों को अवगाहित किये हुए छह अणुओं वाला संस्थान युग्म-प्रदेशप्रतरत्र्यत्र कहलाता है ।
[ ५५
एक पंक्ति में तीन अणु रखे जाँय और के बीच में एक ऊपर और एक नीचे की ओर रखा जाय तो यह संस्थान बन जाता है । (१३)
( ग ) ओजः - प्रदेशघनत्र्यत्र -- पैंत्तीस - प्रदेशों को अवगाहित किये हुए • पैंत्तीस
आकाश
परमाणुओं का उक्त संस्थान बनता है ।
पांच परमाणुओं को टेढी पंक्ति में रखा जाय । दूसरी पंक्ति में उसी प्रकार चार परमाणुओं को रखा जाय उसके ऊपर फिर दो और फिर अन्त में एक परमाणु रखा जाय तो पन्द्रह पर - माओं की संख्या बन जाती है । उसके बाद, नीचे से लेकर ऊपर की पंक्ति तक आखिरी आखिरी परमाणु को छोड़कर नीचे से ही ऊपर की ओर क्रमशः दस, छह, तीन और एक परमाणु स्थापित किये जाने से ओजः प्रदेश - घनत्र्यत्र संस्थान कहलाता है । (१४)
(घ) युग्म - प्रदेश - घनत्र्यस्न- चार आकाश प्रदेशों को अवगाहित करनेवाले चार परमाणुओं का उक्त संस्थान बनता है ।
ओजः - प्रदेश - प्रतर- त्र्यत्र के तीन अणुओं में से किसी एक के ऊपर एक और परमाणु रखने से यह संस्थान बनता है । (१५)
४ - (क) ओजः -- प्रदेश - प्रतर - चतुरस्र - - नौ आकाश प्रदेशों को अवगाहित करते हुए नौ परमाणुओं से यह संस्थान बनता है । (१६)
तीने टेढो पंक्तियों में तीन तीन परमाणुओं को रखे जाने पर ओजः - प्रदेश - प्रतर - चतुरस्र बनता है । (१६)
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५६ ]
(ख) युग्म - प्रदेशप्रतर - चतुरस्रः - चारआकाश प्रदेशों को घेरे हुए चार परमाणुओं से यह संस्थान बनता है ।
तत्त्वज्ञान स्मारिका
सीधी दो पंक्तियों में दो दो अणु विद्यमान होने पर युग्मप्रदेश प्रतरचतुरस्र बनता है । (१७)
( ग ) ओज : - प्रदेश - घनचतुरस्रः- सत्ताइस आकाश प्रदेशों को अवगाहित करनेवाले सत्ताइस परमाणुओं से ओजः - प्रदेश - घन - चतुरस्र बनता है ।
ओजः - प्रदेश – प्रतर - चतुरस्र संस्थान के नौ परमाणुओं के ऊपर और नीचे नौ नौ परमाणुओं के विद्यमान होने पर उक्त संस्थान बनता है । (१८)
(घ) युग्म - प्रदेश - घन - चतुरस्रः - आठ आकाशप्रदेशों को अवगाहित करते हुए आठ परमाणुओं का उक्त संस्थान बनता है ।
युग्मप्रदेश - प्रतर - चतुरस्र विद्यमान होने से युग्मप्रदेश-६ - घन - चतुरस्र बनता है । (१९)
५ - ( क ) ओजः - प्रदेश - श्रेणी - आयत-सीधी पंक्ति में तीन आकाश प्रदेशों को घेरे हुए तीन परमाणुओं का ओजः प्रदेश श्रेणी आयत संस्थान बनता है । (२०)
(ख) युग्म - प्रदेश - श्रेणी आयतः - दो आकाश प्रदेशो युग्मप्रदेशों को घेरे अवगाहित करते हुए सीधी पंक्ति में विद्यमान दो परमाणुओं से यह संस्थान बनता है ! (२१)
( ग ) ओज : - प्रदेश - प्रतर - आयतः - पन्द्रह आकाश प्रदेशों को अवगाहित करते हुए तीन
पंक्तियों में पांच पांच अणुओं के विद्यमान रहने से यह संस्थान बनता है । (२२)
(घ) युग्म - प्रदेश - प्रतर - आयत-छः आकाश प्रदेशों को घेरे हुए दो पंक्तियों में तीन तीन परमाणुओं के विद्यमान होने से यह संस्थान बनती है । (२३)
(ङ) ओजः - प्रदेश - घन - आयत - पैंतालीस आकाश प्रदेशों को अवगाहित किये हुए पैंत्तालीस अणुओं से यह संस्थान बनता है
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ओजः - प्रदेश - प्रतर- आयत-संस्थान के ही पन्द्रह परमाणुओं के ऊपर और नीचे पन्द्रह ही परमाणुओं के विद्यमान होने से युग्म- प्रदेश - प्रतर- आयत बनता है । (२४)
(च) युग्म - प्रदेश - घन - आयत - बारह आकाशप्रदेशों को अवगाहित करते हुए बारह परमाणुओं से युग्म - प्रदेश - घन - आयत बनता है ।
युग्म - प्रदेश - प्रतरायत के छह परमाणुओं के ऊपर ही छह और परमाणुओं के विद्यमान होने पर युग्म - प्रदेश - घन- आयत है । (२५)
बनता
लेखका आधारभूत संदर्भ ग्रंथ श्री द्रव्यलोक प्रकाश - ग्यारहवें सर्ग से १ पुद्गलानां दशविधः परिणामोऽथ कथ्यते । बन्धनाख्यो गतिनाम संस्थानाख्यः तथा परः ॥२२॥ मेदाख्यः परिणामः स्याद, वर्ण- गन्ध - रसाभिधाः । स्पर्शोऽगुरुलघुः शब्द- परिणामादशेष्यमीत ॥ २३॥ २ परिमण्डलं च वृत्तं त्र्यस्त्रं च चतुरस्रकम् । आयतं च रूपजीव संस्थानं पञ्चधा मतम् ॥ ४८ ॥
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परमाणु-पुद्गल संस्थान ३-मण्डलावस्थाण्वोधं, बहिः शुषिरमन्तरे । ११ द्वात्रिंशदणुसम्पन्न, तावत् खांशावगाढकम् । वलयस्येव तु ज्ञेयं, संस्थानं परिमण्डलम् ॥४९॥ | युग्मप्रदेशं हि घनवृत्तं भवति तद यथा ॥६॥ ४-अन्तःपूर्ण तदेव स्याद् वृत्तं कुलालचक्रवत् ।। उक्तप्रतरवृत्तस्य, द्वादशांशात्मकस्य वै । त्र्यस्र श्रृङ्गवत् कुम्भिकादिवच्चतुरस्रकम् ॥५०॥ उपरिष्टाद् द्वादशान्ये, स्थाप्यन्ते परमाणवः ॥६१॥ ५-आयतं दण्डवद् दीर्घ, धन-प्रतरभेदतः । ततः पुनर्मध्यमाणु-चतुष्कस्याप्युपर्यधः । चत्वारि स्युविधा संस्थानानि प्रत्येकमादितः ॥५॥ | स्थाप्यन्ते किलचत्वार-श्चत्वारः परमाणवः ॥६२॥ आयतं तु त्रिधा श्रेणि-घन-प्रतरभेदतः ।
१२ ओजः-प्रदेशं प्रतर-त्र्यसं तु त्रिप्रदेशकम् । ओज-युग्म-प्रदेशानि,
त्रिप्रदेशावगाढं च, तदेवं जायते यथा ॥६३॥ द्वेधाऽमूनिविनाऽऽदिमम् ॥५२॥ |
| स्थाप्येते द्वावणू पंक्त्या, एकस्याधस्ततः परम् । ६ विंशत्यभ्रांशावगाढं, विंशत्यंशात्मकं भवेत् ।
एकोऽणुः स्थाप्यत इति निर्दिष्टं शिष्टदृष्टिभिः॥६॥ युग्मप्रदेशं प्रतर-परिमण्डलनामकम् ॥९१॥
१३ युग्मप्रदेशं प्रतरत्र्यसं तु षट्प्रदेशकम् । चतुर्दिशं तु चत्वारश्चत्वारः परमाणवः । विदिक्षु स्थाप्य एकैको, भवेदेवं कृते सति ॥९२॥
षट्प्रदेशावगाढं च तदेवं किल जायते ॥६५॥ ७ अणूनां विंशतेरेषामुपर्यणुषु विंशतो ।
त्रयः प्रदेशाः स्थाप्यन्ते, पङ्कत्याऽणुद्वितयं ततः । स्थापितेषु युग्मजातं, स्याद् धनं परिमण्डलम् ॥९३।
आद्यस्याधो द्वितीयस्य, त्वध एको निवेश्यते ॥६६॥ ८ ओज-प्रदेश-प्रतरवृत्तं पञ्चाणुसम्भवम् ।
१४ ओजाणुकं घनत्र्या, पञ्चत्रिंशत्प्रदेशकम् । पञ्चाकाशप्रदेशावगाढं च परिकीर्तितम् ॥५३॥ पञ्चत्रिंशत्-खप्रदेशा-वगाढं च भवेद् यथा ॥६७॥ यत्र प्रदेशाश्चत्वार-श्चतुर्दिशं प्रतिष्ठिताः । तिर्यङ् निरन्तराः पञ्च, स्थाप्यन्ते परमाणवः । एकः प्रदेशोऽन्त-वृत्तप्रतरं तद् यथोदितम् ॥५४॥ | तानधोऽधः क्रमेणैवं, स्थाप्यन्ते परमाणवः ॥६८॥ ९ युग्मप्रदेशं प्रतर-वृत्तं च द्वादशाणुकम् ।
तिर्यगेव हि चत्वारस्त्रयो द्वावेक एव च । तावदभ्रांशावगाढं, तच्चैवमिह जायते ॥५५॥ जातोऽयं प्रतरः पञ्चदशांशः पञ्चपंक्तिकः ॥६९॥ चतुर्पु अभ्रप्रदेशेषु, चत्वारोंऽशा निरन्तरम् ।। ततश्चास्योपरि सर्व-पंक्तिष्वन्त्यान्त्यमंशकम् | स्थाप्यन्ते रुचकाकारास्तत् परिक्षेपतस्ततः ॥५६॥ | विमुच्यांशा दश स्थाप्या-स्तस्याप्युपरि षट् तथा।७०। द्वौ द्वौ चतुर्दिशं स्थाप्यो, प्रदेशौ जायते ततः । । इत्थमेव तदुपरि, त्रय एकस्ततः पुनः । युग्मप्रदेशं प्रतर-वृत्तमुक्तं पुरातनैः ॥१७॥ उपर्यस्यापीति पञ्चत्रिंशत्स्युः परमाणवः ॥७१॥ १० सप्ताणुकं सप्तखांशावगाढं च भवेदिह। १५ युग्मप्रदेशं तु घनत्र्यत्रं चतुष्प्रदेशकम् ।
ओजप्रदेशनिष्पन्नं, घनवृत्तं हि तद् यथा ॥५८॥ | चतुयोमांशावगाढं, तदप्येवं भवेदिह ॥७२॥ पञ्चप्रदेशे प्रतरवृत्ते किल पुरोदिते । पूर्वोक्ते प्रतरत्र्यो, त्रिप्रदेशात्मके किल । अध ऊवं च मध्याणोरेकैकोऽणुर्निदिश्यते ॥५९॥ | अणोरेकस्योद्धर्वमेकः स्थाप्यते परमाणुकः॥७३॥
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तत्त्वज्ञान-स्मारिका १६ ओजःप्रदेशं प्रतर-चतुरस्रं नवांशकम् । २० ओजःप्रदेशजं श्रेण्या-यतं स्यात् त्रिप्रदेशजम् । 'नवाकाशांशावगाढ, मित्थं तदपि जायते ॥७४॥ त्र्यंशावगाढमणुपु, त्रिषु न्यस्तेषु संततम् ॥८२॥ तिर्यग् निरन्तरं तिस्रः पंक्त्यस्त्रिप्रदेशिकाः [ २१ निरन्तरं स्थापिताभ्या-मणुभ्यां द्विप्रदेशजम् । स्थाप्यन्ते तर्हि जायेत, चतुरस्रमयुग्मजम् ॥७५॥
| युग्मप्रदेशजं श्रेण्या-यतं द्वयभ्रांशसंस्थितम् ॥८३।। १७ युग्मप्रदेशं प्रतर-चतुरस्रं तु तद् भवेत् ।
२२ ओजःप्रदेशं प्रतरा-यतं पञ्चदशांशकम् । चतुरभ्रांशावगाढं, चतुःप्रदेशसम्भवम् ॥७६॥ द्वि-द्विप्रदेशे द्वे पंक्ती, स्थाप्येते तत्र जायते ।
ताबद्व्योमांशावगाढ-मित्थं तदपि जायते ॥८४॥ युग्मप्रदेशं प्रतर-चतुरस्रं यथोदितम् ॥७७॥ पंक्तित्रयेऽपि स्थाप्यन्ते पञ्च पञ्चाणवस्तदा । १८ सप्तविंशत्यणुजातं तावदभ्रांशसंस्थितम् । ओजःप्रदेशजनितं, भवति प्रतरायतम् ॥८५॥ ओजःप्रदेशं हि घन-चतुरस्रं भवेदिह ।।७८॥
२३ पट्खांशस्थं षट्प्रदेशजं स्याद्-युग्मप्रतरायतम् । नवप्रदेशप्रतरं, चतुरस्रस्य तस्य वै ।
त्रिषु त्रिषु द्वयोः पंक्त्योः न्यस्तेषु परमाणुषु ॥८६॥ उपर्यधो नव नव, स्थाप्यन्ते परमाणवः ॥७९॥
२४ पञ्चचत्वारिंशदंश-मोजाणुकं घनायतम् । १९ अष्टव्योमांशावगाई, स्पष्टमष्टप्रदेशकम् । युग्मनदेशं तु घन-चतुरस्रं भवेद् यथा ॥८०॥
| पञ्चचत्वारिंशदभ्र-प्रदेशेष प्रतिष्ठितम् ॥८७॥ चतुष्प्रदेशप्रतर-चतुरस्रस्य चोपरि। २५ षडंशस्य च प्रतरा-यतस्योपरि विन्यसेत् । चतुष्प्रादेशिकोऽन्योऽपि, प्रतरः स्थाप्यते किल ।८१।। षट्प्रदेशांस्ततो युग्म-प्रदेशं स्याद् घनायतम् ।९०।
SANSAR तत्त्वज्ञान की गंभीरता सभी द्रव्यों के मौलिक स्वरूप की चिंतना यथार्थ दृष्टि से करनेके लिए वस्तु के अनंतधर्मात्मक स्वरूप को प्रमाणवाक्य से समझने के साथ नयवाक्य से प्रत्येक धर्मके गौण-मुख्य भावकी भूमिका अपनाने की गंभीरता विचारों में विकसित न हो तो किसीभी
वस्तु का मौलिक यथार्थ ज्ञान होना कठिन है । RECIPRAKAR
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन ___- श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री
अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की चिन्तन-धारा समझना चाहिए । प्रमाण और नय तभी अच्छी का मूल स्रोत है, जैन दर्शन का हृदय है; जैन तरह से समझ में आ सकते हैं जब सप्तभंगी वाङ्मय का एक भी ऐसा वाक्य नहीं जिसमें को ठीक तरह से समझा जाय। प्रमाण और अनेकान्तवाद का प्राण-तत्त्व न रहा हो । यदि नय की विवक्षा वस्तुगत अनेकान्त के परिबोध यह कह दिया जाय तो तनिक भी अतिशयोक्ति के लिए और सप्तभंगी की व्यवस्था तत्प्रतिपादक नहीं होगी कि “ जहाँ पर जैनधर्म है वहाँ पर वचन पद्धति के परिज्ञान के लिए है। प्रमाण अनेकान्तवाद है और जहाँ पर अनेकान्तवाद और नय के संबंध में यहाँ विशेष प्रकाश न है वहाँ पर जैन धर्म है ।" जैनधर्म और अनेकान्त- | डालकर सप्तभंगी के संबंध में विवेचन करेंगे। बाद एक दूसरे के पर्यायवाची है । यही कारण
सप्तभंगी है कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने अपने सम्मति प्रश्न है-सप्तभंगी क्या है ? उसका क्या प्रकरण ग्रंथ में अनेकान्तवाद को नमस्कार करते । प्रयोजन है ? उसका क्या उपयोग है ? हुए उसे त्रिभुवन का-अखिल ब्रह्माण्ड का गुरु इन सभी प्रश्नों के उत्तर जैनाचार्यों ने दिये कहा है। अनेकांत के बिना संसार का कोई भी | हैं। संसार की प्रत्येक वस्तु के किसी भी एक व्यवहार समीचीन रूप में सिद्ध नहीं हो सकता' ।
धर्म के स्वरूप-कथन में सात प्रकार के वचनो सांख्यदर्शन का पूर्ण विकास प्रकृति और | का प्रयोग किया जा सकता है। इसी को सप्तपुरुषवाद में हुआ है । वेदान्त-दर्शन का उत्कृष्ट भंगी कहते है । विकास चिद्-अद्वैत में हुआ है । बौद्ध-दर्शन का | वस्तु के यथार्थ परिज्ञान के लिए नय और महान् विकास विज्ञानवाद में हुआ है । वैसे ही प्रमाण की नितान्त आवश्यकता है। नय और जैनदर्शन का चरम विकास अनेकान्तवाद एवं | प्रमाण से ही यथार्थ ज्ञान होता है। अधिगम स्याद्वाद में हुआ है । स्यावाद और अनेकान्त- भी स्वार्थ और परार्थ रूप से दो प्रकार का है। वाद को समझने के पूर्व प्रमाण और नय को | ज्ञानात्मक स्वार्थ है और शब्दात्मक परार्थ है। १ सम्मति प्रकरण काण्ड ३, गा० ६९ २ (क) स्याद्वाद मंजरी का०, २३ की टीका (ख) सप्तभंगी तरंगिणी पृ०-१. ३ तत्त्वार्थ सूत्र ११६
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६० ] दूसरों के परिज्ञान के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है, अतः भंग का प्रयोग परार्थ है ।
अधिगम भी प्रमाण - वाक्य और नय-वाक्य के रूप में दो प्रकार का है । इसी आधार से प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी ये दो भेद किये गये हैं। प्रमाणवाक्य सकलादेश है, क्योंकि उससे समग्र - धर्मात्मक वस्तु का प्रधान रूप से बोध होता है । नयवाक्य विकलादेश है, क्योंकि उससे वस्तु के एक धर्म का ही बोध होता है। जैनदृष्टि से वस्तु अनन्त धर्मात्मक है ।
तत्त्वज्ञान - स्मारिका
आ. मल्लिषेण ने स्याद्वाद मंजरी में वस्तु की परिभाषा करते हुए लिखा - जिसमें गुण और पर्याय रहते हो वह वस्तु है । तत्त्व, पदार्थ और द्रव्य ये वस्तु के पर्यायवाची हैं।
आचार्य अकलंक ने सप्तभंगी की परिभाषा इस प्रकार की है- प्रश्न समुत्पन्न होने पर एक वस्तु में अविरोध - भाव से जो एक-धर्म विषयक विधि और निषेध की कल्पना की जाती है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है ।
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वस्तु के एक- - धर्म सम्बन्धी प्रश्न सात ही प्रकार से हो सकते हैं, इसलिए भंग भी सात ही हैं । जिज्ञासा सात ही प्रकार की होती है, इसलिए प्रश्न भी सात ही प्रकार के होते हैं। शंकाएँ भी सात ही प्रकार होती हैं, इसलिए जिज्ञासाएँ भी सात ही प्रकार की होती है । किसी भी एक ही धर्म के विषय में सात ही ४ सप्तभंगा तरंगिणी, पृ० १ ६ स्याद्वाद मंजरी कारिका २३ वृत्ति
भंग होने से सप्तभंगी कहते हैं । गणित के नियम के अनुसार भी तीन मूल वचनों के संयोगी, असंयोगी और अपुनरुक्त ये सात भंग ही हो सकते हैं, न अधिक होते हैं न कम । भंग का अर्थ विकल्प, प्रकार और भेद हैं ।
सप्तभंगी और अनेकान्त
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वस्तु अनेकान्तात्मक है और उसको प्रतिपादित करनेवाली निर्दोष भाषा-पद्धति स्याद्वाद है । उसीमें सप्तभंगी का रहस्य रहा हुआ है । अनेकान्त - दृष्टि से हर एक वस्तु में सामान्य रूप से, विशेष रूप से, भिन्नता की अपेक्षा से, अभिन्नता की अपेक्षा से, नित्यत्व की दृष्टि से अनित्यत्व की दृष्टि से, सत्ता रूप में, असत्ता रूप में अनन्त धर्म है । प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है । दो प्रतिपक्षी धर्मों में परस्पर विरोध नहीं होता, क्योंकि वे अपेक्षा भेद से सापेक्ष होते हैं । इस प्रकार यथार्थ ज्ञान ही अनेकान्त दृष्टि का प्रयोजन है । अनेकान्त अनन्त धर्मात्मक वस्तु स्वरूप की एक दृष्टि है और स्यादवाद या सप्तभंगी उस मूल ज्ञानात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त करने की अपेक्षा को सूचन करनेवाली एक वचन-- पद्धति है । अनेकान्त वाच्य है और स्यादवाद वाचक है, उसे समझाने का एक उपाय है । क्षेत्र की दृष्टि से अनेकान्त व्यापक है, विषय प्रतिपादन की दृष्टि से स्याद् - वाद व्याप्य है । दोनों में व्याप्य व्यापक भाव सम्बन्ध रहा हुआ है।
५ अन्ययोग व्यवच्छेदिका कारिका २२ ७ तच्चार्थ राजवार्तिक ११६/५१
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन स्याद्वाद के भंगों का आगमकालीन रूप
आगम साहित्य में जिस प्रकार म्याद्वाद का रूप बताया गया है उसी का हम यहाँ निरूपण करेंगे, जिससे यह ज्ञात हो सके कि सप्तभंगी का रूप नूतन नहीं है, किन्तु आगम साहित्य में उस पर चर्चा की गई है । बाद के आचार्यों ने उन्हीं भंगों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण किया है ।
श्री गौतम ने प्रश्न किया- भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ?
उत्तर में भगवान ने कहा
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(१) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है । (२) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा नहीं है । (३) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अवक्तव्य है इन तीनों भंगों को सुनकर गौतम ने भगवान से पुनः प्रश्न किया कि आप एक ही पृथ्वी को इतने प्रकार से किस अपेक्षा से कहते हैं ?
उत्तर में भगवान ने कहा-
(१) आत्मा के आदेश से आत्मा है । (२) पर के आदेश से आत्मा नहीं है । (३) उभय के आदेश से अवक्तव्य है । श्रीगौतम ने रत्नप्रभा की भांति अन्य पृथ्वियों, देवलोक और सिद्धशिला के सम्बन्ध में पूछा है, और उत्तर भी उसी प्रकार प्राप्त हुआ । उसके बाद परमाणु के सम्बन्ध में भी पूछा, पूर्ववत् ही उत्तर मिला । किन्तु जब उन्होंने द्विप्रदेशिक स्कंध के विषय में पूछा, तब प्रभु महावीर ने उत्तर इस प्रकार दिया, जिसमें भंगों का आधिक्य है
८ भगवती शतक १२, उ०१०
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(१) द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है । (२) द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा नहीं है । (३) द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् अवक्तव्य है । (४) द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है और आत्मा नहीं हैं ।
(५) द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है और अवक्तव्य है ।
(६) द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा नहीं है। और अवक्तव्य है ।
इन भंगो की योजना के अपेक्षा कारण के संबंध में श्री गौतम के प्रश्न के उत्तर में प्रभु महावीर ने कहा
(१) द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा के आदेश से आत्मा है।
(२) पर के आदेश से आत्मा नहीं है । (३) उभय के आदेश से अवक्तव्य I
(४) एकदेश सद्भाव - पर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा अंश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है, अतः द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा है और आत्मा नहीं है।
(५) एकदेश सद्भाव - पर्यायों से आदिष्ट है और एकदेश उभय-पर्यायों से आदिष्ट है, अतएव द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा है और अवक्तव्य है ।
(६) एकदेश असद्भाव - पर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है । अतः द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है ।
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६२]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका उसके पश्चात् श्री गौतम ने त्रिप्रदेशिक (१) त्रिप्रदेशी स्कंध आत्मा के आदेश से स्कंध के विषय में वैसा ही प्रश्न पूछा, उसका आत्मा है । उत्तर निम्न प्रकार से दिया
(२) त्रिप्रदेशी स्कंध पर के आदेश से (१) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है। आत्मा नहीं है । (२) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा नहीं है। (३) त्रिप्रदेशी स्कंध तदुभय के आदेश से (३) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् अवक्तव्य है। । अवक्तव्य है ।
(४) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है और । (४) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट आत्मा नहीं है।
है और एक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट (५) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है और | है। इसलिए त्रिप्रदेशी स्कंध आत्मा है और दो आत्मा नहीं है।
आत्मा नहीं है। (६) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् (दो) आत्माएँ
(५) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट हैं और आत्मा नहीं है।
है और दो देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट ___ (७) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है
| है, अतः त्रिप्रदेशीय स्कंध आत्मा है और दो और अवक्तव्य है।
आत्माएँ नहीं है। (८) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है और (६) दो देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट (दो) अवक्तव्य है।
है और एक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट (९) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् (दो) आत्माएँ |
है, अतएव त्रिप्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ हैं, हैं और अवक्तव्य है।
और आत्मा नहीं है। (१०) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा नहीं । (७) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है और अवक्तव्य है।
| है और दूसरा देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, (११) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा नहीं | अतः त्रिप्रदेशी स्कंध आत्मा है और अवक्तव्य है। है और (दो) अवक्तव्य है।
(८) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट (१२) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् (दो) आत्माएँ है और दो देश तदुभय-पर्यायो से आदिष्ट है, नहीं है और अवक्तव्य है।
| अतः त्रिप्रदेशी स्कंध आत्मा है और (दो) (१३) त्रिप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है, | अवक्तव्य है । आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है ।
| (९) दो देश सद्भाव--पर्यायों से आदिष्ट श्री गौतम ने जब पूछा कि भगवन् आप ये है और एक देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, भंग किस अपेक्षा से बताते है ? श्री तब भगवान इसलिए त्रिप्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ हैं और ने उत्तर दिया
| और अवक्तव्य है।
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन (१०) एक देश आदिष्ट है, असद्भाव- से, अतएव चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है और पर्यायों से और दूसरा देश आदिष्ट है तदुभय- | आत्मा नहीं है। पर्यायों से । अतएव त्रिप्रदेशी-स्कंध आत्मा नहीं (५) एक देश आदिष्ट है सदभाव-पर्यायों है और अवक्तव्य है। .
| से और अनेक देश आदिष्ट है असद्भाव-पर्यायों (११) एकदेश आदिष्ट है, असद्भाव- से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है और पर्यायों से और दो देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों । (अनेक) आत्माएँ नहीं है। से । अतएव त्रिप्रदेशी-स्कंध आत्मा नहीं है और (६) अनेक देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों (दो अवक्तव्य है।
से और एक देश आदिष्ट है असद्भाव-पर्यायों (१२) दो देश असद्भाव-पर्यायों से | से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कंध (अनेक) आत्माएँ हैं आदिष्ट है और एक देश तदुभय-पर्यायों से | और आत्मा नहीं हैं। आदिष्ट है, अतः त्रिप्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ (७) दो देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों नहीं है और अवक्तव्य है।
से और दो देश आदिष्ट है असद्भाव-पर्यायों (१३) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट | से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ है है एक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है | और (दो) आत्माएँ नहीं है।
और एक देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, (८) एक देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों अतएव त्रिप्रदेशी स्कंध आत्मा है, आत्मा नहीं है | से और एक देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों से, और अवक्तव्य है।
अतः चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है और अव____ इसके पश्चात् श्री गौतम ने चतुष्प्रदेशो | क्तव्य है । स्कंध के सम्बन्ध में वही प्रश्न किया। उत्तर में |
(९) एक देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों भगवान ने १९ भंग किये। श्री गौतम ने पुनः से और अनेक देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों अपेक्षा कारण के विषय में पूछा, तब निम्न उत्तर |
| से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है और का प्रदान किया
(अनेक) अवक्तव्य है। (१) चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा के आदेश
(१०) अनेक देश आदिष्ट है सद्भावसे आत्मा है।
पर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभय(२) चतुष्प्रदेशी स्कंध पर के आदेश से | पर्यायों से अतः चतुष्प्रदेए। स्कंध (अनेक) आत्माएँ आत्मा नहीं है।
है और अवक्तव्य है। (३) चतुष्प्रदेशी स्कंध तदुभय के आदेश (११) दो देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों से अवक्तव्य है।
से और दो देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों (४) एक देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों | से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ है से और एक देश आदिष्ट है असद्भाव-पर्यायों | और (दो) अवक्तव्य है।
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६४ ]
तवज्ञान - स्मारिका
(१२) एक देश आदिष्ट है असदभाव - | चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है, (दो) नहीं है और
अवक्तव्य है ।
पर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है ।
(१३) एक देश आदिष्ट है असद्भाव पर्यायों से और अनेक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्पदेशी स्कंध आत्मा नहीं है और (अनेक) अवक्तव्य हैं ।
(१४) अनेक देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेशी स्कंध (अनेक ) आत्माएँ नहीं है और अवक्तव्य है ।
(१५) दो देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और दो देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ नहीं है और (दो) अवक्तव्य है ।
(१६) एक देश सद्भाव - पर्यायों से आदिष्ट है, एक देश असद्भाव–पर्यायों से आदिष्ट है, और एक देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है, नहीं है और अवक्तव्य है ।
(१७) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है, एक देश असद्भाव–पर्यायों से आदिष्ट है और दो देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है, नहीं है और (दो) अवक्तव्य है ।
(१८) एक देश सद्भाव - पर्यायों से आदिष्ट है, दो देश असद्भाव - पर्यायों से आदिष्ट है और एक देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए
(१९) दो देश सद्भाव - पर्यायों से आदिष्ट है, एक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है और एक देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ है, नहीं है और अवक्तव्य है ।
इसके पश्चात् पंच- प्रादेशिक स्कंध के संबंध में वे ही प्रश्न हैं, और भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं के साथ श्री भगवान २२ भंगों में उत्तर प्रदान करते हैं
(१) पंच प्रदेशी स्कंध आत्मा के आदेश से आत्मा है |
(२) पंच प्रदेशी स्कंध पर के आदेश से आत्मा नहीं है ।
(३) पंच प्रदेशी स्कंध तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है ।
(४), (५), (६) ये तीन भंग चतुष्प्रदेशी स्कंध के समान है ।
(७) दो या तीन देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायों से और दो या तीन देश आदिष्ट है असद्भाव - पर्यायों से अतएव पंच- प्रदेशी स्कंध (दो या तीन ) आत्माएँ हैं और ( दो या तीन ) आत्माएँ नहीं है । [सद्भाव - पर्यायों में यदि दो देश लेने हों तो असद्भाव-पर्यायों में तीन देश लेने चाहिए और सद्भाव - पर्यायों में यदि तीन देश लेने हों तो असद्भाव - पर्यायों में दो देश लेने चाहिए ।]
(८, ९, १० ) ये तीन भंग चतुष्प्रदेशी स्कंध के समान है ।
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन (११) दो या तीन देश आदिष्ट है सद्- (२०) अनेक देश आदिष्ट है सद्भावभाव-पर्यायों से और दो या तीन आदिष्ट है | पर्यायों से, एक देश आदिष्ट है असद्भावतदुभयपर्यायों से, अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध (दो | पर्यायों से और एक देश आदिष्ट हैं तदुभयया तीन) आत्माएँ हैं और (दो या तीन) अव- पर्यायों से, अतः पंचप्रदेशी स्कंध (अनेक) क्तव्य है।
आत्माएँ हैं, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । __(१२, १३, १४) ये तीन भंग भी चतु
। (२१) दो देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों प्रदेशी स्कंध के समान है,
से, एक देश आदिष्ट है असदभाव--पर्यायों से (१५) दो या तीन देश आदिष्ट है तदुभय- और दो देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों से; अतः पर्यायों से और दो या तीन देश आदिष्ट है |
(दो) आत्माएँ हैं, आत्मा नहीं है और (दो) असद्भाव-पर्यायों से, अतएव पंचप्रदेशी स्कंध
अवक्तव्य है। (दो या तीन) अवक्तव्य है और (दो या तीन)
(२२) दो देश आदिष्ट हैं सद्भाव पर्यायों आत्माएँ नहीं है।
से, दो देश आदिष्ट है असद्भाव-पर्यायों से (१६) यह भंग भी चतुष्प्रदेशी स्कंध के
और एक देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों से, समान है।
अतः पंचप्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ नहीं है (१७) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट
और अवक्तव्य है। है, एक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है, | और अनेक देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है;
इसी प्रकार षट्प्रदेशी स्कंध के २३ भंग अतः पंचप्रदेशी स्कंध आत्मा है, आत्मा नहीं है | किये गए हैं, बावीस भंग तो पहले के समान और (अनेक) अवक्तव्य है।
ही है और २३ वाँ भंग निम्न प्रकार है(१८) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट | दो देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है, दो है, अनेक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है | असद्भाव--पर्यायों से आदिष्ट है और दो देश
और एक देश तदुभय--पर्यायों से आदिष्ट तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है,इसीलिए षट्प्रदेशी है; अतः पंचप्रदेशी स्कंध आत्मा है अनेक | स्कंध (दो) आत्माएँ हैं, (दो) आत्माएँ नहीं है आत्माएं नहीं है और अवक्तव्य है।
और (दो) अवक्तव्य है। (१९) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट उपर्युक्त भंगो का अवलोकन करने पर हम है, दो देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है | इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि स्याद्वाद से
और दो देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, फलित होनेवाली सप्तभंगी बाद के आचार्यों की भतः पंचप्रदेशी स्कंध आत्मा है (दो) आत्माएँ देन नहीं है । पं. दलसुख मालवणिया ने नहीं है और (दो) अवक्तव्य है।
लिखा है__९ आगमयुग का जैनदर्शन: पृ०
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६६ ]
(१) विधिरूप और निषेधरूप इन्हीं दोनों विरोधी धर्मों को स्वीकार करने में ही स्यादवाद के भंगों का उत्थान है ।
तत्त्वज्ञान स्मारिका
(२) दो विरोधी धर्मों के आधार पर विवक्षा- भेद से शेष भंगों की रचना होती है । (३) मौलिक दो भंगों के लिये और शेष सभी अंगों के लिये अपेक्षा कारण अवश्य चाहिये । प्रत्येक भंग के लिये स्वतन्त्र दृष्टि या अपेक्षा का होना आवश्यक है। प्रत्येक भंग को स्वीकार क्यों किया जाता है, इस प्रश्न का स्पष्टीकरण जिससे हो वह अपेक्षा है, आदेश है या दृष्टि है या नय है |
33
( ४ ) इन्हीं अपेक्षाओं को सूचन करने के लिए, प्रत्येक मंगवाक्य में " स्यात् " ऐसा पद रखा जाता है । इसी से यह वाद " स्यादवाद' कहलाता है, इस और अन्य सूत्र के आधार से इतना निश्चित है कि जिस वाक्य में साक्षात् अपेक्षा का उपादन हो वहाँ " स्यात् " का प्रयोग किया नहीं गया और जहाँ अपेक्षा का साक्षात् उपादान नहीं है, वहाँ स्यात् का प्रयोग किया गया है, अतएव अपेक्षा का द्योतन करने के लिए " स्यात् " पद का प्रयोग करना चाहिए ।
धर्मयुगलों को लेकर सात ही भंग होने चाहिएन कम ! अधिक ! इस प्रकार जो जैन दर्शनिकों
व्यवस्था की है, वह निर्मूल नहीं है । क्योंकि त्रिप्रदेशिक स्कंध और उससे अधिक प्रदेशिक स्कंधो के भंगो की संख्या जो प्रस्तुत सूत्र में दी गई है उससे यही मालूम होता है कि मूल भंग सात ही हैं जो जैन दार्शनिकों ने अपने सप्तभंगी के विवेचन में स्वीकृत किये हैं । जो अधिक भंग संख्या सूत्र में निर्दिष्ट है वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं है किन्तु एकवचन - बहुवचन भेद की विवक्षा के कारण ही है । यदि वचनभेदकृत संख्यावृद्धि को निकाल दिया जाय तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं । अतएव जो यह कहा जाता है कि आगम में सप्तभंगी नहीं है, वह भ्रममूलक है ।
(७) सकला देश - विकलादेश की कल्पना भी आगमिक - सप्तभंगी में विद्यमान है । आगम के अनुसार प्रथम तीन भंग सकलादेशी है और शेष चार भंग विकलादेशी है ।
भंग - कथन-पद्धति
शब्दशास्त्र की दृष्टि से प्रत्येक शब्द के मुख्य रूप से विधि और निषेध ये दो वाच्य होते हैं । प्रत्येक विधि के साथ निषेध और ( ५ ) " अवक्तव्य " यह भंग तीसरा है । प्रत्येक निषेध के साथ विधि जुडी रहती है । कुछ जैन दार्शनिकों ने इस भंग को चोथा स्थान एकांत रूप से न कोई विधि संभव है और न दिया है | आगम में अवक्तव्य का चोथा स्थान कोई निषेध ही । इकरार के साथ इनकार और नहीं है । यह विचारणीय है कि अवक्तव्य को इनकार के साथ इकरार रहा हुआ है । विधि चौथा स्थान कब से, किसने और क्यों दिया । और निषेध को लेकर जो सप्तभंगी बनती है। सभी विरोधी | वह इस प्रकार है
(६) स्यादवाद के भंगों में
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन (१) स्याद् अस्ति
प्रथम भंग (२) स्याद् नास्ति
सतभंगी को घट में घटाएँगे । घट में अनंत (३) स्याद् अस्ति-नास्ति
धर्म है । उनमें एक धर्म सत्ता भी है । "स्याद् (४) स्याद् अवक्तव्य
अस्ति घटः" घट कथंचित् सत् है। घट में
| अस्तित्व धर्म किस अपेक्षा से है, क्यों है और (५) स्याद् अस्ति-अवक्तव्य
कैसे है ? इसका उत्तर प्रथम भंग देता है। . (६) स्याद् नास्ति-अवक्तव्य
कथंचित् स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से घट का (७) स्याद् अस्ति–नास्ति-अवक्तव्य अस्तित्व है। हम जब यह कहते हैं कि घडा है
इस सप्तभंगी में अस्ति, नास्ति और अब तब हमारा उद्देश्य यही होता है कि घडा स्वक्तव्य ये मूल तीन भंग है । इसमें तीन द्विसंयोगी | द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की
और एक त्रिसंयोगी इस तरह चार भंग मिलाने | दृष्टि से है । घट के अस्तित्व की जो यहाँ पर से सात भंग होते हैं । अस्ति--नास्ति, अस्ति- विधि है वही भंग है। स्व की अपेक्षा से अस्तित्व अवक्तव्य, और नास्ति-अवक्तव्य ये तीन द्विसं. | की विधि है । यदि किसी पदार्थ में स्वरूप से योगी भंग हैं । मूल तीन भंग होने पर भी फलि- अस्तित्व का होना स्वीकार न किया जाय तो तार्थ रूप से सात भंगों का उल्लेख भी आगम | उसकी सत्ता ही नहीं रह जायगी । वह सर्वथा साहित्य में प्राप्त होता है। जैसा कि पूर्व में असत् हो जायगा और इस प्रकार समग्र विश्व भगवती सूत्र के उल्लेख से भंग बताये हैं, उनमें | शून्यमय बन जाएगा। अतएव प्रत्येक पदार्थ सात भंगों का प्रयोग हुआ हैं । पंचास्तिकाय | में स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत्ता अवश्य में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी सात भंगों का | स्वीकार करनी चाहिए । किन्तु पर की अपेक्षा नाम बताकर सप्त भंग का प्रयोग किया है"। | से वह नहीं है । कहा है-" सर्वमस्ति स्वरूपेण, भगवती सूत्र में तथा विशेषावश्यक भाष्य में | पररूपेण नास्ति च" संसार की प्रत्येक वस्तु अवक्तव्य को तीसरा भंग माना है। पंचास्ति- का अस्तित्व स्वरूप से होता ही है, पर रूप से काय में कुन्द-कुन्दने चौथा भंग माना है। नहीं । यदि स्वयं से भिन्न अन्य समग्र पर-स्व
और प्रवचनसार" में कुम्दकुन्द ने ही तीसरा | रूपों में भी घट का अस्तित्व हो तो फिर घट, भंग माना है। बाद के आचार्यों की रचनाओं | घट नहीं । पट का कार्य आच्छादन आदि में दोनों क्रमों का उल्लेख मिलता है। करना हैं। स्मरण रखना चाहिए कि यदि १० भगवती सूत्र शतक १२, उ० १०, प्र० १९-२०
१२ भगवती सूत्र शतक १२, उ० १०, प्र० १९-२० १३ विशेषावश्यक भाष्य गा० २-३२ १४ पंचास्तिकाय गा० १४ १५ प्रवचनसार: ज्ञयाधिकार गा०११५
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तत्त्वज्ञान स्मारिका वस्तुओं में अपने स्वरूप के समान, पर स्वरूप | किया गया है। प्रथम और द्वितीय भंग में विधि की सत्ता भी मानी जाए तो उनमें स्व-पर और निषेध का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया विभाग किसी प्रकार घटित नहीं हो सकेगा। गया किन्तु तीसरे भंग में क्रमशः दोनों का। उसके अभाव में तो गुड और गोबर एक हो
चतुर्थ भंग जायेगा, एतदर्थ प्रथम भंग का अर्थ है घट की
__" स्याद् अवक्तव्यो घटः " यह चतुर्थ भंग सत्ता सभी अपेक्षाओं से नहीं किन्तु एक है। शब्द की शक्ति सीमित है। जब वस्तुगत अपेक्षा से है।
किसी भी धर्म की विधि का उल्लेख करते हैं, द्वितीय भंग
उस समय उसका निषेध रह जाता है और जिस " स्याद् नास्ति घटः " यह द्वितीय भंग समय निषेध का प्रतिपादन करते हैं तब विधि है। प्रथम भंग में स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से | रह जाती है। विधि और निषेध का क्रमशः अस्तित्व का प्रतिपादन था, तो द्वितीय भंग में प्रतिपादन अस्ति,-नास्ति के रूप में प्रथम और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से निषेध किया गया। दूसरे भंग में किया गया है, तीसरे भंग में अस्ति, है। प्रत्येक पदार्थ का विधि रूप भी और निषेध | | नास्ति का क्रमशः उल्लेख किया गया है, किन्तु रूप भी है। अस्तित्व साथ नास्तित्व भी रहा विधि-निषेध की युगपद् वक्तव्यता में कठिनाई है। हआ है। विद्यानन्दी ने कहा है-सत्ता का उसका समाधान अवक्तव्य शब्द के द्वारा किया निषेध, स्वाभिन्न अनन्त पट की अपेक्षा से है। गया है। यदि पर की अपेक्षा के समान स्व की अपेक्षा से
___ 'स्याद् अवक्तव्य' भंग बताता है कि घट भी अस्तित्व का निषेध माना जाये तो धट |
की वक्तव्यता युगपद् में नहीं क्रम में ही होती है। निःस्वरूप हो जाए"। यदि निःस्वरूपता स्वीकार |
‘स्याद् अवक्तव्य ' भंग से यह स्पष्ट हो जाता करें तो स्पष्ट रूप से सर्व-शून्यता का दोष
है कि अस्तित्व-नास्तित्व का युगपद् वाचक कोई आ जाएगा, इसलिए द्वितीय भंग यह बताता |
भी शब्द नहीं है. इसलिए विधि-निषेध का युगहै कि पररूपेण ही घट कथंचित् नहीं है।
पत्त्व अवक्तव्य है। किन्तु यह ध्यान रखना तृतीय भंग
चाहिए कि वह अवक्तव्यत्व सर्वथा सर्वतो . " स्याद् अस्तिनास्ति घटः " यह तृतीय भावेन नहीं है। यदि इस प्रकार माना भंग है । इसमें पहले विधि की और फिर निषेध | जाएगा तो एकान्त अवक्तव्य का दोष पैदा होगा, की क्रमशः विवक्षा की जाती है। इसमें स्व- जो मिथ्या होने से मान्य नहीं है। ऐसी चतुष्टय की अपेक्षा से सत्ता का और पर-चतु- स्थिति में हमें घट की घट शब्द से या किसी ष्टय की अपेक्षा से असत्ता का क्रमशः कथन | भी अन्य शब्द से यहाँ तक कि अवक्तव्य
१६ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक १।६।५२ १७ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक १४६५२
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन शब्द से भी नहीं कह सकेंगे। वस्तु का शब्द | नहीं है, घट अवक्तव्य है। इस प्रकार कहा द्वारा प्रतिपादन करना असंभव हो जाएगा | गया है। और वाच्य-वाचक भाव की कल्पना की कोई
चतुष्टय की परिभाषा स्थान ही न रह जाएगा । इसलिए स्यात् अव
विधि और निषेध से प्रत्येक वस्तु का क्तव्य भंग सूचित करता है कि विधि-निषेध का
नियत रूप में परिज्ञान होता है। स्व-चतुष्टय से युगपत्त्व अस्ति या नास्ति शब्द से अवक्तव्य है
जो वस्तु सत् है वही वस्तु परचतुष्टय से असत् किन्तु यह अवक्तव्यत्व सर्वथा नहीं है । अवक्तव्य
है।" द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यह चतुष्टय शब्द से तो वह युगपत्त्व वक्तव्य हो है ।
है। स्व-द्रव्य रूप में घट पुद्गल है, चेतन पाचवाँ भंग
आदि पर-द्रव्य नहीं । स्व-क्षेत्र रूप में ___ "स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घटः" यह पांचवाँ
| कपालादि-स्वावयवों में हैं, तन्तु आदि परभंग है । यहाँ पर पहले समय में विधि और
अवयवों में नहीं। स्वकाल रूप में वह अपने दूसरे समय में युगपत् विधि-निषेध की विवक्षा
वर्तमान पर्यायों में है, किन्तु पर-पदार्थो के की गई है। इसमें पहले अस्ति के द्वारा स्वरूप से घट की सत्ता का कथन किया जाता है और
पर्यायों में नहीं है। स्वभाव रूप में स्वयं के
लाल आदि गुणों में है, पदार्थों के गुणों दूसरे अवक्तव्य अंश के द्वारा युगपत् विधि-निषेध का प्रतिपादन किया जाता है । पाँचवें भंग का
में नहीं। अर्थ है घट है, और अवक्तव्य भी है।
स्याद्वाद-मंजरी" में व्यवहार-दृष्टि को छठा भंग
लक्ष्य में रखकर द्रव्य की अपेक्षा पार्थिवत्व, "स्याद् नास्ति अवक्तव्यो घटः' यहाँ पर |
क्षेत्र की अपेक्षा पाटलिपुत्रकत्व, काल की अपेक्षा पहले समय में निषेध और दूसरे समय में एक
शैशिरव और भाव की अपेक्षा श्यामत्व रूप साथ (युगपद्) विधि-निषेध की विवक्षा होने से
लिखा है। घट नहीं है और वह अवक्तव्य है, यह कथन प्रत्येक वस्तु स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल किया गया है।
| और स्व-भाव से सत् है; पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर सातवाँ भंग
-काल और पर-भाव से असत् है । इस प्रकार "स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्यो घटः" । एक ही वस्तु सत् और असत् होने से बाधा और यहाँ पर क्रम से पहले समय में विधि, दूसरे विरोध नहीं है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ स्वसमय में निषेध और तीसरे समय में एक साथ चतुष्टय की अपेक्षा से है, पर-चतुष्टय की में यगपद् विधि-निषेध की दृष्टि से घट है, घट अपेक्षा से नहीं है। १८ पंचाध्यायी १।२६३
१९ स्यावाद मंजरी, कारिका २३
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७०
तत्त्वज्ञान स्मारिका । प्रत्येक भंग निश्चयात्मक है, अनिश्चयात्मक | से यह प्रयोग किया जाता है । इसी तरह नहीं । इसके लिए कई बार एव (ही) शब्द का | "पार्थो धनुर्धरः ” में “ एव" का प्रयोग प्रयोग भी होता है, जैसे " स्याद् घटः अस्त्येव" नहीं हुआ है नहीं हुआ है किन्तु "अर्जुन ही यहाँ पर ' एवं ' शब्द स्व-चतुष्टय की अपेक्षा | धनुर्धर है" यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है।" यही निश्चित रूप से घट का अस्तिव प्रकट करता है। बात यहाँ पर भी है । 'अस्ति घटः' कहने पर " एव" का प्रयोग न होने पर भी प्रत्येक भो किसी अपेक्षा से घट है ऐसा अर्थ स्वतः कथन को निश्चयात्मक ही समझना चाहिए । | | निकल आता है किन्तु भ्रान्ति-निवारणार्थ स्यादवाद सन्देह और अनिश्चय का समर्थक नहीं | "स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए । है। चाहे " एव" शब्द का प्रयोग हो या न आचार्य हेमचन्द्र ‘स्यात्" को अनेकान्त–बोधक हो किन्तु यदि कोई वचन-प्रयोग स्याद्वाद | मानते हैं ।२२ भट्ट अकलंक स्यात् को सम्यगू सम्बन्धी है तो वह निश्चित ही है, वह " एव" | अनेकान्त और सम्यग् एकान्त उभय का वाचक पूर्वक हो है।
मानते हैं, इसलिए उन्हें नय और प्रमाण दोनों स्यात् शब्द का प्रयोग
में स्यात् इष्ट है । सप्तभंगी के प्रत्येक-भंग में स्वधर्म मुख्य
___ अन्य दर्शनों में होता है और अन्य-धर्म गौण होते हैं। गौण और मुख्य की विवक्षा के लिए ही " स्यात् " शब्द
. हमने पूर्व यह बताया कि अस्ति, नास्ति का प्रयोग किया जाता है । " स्यात् " शब्द
और अवक्तव्य ये तीन मूल भंग हैं। अद्वैत जहाँ विवक्षित धर्म की मुख्य रूप से प्रतीति
वेदान्त, बौद्ध और वैशेषिक दर्शन की दृष्टि से कराता है, वहाँ अ-विवक्षित धर्म का पूर्ण रूप से | मूल तीन भंगों की योजना इस प्रकार की जा निषेध न कर उसका गौण-रूप से उपस्थापन | सकता है ! करता है । शब्दशक्ति और वस्तुस्वरूप की विवे- | अद्वैत वेदान्त ब्रह्म को ही एकमात्र तत्त्व चना में वक्ता और श्रोता कुशल हैं तो "स्यात्" | मानता है । पर वह अस्ति होकर भी अवक्तव्य शब्द के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रती। | है, सत्तारूप होने पर भी वह वाणी के द्वारा अनेकान्त का प्रकाशन उसके बिना भी हो शकता | कहा नहीं जा सकता । इसलिए वेदान्त में ब्रह्म है। उदाहरणार्थ-अहम् अस्मि–मैं हूँ, इस वाक्य "अस्ति" होकर भी अवक्तव्य है। बौद्ध दर्शन में 'अहम्' और 'अस्मि' ये दो पद हैं। इन दोनों में अन्यापोह नास्ति होकर भी अवक्तव्य है। में से एक का प्रयोग होने से दूसरे का अर्थ अपने | कारण कि वाणो से अन्य का सर्वथा अपोह आप मालूम हो जाता! तथापि स्पष्ट की दृष्टि करने पर किसी भी विधिरूप वस्तु का परिज्ञान २० लघीयत्रय प्रवचस प्रवेश
२२ स्यावाद मंजरी का० ५ २१ तखार्थ श्लोक वार्तिक ११६५६
२३ लघीयत्रय ६२
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन
[७१ नहीं हो सकता। इसलिए बौद्ध दर्शन का करता है । अभेद-प्राधान्य-वृत्ति या अभेदोपअन्यापोह "नास्ति' होकर भी अवक्तव्य है। चार से एक शब्द के द्वारा साक्षात् एक-धर्म वैशेषिक दर्शन के अनुसार सामान्य और विशेष का प्रतिपादन होने पर भी अखण्ड-रूप से दोनों स्वतन्त्र हैं । अस्ति और नास्ति होकर अनन्तधर्मात्मक सम्पूर्ण धर्मों का युगपत् कथन भी अवक्तव्य है । वे दोनों किसी एक शब्द के हो जाता है । इसको प्रमाणसप्तभंगी कहते हैं । वाच्य नहीं हो सकते और न सर्वथा भिन्न | | प्रश्न हो सकता है कि यह अभेद-वृत्ति या सामान्य विशेष में कोई अर्थ क्रिया ही हो सकती अभेदोपचार क्या वस्तु है ? वस्तु में जब कि है। इस प्रकार जैनदर्शन समस्त मूल-भंगों की | अनन्त धर्म हैं और वे परस्पर भिन्न हैं ! उन सब योजना अन्य-दर्शनों भी देखी जा सकती है। की स्वरूपसत्ता अलग-अलग हैं, तब उसमें प्रमाण सप्तभंगी
अभेद किस प्रकार माना जा सकता है ? उसका प्रमाण-वाक्य को सकला देश और नय- मुख्य आधार क्या है ? वाक्य को विकलादेश कहते हैं । ये सातों ही
समाधान यह है कि वस्तुतत्त्व के प्रतिपादन भंग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण वाक्य की अभेद और भेद ये दो शैलियाँ है । अभेदऔर जब विकलादेशी होते हैं । तब नयवाक्य
शैली भिन्नता में भी अभिन्नता ढूंढती है, और कहलाते हैं । इसी आधार से सप्तभंगी के भी
| भेदशैली अभिन्नता में भी भिन्नता की अन्वेषणा दो भेद हैं-प्रमाण-सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी। करती है । अभेद-प्राधान्यवृत्ति या अभेदोपप्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। किसी
चार विवक्षित वस्तु के अनन्त-धर्मों को काल, भी एक वस्तु का पूर्ण रूप से परिज्ञान करने के |
| आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणि -देशसंसर्ग लिए उन अनन्त- शब्दों का प्रयोग करना
और शब्द की दृष्टि से एक साथ अखण्ड एक चाहिए। किन्तु यह न तो संभव है और न व्य
वस्तु के रूप में उपस्थित करता है । इस प्रकार वहार्य ही है । अनन्त-शब्दों का प्रयोग करने |
| एक और अखण्ड वस्तु के रूप में अनन्त-धर्मों के लिए अनन्तकाल चाहिए, किन्तु मनुष्य का
को एक साथ कथन करनेवाले सकलादेश से जीवन अनन्त नहीं है । अतएव समग्र-जीवन में |
वस्तु के सभी धर्मों का एक साथ समूहात्मक भी वह एक भी वस्तु का पूर्ण प्रतिपादन नहीं
| ज्ञान हो जाता है। कर सकता, इसलिए हमें एक-शब्द से ही । जीव आदि पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप है, सम्पूर्ण अर्थ का बोध करना होता है। यद्यपि । इसलिए अस्तित्व-कथन में अभेदावच्छेदक काल बाह्य-दृष्टि से ऐसा ज्ञात होता है कि वह एक | आदि बातों को इस प्रकार घटाया जाता हैही धर्म का कथन करता है, किन्तु अभेदोपचार (१) काल-जिस समय किसी वस्तु में वृत्ति से वह अन्य-धर्मों का भी प्रतिपादन | अस्तित्व धर्म होता है, उसी समय अन्य-धर्म भी
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७२]
तत्त्वज्ञान स्मारिका होते हैं। घट में जिस समय अस्तित्व रहता है | घटरूप गुणी के देश की अपेक्षा से देखा जाय उसी समय कृष्णत्व, स्थूलत्व, कठिनत्व, आदि । तो अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद नहीं धर्म भी रहते हैं। इसलिए काल की अपेक्षा से है, इसी को गुणिदेश कहते हैं।२४ अन्य धर्म अस्तित्व से अभिन्न है।
(७) संसर्ग---जैसे अस्तित्व गुण का घट से (२) आत्म-रूप-जैसे अस्तित्व घट का संसर्ग है, वैसे ही अन्य गुणों का भी घट से स्वभाव है, वैसे ही कृष्णत्व, कठिनत्व आदि भी | संसर्ग है। इसलिए संसर्ग की दृष्टि से देखने पर घट के स्वभाव हैं । अस्तित्व के समान अन्य | अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद दृष्टिगोगुण भी घटात्मक ही है। इसलिए आत्मरूप की | चर नहीं होता । इसलिए संसर्ग की अपेक्षा से दृष्टि से अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेद हैं। सभी धर्मों में अभेद है।
(३) अर्थ-जिस घट में अस्तित्व है,उसी घट (८) शब्द-जैसे अस्तित्व का प्रतिपादन में कृष्णत्व, कठिनत्व आदि धर्म भी हैं। सभी धर्मों "है" शब्द द्वारा होता है, वैसे अन्य-गुणों का का स्थान एक ही है । इसलिए अर्थ की दृष्टि से प्रतिपादन भी "है" शब्द से होता है । घट अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद नहीं है। में अस्तित्व है, घट में कृष्णत्व है, घट में कठिन
(४) सम्बन्ध-जैसे अस्तित्व का घट से त्व है । इन सब वाक्यों में " है" शब्द घट के कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है, वैसे ही अन्य धर्म | विभिन्न धर्मों को प्रकट करता है । जिस “है" भी घट से संबंधित है। सम्बन्ध की दृष्टि से शब्द से कृष्णत्व का प्रतिपादन होता है उस "है" अस्तित्व और अन्य गुण अभिन्न है। शब्द से कठिनत्व आदि धर्मों का भी प्रतिपादन
(५) उपकार-अस्तित्व गुण घट का जो होता है । इसलिए शब्द की दृष्टि से भी अस्तिउपकार करता है, वही उपकार कृष्णत्व, कठिनत्व
त्व और अन्य धर्मों में अभेद है। आदि गुण भी करते हैं। एतदर्थ यदि उपकार काल आदि के द्वारा यह अभेद-व्यवस्था की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व और अन्य पर्यायस्वरूप अर्थ को गौण और गुणपिण्डरूप गुणों में अभेद है।
द्रव्य पदार्थ को प्रधान करने पर सिद्ध हो जाती (६) गुणिदेश-जिस देश में अस्तित्व रहता है। अभेद प्रमाण का मूल प्राण है। बिना अभेद है, उसो देश में घट के अन्य गुण भी रहते हैं। के प्रमाण का स्वरूप सिद्ध नहीं हो सकता।
२४ अर्थ पद से अखंड वस्तु पूर्ण रूप से ग्रहण की जाती है, और गुणि-देश से अखण्ड वस्तु के
बुद्धि-परिकल्पित देशांश ग्रहण किये जाते हैं। २५ पूर्वोक्त सम्बन्ध और इस संसर्ग में यह अन्तर है--तादात्म्य सम्बन्ध धर्मों की परस्पर योजना
करनेवाला है और संसर्ग एक वस्तु में अशेष धर्मों को बतानेवाला है।
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन
[७३ नय-सप्तभंगी
। इसलिए काल की दृष्टि से वस्तुगत धर्मों में भेद नय वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य रूप । है, अभेद नहीं ।। से ग्रहण करता है किन्तु शेष धर्मों का निषेध (२) आत्मरूप-वस्तुगत गुणों का आत्मन कर उनके प्रति तटस्थ रहता हैं। इसी को रूप भी पृथक् पृथक् है । यदि अनेक गुणों का "सुनय" कहते हैं। नय-सप्तभंगी सुनय में होती आत्मरूप अलग न माना जाय, तो गुणों में भेद है, दुर्नय में नहीं । वस्तु के अनन्त धर्मों में से को बुद्धि किस प्रकार होगी ? जब गुण अनेक किसो धर्म का काल आदि भेदावच्छेदकों द्वारा हैं तो उनका आत्मरूप भी भिन्न-भिन्न ही भेद की प्रधानता या भेद के उपचार से प्रति- होना चाहिये, क्योंकि एक आत्मरूपवाले अनेक पादिन करनेवाला वाक्य विकलादेश कहलाता नहीं, एक ही होंगे । अतः आत्मरूप से भी गुणों है । इसे नय-सप्तभंगी कहते हैं । भेद--दृष्टि से ।
। में भेद ही सिद्ध होता है। नय-सप्तभंगी में वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन
(३) अर्थ-विविध धर्मो' का अपना अपना किया जाता है।
आश्रय अर्थ भी विविध ही होता है। यदि काल आदि की दृष्टि से
विविध गुणों का आधारभूत पदार्थ अनेक न हो
तो एक को ही अनेक गुणों का आश्रय मानना नय-सप्तभंगी में गुण-पिण्डरूप द्रव्य-पदार्थ
होगा, जो युक्तियुक्त नहीं है। एक का आधार को गौण और पर्याय-स्वरूप अर्थ को प्रधान
एक ही होता है । इसलिए अर्थभेद से भी सब माना जाता है, इसलिए नय-सप्तभंगी भेद--प्रधान
| धर्मों में भेद है। है । जैसे प्रमाण सप्तभंगी में काल आदि के
(४) सम्बन्ध-सम्बन्धियों के भेद से संबंध आधार पर एक गुण को अन्य गुणों से अभिन्न
में भी भेद होना स्वाभाविक है । यह संभव नहीं विवक्षित किया जाता है, वैसे ही नय-सप्तभंगी
कि संबंधी तो अनेक हों और उन सबका में उन्हीं काल आदि आधारों से एक गुण का
सम्बन्ध एक हो । गुरुदत्त का अपने पुत्र से जो दूसरे गुण से भेद विवक्षित किया जाता है । वह
सम्बन्ध है, वही भाई, माता, पिता के साथ इस प्रकार है---
नहीं है। इसलिए भिन्न धर्मों में सम्बन्ध की (१) काल-वस्तुगत गुण प्रतिपल-प्रतिक्षण | अपेक्षा से भेद ही सिद्ध होता है, अभेद नहीं। विभिन्न रूपों में परिणत होता रहता है । इस- (५) उपकार-उपकारक के भेद से उपकार लिए जो अस्तित्व का काल है वह नास्तित्व में भेद होता है। अतः अनेक धर्मों के द्वारा
आदि का काल नहीं है । विभिन्न-धर्मों का होनेवाला वस्तु का उपकार भी वस्तु में पृथक्विभिन्न काल होता है, एक नहीं । यदि सभी पृथक् होने से अनेक रूप है, एक रूप नहीं । गुणों का एक ही काल माना जायेगा तो सभी । इसलिए उपकार की अपेक्षा से भी अनेक गुणों पदार्थों का भी एक ही काल कहा जा सकेगा। में अभेद धदित नहीं होता।
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७४ ]
(६) गुणिदेश - गुणी का क्षेत्र प्रत्येक भाग प्रति गुण के लिए भिन्न होना चाहिए, नहीं तो दूसरे गुणी के गुणों का भी इस गुणिदेश से भेद नहीं हो सकेगा । अभिन्न नहीं मानने से एक व्यक्ति के सुख-दुःख और ज्ञानादि दूसरे व्यक्ति में प्रविष्ट हो जाएँगे, जो किसी भी प्रकार उचित नहीं है । इसलिए गुणिदेश से भी धर्मों का अभेद नहीं किन्तु भेद सिद्ध होता है ।
(७) संसर्ग - संसर्ग भी प्रत्येक संसर्गवाले के भेद से भिन्न हो मानना चाहिए । यदि संसर्गियों के भेद के होते हुए भी उनके संसर्ग में अभेद माना जाए तो संसर्गियों का भेद किस प्रकार घटित होगा ? लोकदृष्टि से भी पान, सुपारी, इलायची और जिह्वा के साथ भिन्न प्रकार का संसर्ग होता है, एक नहीं । इसलिए संसर्ग से अभेद नहीं अपितु भेद ही सिद्ध होता है ।
तत्त्वज्ञान - स्मारिका
(८) शब्द - प्रत्येक धर्म का वाचक शब्द भी पृथक्-पृथक् ही होगा । यदि एक ही शब्द समस्त धर्मों का वाचक हो सकता हो तो सब पदार्थ भी एक शब्द के वाध्य बन जाएँगे । ऐसी स्थिति में दूसरे शब्दों की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी, इसीलिए वाचक शब्द की अपेक्षा से भी वस्तुगत अनेक धर्मो में अभेदवृत्ति नहीं, भेदवृत्ति ही प्रमाणित होती है ।
प्रत्येक पदार्थ गुण और पर्याय स्वरूप है । गुण और पर्याय दोनों में परस्पर भेदाभेद संबंध है । जिस समय प्रमाण - सप्तभंगी से
२६ तचार्थ लोक वार्तिक ११६/५४
पदार्थ का अधिगम किया जाता है, उस समय गुण- पर्यायों में कालादि से अभेद वृत्ति या अभेद का उपचार होता है और अस्ति अथवा नास्ति प्रभृति किसी एक शब्द से ही अनन्त गुण पर्यायों के पिण्ड स्वरूप अखण्ड पदार्थ का युगपत् प्रतिबोध होता है और जिस समय नयसप्तभंगी के द्वारा पदार्थ का अधिगम किया
२६
जाता है, उस समय गुण और पर्यायों में कालादि के द्वारा भेदवृत्ति या भेदोपचार होता है । और अस्ति, नास्ति प्रभृति किसी शब्द के द्वारा द्रव्यगत अस्तित्व या नास्तित्व आदि किसी एक विवक्षित गुण - पर्याय के मुख्य रूप से क्रमशः निरूपण होता है । विकलादेश नय है और सकलादेश प्रमाण है । नय वस्तु के एक धर्म का निरूपण करता है । और प्रमाण सम्पूर्ण धर्मो का युगपत् निरूपण करता है । नय और प्रमाण में मुख्य रूप से यही अन्तर है । प्रमाणसप्तभंगी में अभेदवृत्ति या अभेदोपचार को कथन होता है तो नयसप्तभंगी में भेदवृत्ति या भेदोपचार का निरूपण होता है । तात्पर्य यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में द्रव्यार्थिक भाव है, इसलिए अनेक धर्मों में अभेदवृत्ति स्वतः है और जहाँ पर पर्यायार्थिक भाव का आरोप किया जाता है वहाँ अनेक धर्मों में एक अखण्ड अभेद प्रस्थापित (आरोपित) किया जाता हैं । जहाँ पर नयसप्तभंगी में द्रव्यार्थिकता है वहाँ पर अभेद में भेद का उपचार करके एक धर्म का मुख्य रूप से निरूपण किया जाता है और जहाँ पर
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन
पर्यायार्थिकता है वहाँ पर अभेदवृत्ति अपने आप और अवक्तव्य " ये तीन भंग सकलादेशी है होने से उपचार की आवश्यकता नहीं होती। और शेष चार भंग विकलादेशी है। आचार्य व्याप्य-व्यापक भाव
शांति सूरिने न्यायावतार-सूत्रवार्तिक वृत्ति में, स्यादवाद और सप्तभंगी में व्याप्य और | अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य को सकलादेशी व्यापक भाव संबंध है। स्याद्वाद " व्याप्य" और अन्य चार को विकलादेशी कहा है । जैन है और सप्तभंगी " व्यापक" है । जो स्याद्वाद |
| तर्क भाषा में उपाध्याय यशोविजयजी ने सातों है वह निश्चितरूप से सप्तभंगी होता ही है किंत ही भंगो को सकलादेशी और विकलादेशी दोनों जो सप्तभंगी है वह स्यावाद है भी, नहीं भी
माना है । दिगंबराचार्य अकलंक, विद्यानन्दी है । नय स्याद्वाद नहीं है तथापि उसमें सप्त
आदि सातों ही भंग को सकलादेश और विकभंगीय एक व्यापक धर्म है, जो स्याद्वाद और ।
लादेश रूप ही मानते हैं। नय दोनों में रहता है।
जो आचार्य सत् , असत् और अवक्तव्य अनन्त भंगी नहीं
| भंगों को सकलादेशी और शेष चार भंगों को
विकलादेशी मानते हैं, उनका मन्तव्य है कि प्रथम प्रतिपादन किया जा चुका है कि जैन
भंग में द्रव्यार्थिक दृष्टि से "सत्" रूप से अभेद दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म
होता है और उसमें सम्पूर्ण द्रव्य का ज्ञान हो है, इसलिए सप्तभंगी के स्थान पर अनन्तभंगी क्यों न मानी जाय ? उत्तर में निवेदन है कि
जाता है । द्वितीय भंग में पर्यायार्थिक दृष्टि से
समस्त पर्यायों में अभेदोपचार से अभेद मानकर प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं और प्रत्येक धर्म को लेकर एक-एक सप्तभंगो बनती है, अतएव
असत् रूप से भी सम्पूर्ण द्रव्य का ग्रहण कर
सकते हैं और तृतीय अवक्तव्य भंग में तो सामा. अनन्त-धर्मों की अनन्त सप्तभंगियों को जैन
न्य रूप में भेद अविवक्षित हो है। इसलिए दर्शन स्वीकार करता है। यदि एक धर्म का
सम्पूर्ण द्रव्य के ग्रहण में किसी भी प्रकार की एक भंग होता तो अनन्त धर्मों की अनन्तभंगी हो सकती थी किन्तु ऐसा तो नहीं । एक धर्मा
कोई आपत्ति नहीं है। श्रित एक सप्तभंगी स्वीकार करने के कारण
___अभेदरूप से सम्पूर्ण द्रव्य-ग्राही होने से अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभंगियाँ ही संभव तीनों भंग सकलादेशी है और अन्य चार भंग हो सकती है। २७
सावयव तथा अंशग्राही होने से विकलादेशी है। आचार्य सिद्धसेन व अभयदेव सूरि का | कितने ही विचारक उपर्युक्त विचारधारा मन्तव्य है कि उक्त सप्तभंगी में “ सत्, असत् को महत्त्व नहीं देते हैं। उनका कथन है कि २७ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक १।६।५२
२८ सन्मति तर्क, सटोक पृ० ४४६ २९ पं० दलसुख मालवणिया सम्पादित पृ० ९४ ३० पूज्य गुरुदेव रत्नमुनि स्मृति ग्रंथ पृ० १३३
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७६ ]
सत्त्व अथवा
यह तो एक विवक्षा -भेद है । असत्त्व के द्वारा समग्र वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है तब सत्त्वासत्त्वादि रूप से मिले हुए दो या तीन धर्मों के द्वारा भी अखण्ड वस्तु का परिज्ञान क्यों नहीं हो सकता ! इस लिए सातों ही भंग सकलादेशी और विकला - देशी दोनों ही हो सकते हैं ।
तत्वज्ञान - स्मारिका
सप्तभंगी का इतिहास
सुदूर अतीतकाल से ही भारतीय दर्शनों में विश्व के सम्बन्ध में सत्, असत्, उभय और अनुभय ये चार पक्ष चिंतन के मुख्य विषय रहे हैं। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में विश्व के सम्ब न्ध में सत्" और असत् रूप से दो विरोधी कल्पनाओं का उल्लेख है । उक्त सूक्त के ऋषि के सामने दो मत थे । कितने ही जगत् के आदि कारण को सत् कहते थे, दूसरे असत् । जब ऋषि के सामने यह प्रश्न आया तब उन्होंने अपना तृतीय मत प्रदर्शित करते हुए कहा- सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं हैं किन्तु अनुभय है । इस प्रकार सत् असत् और अनुभय ये तीन पक्ष ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं।
३२
यही तथ्य उपनिषद् साहित्य में भी प्राप्त होता है । वहाँ पर भी दो विरोधी पक्षों का समर्थन मिलता है । ' तदेजति तन्नैजति
,33
ર૪
२५
२६
अणोरणीयान् महतो महीयान् " " सदसद्वरेंयम् " आदि वाक्यों में स्पष्ट रूप से दो विरोधी धर्म स्वीकार किये गये हैं । इस परम्परा में तृतीय पक्ष सदसत् अर्थात् उभय का बनता है और जहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध किया गया है वहाँ अनुभय का चतुर्थ पक्ष बन गया। इस तरह उपनिषदों में सत् असत्, सदसत् और अनुभय ये चार पक्ष प्राप्त होते हैं। अनुमय पक्ष को अवक्तव्य भी कहते हैं । अवक्तव्य के तीन अर्थ है- (१) सत् और असत् दोनों का निषेध करना ( २ ) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना (३) सत् और असत् दोनों को अक्रम अर्थात् युगपद् स्वीकार करना । अवक्तव्य तो उपनिषद साहित्य का मुख्य सूत्र रहा है । जहाँ पर अवक्तव्य को तृतीय स्थान दिया गया है वहाँ पर सत् और असत् दोनों का निषेध जानना चाहिए । जहाँ अवक्तव्य को चतुर्थ स्थान दिया गया है, वहाँ सत् असत् और सदसत् तीनों का निषेध जानना चाहिए | अवक्तव्यता सापेक्ष और निरपेक्ष रूप से दो प्रकार की है । सापेक्ष अवक्तव्यता वह है जिसमें तत्त्व सत्, असत् और सदसत् रूप से जो अवाच्य है, उसकी झलक होती है। प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक आचार्य नागार्जुन ने तो सत्, असत्, सदसत् और अनुभय इन चार दृष्टियों
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३१ एक सद् बहुधा वदन्ति । ऋग्वेद १११६४।४६ ३२ सदसत् दोनों के लिए देखिये- ऋग्वेद १०।१२९ ३३ ईशोपनिषद्, ५ ३५ छान्दोग्योपनिषद् ३।१९।१ ३७ (क) केनोपनिषद् ११४
३४ छान्दोग्योपनिषद् ६२ ३६ तैत्रिय ० २।४
(ख) कटोपनिषद् २।६।१२
(ग) माण्डूक्योपनिषद् ७
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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन से तत्त्व को अवाच्य माना है । उन्होंने स्पष्ट | (३) सयंकतं परंकतं च दुक्खंति ? शब्दों में कहा है कि वस्तु चतुष्कोटि-विनिर्मुक्त | (४) असयंकारं अपरंकारं दुक्खंति ? है । इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता एक दो, तीन महाबीनकालीन तत्त्वचिन्तक संजयलद्विया चार पक्षों के निषेत्र पर खडी होती है । पुत्त के अज्ञानवाद में भी उक्त चार पक्षों की जहाँ पर तत्त्व न सत् हो सकता है, न असत् | उपलब्धि होती है। संजयवेलट्रिपुत्त इन प्रश्नों हो सकता है, न सत् और असत् उभयरूप हो का उत्तर न “ हाँ" में देता था और न "ना" सकता है, न अनुभय हो सकता (ये चारों पक्ष | में देता था । किसी भी विषय में उसका कुछ एक साथ हों या पुथक्-पृथक् हों) वहाँ पर / निश्चय नहीं था । बुद्ध के सामने जब इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता है । पक्ष के रूप में जो के प्रश्न आते तब वे अव्याकृत कह देते थे पर अवक्तव्यता है वह सापेक्ष अवक्तव्यता है।
संजय उनसे एक कदम आगे था । वह न 'हाँ' निरपेक्ष अवक्तव्यता वह हैं जहाँ पर तत्त्व को कहता, न 'ना' कहता, न अव्या कृत कहता, न सीधा वचन से अगम्य कहा जाता है।
व्याकृत कहता । किसी भी प्रकार का विशेषण ___बुद्ध के विभज्यवाद और अव्याकृतवाद में प्रयोग करने में उसे भय सा अनुभव होता था। भी उक्त चार पक्षों का उल्लेख मिलता है। वह किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता | नहीं करता था । वह संशयवादी था । जो स्थान आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है। | पाश्चात्य दर्शन में " ह्यूम' का है वही स्थान जैसे -
भारतीय दर्शन में संजय का है । ह्यूम का भी यह (१) होति तथागतो परं मरणाति ? मन्तव्य था कि हमारा ज्ञान निश्चित नहीं है (२) न होति तथागतो परं मरणाति ? इसलिए हम किसी अंतिम तत्त्व का निर्णय नहीं
(३) होति च न होति च तथागतो परं | कर सकते । सीमित अवस्था में कहते हुए सीमा मरणाति?
| के बाहर तत्त्व का निर्णय करना हमारी शक्ति से (४) नेव होति न न होति तथागतो परं । परे हैं। जिन प्रश्नों के विषय में संजय ने विक्षेपवादी
वृत्ति का परिचय दिया वे यह है । जैसे-४० उक्त अव्याकृत प्रश्नों के अतिरिक्त भी अन्य (१) परलोक है ? प्रश्न त्रिपिटक में ऐसे हैं, जो इन चार पक्षों को परलोक नहीं है ? ही सिद्ध करते हैं
परलोक है और नहीं हैं ? (१) सयंकतं दुक्खंति ?
न परलोक है और न नहीं है ? (२) परंकतं दुक्खंति ?
xxx ३८ संयुक्त निकाय ३९ संयुक्त निकाय
मरणाति ८
४० दीधनिकाय-सामअफलसुत्त ।
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७८ 1
(२) औपपातिक है ?
औपपातिक नहीं है ? औपपातिक है और नहीं हैं ? औपपातिक न है, न नहीं है ?
+
+
+
(३) सुकृत - दुष्कृत कर्म का फल है ? सुकृत - दुष्कृत कर्म का फल नहीं है ? सुकृत - दुष्कृत कर्म का फल हैं, नहीं है ? सुकृत- दुष्कृत कर्म का फल न है, न नहीं है ?
X
(४) मरणानंतर तथागत है !
X
तत्वज्ञान - स्मारिका
X
मरणानंतर तथागत नहीं है ? मरणानंतर तथागत है और नहीं है ? मरणानंतर तथागत न है और नहीं है ?
*
संजय के संशयवाद में और स्यादवाद में यह अन्तर है कि स्यादवाद निश्चयात्मक है किन्तु संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है । श्रमण भगवान महावीर प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपेक्षा की दृष्टि से निश्चित रूप से देते थे । उन्होंने कभी भी तथागत बुद्ध की तरह किसी प्रश्न को अव्याकृत कहकर टालने का प्रयास नहीं किया और न संजय की तरह अनिश्चित ही उत्तर दिया । स्मरण रखना चाहिए स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, न अज्ञानवाद है, न अस्थिर
वाद है, न विक्षेपवाद है - यह तो निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है ।
भगवान महावीर ने अपनी विशाल व तत्त्व-स्पर्शिनी दृष्टि से वस्तु के विराट् रूप को निहारकर कहा-वस्तु में चार पक्ष ही नहीं होते किन्तु प्रत्येक वस्तु में अनन्त पक्ष हैं, अनन्त विकल्प है, अनन्त धर्म है। प्रत्येक वस्तु अनन्त-धर्मात्मक है । इसलिए भगवान महावीर ने उक्त चतुष्कोटि से विलक्षण, वस्तु में रहे हुए प्रत्येक धर्म के लिए सप्तभंगी का वैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया और अनन्त धर्मों के लिए अनन्त सप्तभंगी का प्रतिपादन करके वस्तुबोध का सर्वग्राही रूप जन जनके सामने उपस्थित किया ।
भगवान महावीर से पूर्व उपनिषद - काल में वस्तु-तत्व के सदसद्वाद को लेकर विचारणा चल रही थी, किन्तु पूर्ण रूप से निर्णय नहीं हो सका था । संजय ने उन ज्वलन्त प्रश्नों को अज्ञात कहकर टालने का प्रयास किया । बुद्ध ने कितनी ही बातों में विभाज्यवाद का कथन करके अन्य बातों को अव्याकृत कह दिया किन्तु महावीर ने स्पष्ट उद्घोषणा की कि चिन्तन के क्षेत्र में किसी भी वस्तु को केवल अव्याकृत या अज्ञात कह देने से समाधान नहीं हो सकता । इसलिए उन्होंने अपनी तात्विक व तर्कमूलक दृष्टि से वस्तु के स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन किया । सप्तभंगीवाद, स्याद्वाद उसी का प्रतिफल है।
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ज्योतिष-विज्ञान
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ले. पं. गोविंद जीवनंदन झा
नर्मदाबाई ब्र० पाठशाला पाटण ( उ. गु.) heartedletestshtreetsettetn amestseedshoose thatthoksatehsheeb shchhtisectsabse hottestedehteenneeta
संस्कृत-वाङ्मय-शास्त्र में ज्योतिषशास्त्र | इन सात सदीयों में ज्योतिष के क्षेत्र में को विज्ञान का खजाना माना गया है-जिस में अनेक अन्वेषणात्मक और गवेषणात्मक रचनाओं दो विभाग है । गणित और फलित । की अवतारणा हुई।
इन दोनों में फलित विभाग का साहित्य, । सिद्धान्त संहिता और होरा पर हजारों " सागर जितना ही विशाल है " । रहस्यमय ग्रन्थ लिखे गये ।
ज्योतिषशास्त्र में प्राचीन महर्षियों और ___ जिन में से अधिकांश नष्ट हो गये, और युगद्रष्टा आचार्यों का संशोधनकार्य सराह
| कितने विदेशियों के हाथ में चले गये, जो आज नीय है।
भी लन्दन के इन्डिया ओफिस, में बर्लिन (जर्मनी)
| के पुस्तकालय में इसी तरह इण्डिया और यूरप जैसे कि आर्यभट्ट, वराह-मिहिर, श्रीधर
के विशाल पुस्तकालयों में पड़े हैं । स्वामी, केशव, मुंजाल, मकरन्द, भास्कराचार्य
भारत के विभिन्न भागों में ग्रह-नक्षत्रों के प्रभृति विद्वानों का नाम उल्लेखनीय है।
सूक्ष्म निरीक्षण के लिए वेधशालाओं का निर्माण इन्हीं विद्वानों का तपःपूत-साधनायुक्त | भी हुआ है। जीवन से तथा उन्ही आचार्यों के शिष्य--प्रशिष्यों जिन का अस्तित्व जयपुर-उज्जैन-काशी के द्वारा विकसित यह भारतीय विज्ञानशास्त्र । -दिल्ही-अहमदाबाद आदि स्थानों में देखने मनुष्यों के जीवन से इतना गहरा संबन्ध रखता | में आता है। है कि-जब समुदाय के जीवन की यात्रा में ज्योतिष विज्ञान हरेक इन्सान के जीवन क्रान्तिकारी फलों का समर्थन कर मानवजीवन | के साथ इतना ओतप्रोत और संलग्न है कि के विकास में ज्योतिषशास्त्र युगादिसे सहायक | विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश के लिए ज्योतिष विज्ञान बनता आ रहा है।
| महान् मार्गदर्शक सिद्ध होता आ रहा है। पांचवीं शताब्दी से वराह-मिहिर और । जिसके अनुसन्धान में गणित, संहिता, बारहवीं शताब्दी के समय तक भास्कराचार्यने । ज्योतिष, होरा प्रभृति द्वारा जातक के लिए ज्योतिषशास्त्र के लिए सुवर्णयुग बना दिया। 'फलादेश किया जाय तो ज्योतिष विज्ञान हर
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८.]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग बन जायगा के समस्त साधनों से वंचित कर दिया, साथ नहीं तो मनुष्यों का उपहास का पात्र बन ही देश की दासता से प्रताड़ित हुई मानसिक जायगा।
दुर्बलता का अनुचित लाभ उठाकर अनेक ज्योतिष खगोल, भूगोल, से लेकर जातक | रहस्यमय ग्रन्थों को कूटनीति द्वारा अपहरण कर प्रश्न, नष्ट जातक, वृष्टि, व्यापार की तेजीमन्दी, इस समृद्ध राष्ट्र को हर तरह से दीन-दरिद्र जमीन संशोधन, यात्रा, वस्तु, आरोग्यता, वैवा- | बना दिया । हिक जीवन में सुखदुःख और आर्थिक प्रगति | परिणाम स्वरूप हम आत्मविस्मृत होकर अवनति आदि अनेक समस्याओं को सुलझाने | परावलम्बी हो गये और अपनी विविध विद्याके लिए बड़ा सहायक और सचोट है। कलाकौशल के साथ साथ इस प्रत्यक्ष ज्योति
ज्योतिष विज्ञान एक अमूल्य दर्पण है। विज्ञान को भी भूल गये । जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान की स्पष्ट छाया । फलतः चन्द्रार्क-साक्षीवाला यह प्रत्यक्ष दिखाई देती है। दिखलानेवाला या फलादेश ज्योतिषशास्त्र मतभेद और विवाद का विषय करनेवाला अनुभवी और शास्त्रीय जानकार होना बन गया जिसका प्रत्यक्ष दर्शन विभिन्न पंचांगों ही चाहिए।
के रूप में होने लगा। अन्यथा इनके अनुशीलन-परिशीलन के | ऐसी परिस्थिति को देखकर अर्वाचीन विना ज्योतिषशास्त्र के रहस्य को न वह साक्षा- | विद्वानों का हृदय भर आया जिनमें पुलकित झा, त्कार कर सकता है न उसके ज्ञान का अन्तर्भेद | लोकमान्य तिलक, अप्पयस्वामी दीक्षित, सुधाकर भी प्राप्त कर सकता है।
द्विवेदी, केतकर, बापुदेव, आप्टे, मालवीयाजी ऐसी अपूर्ण स्थिति में शास्त्रज्ञों का फलादेश प्रभृति मनीषियों का नाम विशेष उल्लेखनीय है । मिथ्या प्रयुक्त ही सिद्ध होगा।
__इन विद्वानोंने शताब्दीयों से दासताग्रस्त ज्योतिषशास्त्र की अन्धकारावस्था अठा- दिङ्मूढ भारतीय मानस को ज्योतिषशास्त्र की रवीं-उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल में राजनैतिक | ओर आकर्षित करने की पूर्णरीति से सफल विप्लवों के कारण और छिन्नभिन्नता के | चेष्टा की। और वे बहुत अंशों तक सफल कारण आई।
भी हुए। वह काल ज्ञान-साधना की दृष्टि से अपने प्रचार में विद्वानों ने सद्बध सिद्ध अन्धकाराच्छन्न था ।
| गणित के साथ " ज्योतिषशास्त्र के संहिता होरा कारण यह था कि विजेता विदेशियों ने | प्रभृति अंगों का मूलाधार से परिशुद्ध हुए बिना देश को दासता को जंजीरों से बांध कर विज्ञान | फलनिर्देश उपहास मात्र सिद्ध होगा।
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ज्योतिष-विज्ञान
[ ८१ ऐसे विचारों के द्वारा आचार्यों ने ज्योतिष- ज्योतिषशास्त्र के बृहज्जातक बृहत्संहिता, शास्त्र के सम्यक् ज्ञान के लिए छात्रों को | सिद्धान्त, शिरोमणि, लीलावती, केतकी, मान"त्रिस्कन्ध-विद्याकुशलः' अर्थात् सिद्धान्त संहिता सागरी बीजगणित आदि ग्रन्थों में ज्योतिषशास्त्र और होरा के ज्ञान में कुशल होने का | के प्रायः सभी अंगों पर प्रकाश डाला गया है। आदेश दिया।
इस प्रकार से ज्योतिषशास्त्र भूत, भविष्य, यह प्रत्यक्ष सत्य है कि सृष्टि के आरंभ
वर्तमान कालिक जीवन, प्रगति, आपत्ति, आदि से इस अनन्त ज्योतिर्जगत् में भारतीय आचार्य,
सब तरह के फलादेशों से भरा ज्योतिषशास्त्र और ऋषि, मुनियों की सूझ ने ज्योतिष शास्त्र
अभूतपूर्व खजाना है। के तत्त्वों को गवेषणा विश्व के हित साधने के
वस्तु समर्थ, महर्ष, भूशोधन, जातक के लिए की।
जीवनयात्रा में फलादेश, वास्तु, देवप्रतिष्ठा,
शकुन, प्रभृति अनेक एसे खगोल, भूगोल, सूर्य, ___ यह शास्त्र भारतीय मानवीय-बुद्धिवैभव
चन्द्र आदि नक्षत्रों की गति से संबद्ध यह महाका चमत्कृत मूर्तरूप है।
| शास्त्र ज्योतिष-विज्ञान अतुलनीय और सराहभारतीय-विद्वानों ते कालपुरुष के शुभाशुभ नीय है । संकेत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस प्रत्यक्ष . इसी ज्योतिष शास्त्र के गणित-और फलित ज्योतिषशास्त्र का आधार लिया।
विभाग द्वारा परोक्ष वस्तु को प्रत्यक्ष करने में अनेक युगों तक शोध चलती रही जो
| ज्योतिष के विद्वान दैवज्ञ की उपाधि प्राप्त करते स्कन्धत्रय के रुप में हमारे समक्ष हैं।
हैं और वैसे करने में ज्योतिषी पर्याप्त शक्तिशाली
होते हैं। विविध मतान्तरों के वाद विश्वके निष्पक्ष
ज्योतिषशास्त्र की गंभीरता, रहस्यमय तत्त्व, विद्वान भी आज एक मत से स्वीकार कर लिए
और इसकी विशालता समस्त प्राणियों के लिए हैं कि-" ज्योतिषशास्त्र की गवेषणा का मूल
महान् हितकारी है। आचार्य वराहमिहिर क्षेत्र भारतीय विद्वानों का है।"
जैसे विद्वान पारंगत दैवज्ञ कहते हैं कियह सिद्धान्त वर्तमान युगमें निर्विवाद रूपसे ज्योतिषमागम-शास्त्रम् विप्रतिपत्तौ न योग्यमस्माकम् सिद्ध भी हो चुका है।
स्वयमेव विकल्पयितुम् किन्तु बहूनां मतं वक्ष्ये ।।
AINMISSIALATANAMAN
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वैज्ञानिकों की दृष्टिसे
सूर्य का परिवार ("सायन्स डायजेस्ट' में प्रकाशित लेखका अनुवाद )
सूर्य का परिवार है- ग्रह (तारे नहीं), धूम- सूर्य-परिक्रमा का पथ पृथ्वी के पथ से भी बाहर केतु व अन्य समूह, जो सूर्याकर्षण से प्रभावित | है । बहस्पति, शनि, युरेनस और वरुण विशाल सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं। इस परिवार | ग्रह कहलाते हैं, कारण कि वे पृथ्वी से ६४ का विधायक सूर्य स्वयं बड़ा विशाल है, अपने | गुने बड़े हैं। सारे पारिवारिक-जनों के मिले वजन से भी
बुध सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है हमारे ७५० गुना अधिक ।
८८ दिन में, और वह सूर्य से औसत ३ करोड़ सूर्य-परिवार के प्रमुख नौ सदस्य हैं।। ६० लाख मील दूर रहता है, अर्थात् पृथ्वी व ये नव ग्रह हैं, सूर्य से अपनी दूरी के अनुसार | सूर्य की दूरी का एक तिहाई ! सूर्य की इस क्रमशः बुध (मयुरी), शुक्र (वीनस) पृथ्वी, | समीपता के कारण बुध हमारी पृथ्वी से ९ गुना मंगल (मार्स ) बृहस्पति (जुपिटर), शनि | अधिक गरम होगा। इसका वही एक भाग (सैटर्न) युरेनस, वरुण (नेप्चून), यम (प्लूटो)।। सदैव सूर्य के सम्मुख रहता है । अर्थात् सम्मुबुध सूर्य के सर्वाधिक समीप है, तो प्लूटो | खीन भाग भयानक गरम और पृष्ठभाग भयानक सर्वाधिक दूर । नाप-तोल में बुध सबसे छोटा ठंडा । तापमान को प्रभावित करने के लिए है, अपनी इस पृथ्वी के एक तिहाई व्यास जितना | पृथ्वी की भांति बुध के चारों ओर वायु-मंडल ही। और सबसे बड़ा बृहस्पति है, जिसका | का सर्वथा अभाव है। व्यास अपनी पृथ्वी से ११ गुना अधिक है। शुक्र सूर्य से औसतन ६ करोड ७० लाख शनि का व्यास उससे थोड़ा कम अर्थात् पृथ्वी मील दर है और हमारी पृथ्वी से सर्वाधिक से साढे नौ गुना बड़ा है; पर उस डेढ़ गुने
समीप । यह घने बादलों के भरपूर वातावरण बड़ेपन के कारण ही बृहस्पति इतना विशाल है
से आवृत है। इसकी सतह को कोई कभी नहीं कि उसमें बाकी आठों ग्रह समा जायें।
| देख पाया है। फिर भी रेडियोज्योतिष के द्वारा बुध और शुक्र प्रायः अंतर्ग्रह कहलाते हैं। यह अनुमान किया गया है कि वह अपनी धुरी कारण कि वे पृथ्वी से भी सूर्य के समीप हैं। पर अपने एक वर्ष अर्थात् हमारे २२५ दिन में अन्य ग्रह बहिर्मेह कहलाते हैं, क्योंकि उनकी | एक बार घूमता है । यह पृथ्वी से थोड़ा-सा
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वैज्ञानिकों की दृष्टि से सूर्य का परिवार
ही छोटा है, इसलिए ये दोनों भाई-बहन कहलाते हैं । वहां की तेज गरमी के कारण प्राणियों के लिए प्राण वायु ( आक्सिजन ) व जलमय बाप है या नहीं, इसके संबंध में ज्योतिषियों व वैज्ञानिकों में दो मत हैं। जिस घने वातावरण से यह आवृत है, उससे अनुमान किया जाता है, गर्द के भयंकर तूफानों से उसकी सतह प्रताड़ित हो रही होगी ।
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I
पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक वर्ष में पूरी करती है, औसत ९ करोड़ ३० लाख मील की दूरी से । यों यह अपनी धुरी पर एक बार धूम लेती है एक दिन-रात - २४ घंटे में तीन सौ पैंसठ दिन से तनिक कम समय में यह सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है, और यह समय है इसका एक वर्ष । वर्ष को पूरे दिनों का मानने के लिए हर चौथे वर्ष फरवरी मास में एक दिन बढ़ाया जाता है । फिर भी परिक्रमा काल में चौथाई दिन पूरा नहीं लगता, इसलिए उन शताब्दी वर्षों में, जिनमें ४०० का भाग नहीं लगता (जैसे १७००, १८००, १९०० में) वह एक दिन नहीं बढ़ाया जाता । फिर भी हिसाब सही नहीं बैठता । अतएव ४०० से विभाजित हो सकने पर भी २००० की सन में एक दिन बढ़ाया जायेगा |
पृथ्वी पत्थर की एक गेंद के समान है, जिसके भीतर पिघली धातुएं समाविष्ट हैं इसका सात बटा दस भाग पानी से आवृत है । इसका वायुमंडल पूरित है नाइट्रोजन आक्सिजन, जलमय बाष्प, आरगोन, कारबन
[ ८३
डाइआक्साइड व अन्य गैसोंसे । ज्यों-ज्यों पृथ्वी से दूर होते जाइये, यह वायुमंडल पतला होता जायेगा । आकाश में छोड़े गये रोकेटों से पता लगा है कि दो हजार मोल की दूरी पर भी इस वायुमंडल के यत्किचित् लक्षण वर्तमान हैं।
पृथ्वी का अपना उपग्रह भी है - चंद्रमा । चंद्रमा के जन्म का पता नहीं । यह मान्यता रही है कि चंद्रमा पृथ्वी - पुत्र है, आदिकाल में उसमें से निकलकर अलग बना हुआ एक उपग्रह | कुछ ज्योतिषी यह मानते हैं कि यह एक अलग छोटा-सा ग्रह है, जो पांच करोड़ वर्ष पहले भटक गया और अपने भ्रमण में पृथ्वी के आकर्षण से पकड़कर उसके चारों और घूमने लगा ।
मंगल पृथ्वी के पश्चात् है, वह ६८७ दिन में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करता है, १४ करोड़ २० लाख मील की औसत दूरी से । इस नक्षत्र का व्यास पृथ्वी से आधे से भी थोड़ा कम है । यह अपनी धुरी पर साढे चौबीस घंटे में एक चक्कर लगाता है । पृथ्वी से ११ मील ऊंचाई पर जितना पतला वायुमंडल है, अनुमान किया जाता है, उतने पतले वायुमंडल से मंगल आवृत है । उसके वातावरण में आक्सिजन व जलयुक्त बाष्प होने का अनुमान लगाया गया है । वहां के आकाश में यदा-कदा बादल भी दिखाई देते हैं । अन्यथा वहां का आकाश सर्वांशतः सर्वदा स्वच्छ रहता है, जिससे वहां की सतह दिखाई देती रहती है ।
मंगल की सतह रंग में ललाई लिये है,
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तत्त्वज्ञान-स्मारिका बीच-बीच में भूरे व हरे रंग के भाग भी दिखाई । बादलों के बीच एक लाल रंग का विस्तृत अंडादेते हैं, जो वहां की 'ऋतु' के अनुसार छोटे- कार भाग है । वह क्या है, इसका कोई अनुबड़े होते हैं। इससे अनुमान किया जाता है, | मान नहीं लगाया जा सका है। वह वहां की वनस्पति की हरियाली है । मंगल
बृहस्पति का वायुमंडल अधिकांशतः गीले के दोनों ध्रव रंग में सफेद हैं; पर उस ग्रह पर । गैस व अमोनिया से पूरित होना चाहिए । वह पानी का जितना अभाव है, उससे वह सफेदी | आठ हजार मील ऊंचाई तक आच्छादित है । बर्फ नहीं हो सकती। फिर भी यह सफेदी | उसके नीचे शायद सत्रह हजार मील मोटी बर्फ सर्दियों में अधिक गरमियों में कम होती देखी
का रेगिस्तान है और उसके नीचे पत्थर का गयो है; इसलिए ज्योतिषियों का मत है कि वह
उसका भीतरी भाग । और वह होगा ३७ हजार 'पाला' होना चाहिये ।
मील व्यास का, अपनी पृथ्वी के व्यास से पांच ___ मंगल पर ऐसे भी भाग हैं, जिन्हें आपस | गुना अधिक । में जोड़ती सीधी, कभी टेढ़ी पतली काली रेखाएं बृहस्पति की गुरुत्वाकर्षण-शक्ति इतनी दिखाई दी हैं । इन्हें 'नहर' कहा जाता है। प्रबल है कि पृथ्वी पर का १८ पौंड का वजन पर वे जलवाहिनी नहरे नहीं हो सकतीं; क्योंकि | उस ग्रह पर ४२० पौंड वजन होगा । बृहमंगल पर जल का अभाव है । वे लकीरें ऐसी | पति के १२ उपग्रह हैं। प्राकृतिक दरारें होंगी, जैसी हमारी पृथ्वी पर बहस्पति के पश्चात् दूसरा सबसे बड़ा ग्रह नहीं देखने में आतीं । इस ग्रह के दो नन्हे उप- | है शनि । उसे सूर्य की परिक्रमा में साढे उनतीस ग्रह-चंद्रमा-भी हैं।
वर्ष लगते हैं और वह सूर्य से औसतन ८८ । बृहस्पति मंगल से परे दूसरा विशालकाय | करोड ७० लाख मील दूर रहता है । अपनी ग्रह है । ४८ करोड ४० लाख मील की औसत | धुरी पर यह साढ़े दस घंटे में एक चक्कर लगा दूरी से सूर्य की परिक्रमा में इसे १२ वर्ष लगते लेता है। इसके ध्रुव बहस्पति की अपेक्षा भी हैं। इतना बृहद्काय होकर भी यह ग्रह अपनी अधिक चपटे हैं । यह बहुत ही ठंडा ग्रह है । धुरी पर दस घंटे में एक चक्कर लगा लेता है। बृहस्पति की भांति इसका वायुमंडल भी विषाक्त इस चक्कर के कारण मध्यरेखा के समीप यह | गैसपूर्ण बादलों से पूरित है। फूले पेट के समान और ध्रुवों पर चपटा हो । सबसे महत्वपूर्ण अचरज की बात है इस गया है । इसके वातावरण में भी बादल दिखते | ग्रह के चारों ओर के छल्ले । एक के भीतर हैं; पर वे भी जल-विहीन हैं । बृहस्पति का | एक तीन चपटे छल्ले शनि ग्रह की मध्यरेखा के तापमान हिमांक से २०० डिग्री कम है, इसलिए वृत्त के चारों ओर घूमते रहते हैं । अनुमान वे बादल अमोनिया के कणों से बने होंगे । उन । किया जाता है कि वे छेल्ले अनगिनत छोटे
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वैशानकों की दृष्टि से सूर्य का परिवार पत्थरों, रजकणों या बर्फ के टुकड़ों से बने हैं, सबसे बाहर की ओर है; पर इसकी परिक्रमा जो नन्हे-नन्हे उपग्रहों की भांति छल्लों के रूप का मार्ग इतना अंडाकार है कि अधिकांशतः में शनि की परिक्रमा करते रहते हैं। सबसे बड़े सूर्य से दूरी इसकी ३ अरब ६७ करोड़ मील छल्ले का व्यास १ लाख ७० हजार मील है; होने पर भो यह वरुण से भी सूर्य के नजदीक पर ये छल्ले २० मील से ज्यादा मोटे नहीं । । चला जाता है । इसे सूर्य परिक्रमा करने में इन छल्लों के अतिरिक्त शनि के ९ उपग्रह हैं, | २४८३ वर्ष लगते हैं। ... जिनमें से एक-टाइटन-बुध से भी बड़ा है। । युरेनस सूर्य की परिक्रमा ८४ वर्ष में पूरी |
| सब ग्रह अपनी धुरियों पर चक्कर लगाते करता है-१ अरब ७८ करोड ३० लाख मील | हैं और सूर्य की परिक्रमा करते हैं । इन नवग्रहों की दूरी से । युरेनस के भी ५ उपग्रह हैं। के अतिरिक्त सूर्य ३ हजार क्षुद्र ग्रहों
वरुण १६५ वर्ष में सूर्य की एक परिक्रमा | (एस्टराय्ड) और कई हजार धूमकेतु व उल्कापूरी करता है २ अरब ८० करोड़ मील की दूरी |
समूहों का नियंत्रण भी करता है। से । इसके भी २ उपग्रह हैं।
प्लूटो बहुत ही छोटा ग्रह है, पृथ्वी के आधे । [हिन्दी नवनीत अगस्त १९६५ से साभार से भी छोटा । यह सूर्य-परिवार के ग्रहों में | उद्धृत ]
सत्य की व्याख्या नित-नये वैज्ञानिक-आविष्कारोंसे वर्तमान युग प्रगतिका ५ युग कहा जाता है, फिर भी वैज्ञानिक चकाचौंधमें अच्छे अच्छे
मनीषीलोक भी सत्यके दर्शनकी मूलभूत प्रणालिको भूल कर टूचका जाते हैं।
फलतः - बुद्धि और मनकी सीमा तक कीजाने वाली दौडके द्वारा है * होनेवाले सत्यका यत्किश्चित् या विकृत दर्शनको ही पूर्णसत्य " ८ माननेकी धृष्टताका उदय होता है ।
“सत्यं ह्यतीन्द्रियम् " किन्तु आप्त पुरुषों का यह बात - सत्यको इन्द्रिय-मन एवं बुद्धिसे पर बतलाती है, अतः "गंभीर भी ६ रहो" बोलनेकी जरूरत है। MAKICHIKICKR
HORROLORROR
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जैन साहित्य में भूगोल
डा. तेजसिंह गौड पीएच. डी. छोटा बझार उन्हेल (जि. उज्जैन म. प्र.)
S
___ भारत के जैन विद्वानों और विशेषकर | परिभ्रमण प्रकाश क्षेत्र परिमाण, प्रकाश संस्थान, जैनाचार्यों ने जहां जैन धर्म एवं दर्शन सम्बन्धी | उदय स्थिति, चन्द्रमा की कला, ज्योत्स्ना बृहत्-ग्रन्थों का सृजन किया, वहीं उन्होंने अन्य परिणाम, शीघ्रगतिनिर्णय, ज्योत्स्ना-लक्षण, विषयों से सम्बन्धित ग्रन्थों की भी रचना की। चन्द्र-सूर्य आदि की ऊँचाई की चर्चा की
जैनाचार्यों ने जो ग्रंथ लिखे हैं, उनमें | गई है। उनकी अपनी मान्यताएं हैं।
छट्ठा उपांग जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (जम्बूदीव इसी प्रकार इन आचार्यों ने भूगोल से | पण्णत्ति ) है । इसके दो भाग है (१) पूर्वार्द्ध सम्बन्धित साहित्य का भी सृजन किया । जिसमें | और (२) उत्तरार्ध । उनकी अपनी मान्यताएं दिखाई देती हैं। प्रथम भाग के चार परिच्छेदों में जम्बूद्वीप
इस प्रकार के ग्रंथों में उर्व, मध्य एवं अधो- और भरत क्षेत्र का तथा उसके पर्वतों, नदियों लोकों का, द्वीपसागरों का, क्षेत्रों, पर्वतों तथा | आदि का उल्लेख है । नदियों आदि का स्वरूप व परिमाण विस्तृत रूप से । सातवाँ उपांग चन्द्र प्रज्ञप्ति है । चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा गणित की प्रक्रियाओं के आधार से वर्णन (चन्दपण्णत्ति ) सूर्य प्रज्ञप्ति से भिन्न है । इसमें किया गया है। हम यहाँ जैनमान्यताओं की चर्चा | ज्योतिष-चक्र का वर्णन है । न कर केवल कुछ उन ग्रंथों का उल्लेख करेंगे । दिगम्बर परम्परा में इस विषय का प्रथम जिनमें भूगोल विषय की चर्चा की गई है। ग्रंथ लोकविभाग प्रतीत होता है। जो मूल रूप
जैनधर्म में बारह उपांग माने गये हैं। में तो उपलब्ध नहीं है। किन्तु सिंहसूरि कृत जिसमें से पांचवाँ उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरिय | संस्कृत-पद्यात्मक "लोकविभाग” में मिलता है। पण्णत्ति ) है । जिसमें २० पाहुड़ है, जिनके । यह मूल ग्रंथ अनुमानतः प्राकृत में ही अन्तर्गत १०८ सूत्रों में सूर्य, चन्द्र व नक्षत्रों | रहा होगा। की गतियों का विस्तृत वर्णन है ।।
। आ. कुन्दकुन्द कृत नियमसार की १७वीं इस ग्रंथ में मंडल गति, संख्या, सूर्य का | गाथा में जो "लोय विभागे सुणादर' रूप से
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जैन साहिय में भूगोल उल्लेख किया गया है उसमें सम्भव है सर्वनंदि६ व्यन्तर लोक, ७ ज्योति लोक, ८ देव लोक, कृत लोक विभाग का उल्लेख हो।
९ सिद्ध लोक । ग्रन्थ में ५६७७ गाथाएँ हैं। तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रंथ में लोक विभाग इस प्रन्थ के कर्ता यतिवृषभाचार्य हैं, जो का अनेक बार उल्लेख किया गया है। कषायप्राभृत की चूर्णि के लेखक से अभिन्न
सिंहसूरि ने यह भी लिखा है कि उन्होंने । ज्ञात होते हैं । अपना यह रूपांतर उक्त ग्रंथ से संक्षेप में त्रिलोकसार किया है।
इसके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त--चक्रवर्ती है। रचना जिस रूप में प्राप्त हुई है, उसमें
यह ग्रन्थ १०१८ प्राकृत गाथाओं में पूरा २२३० श्लोक हैं और वह जम्बूद्वीप, लवण |
| हुआ है । इसमें लोकसामान्य, भवन, व्यन्तर, समुद्र, मानुष क्षेत्र, द्वीप समुद्र, काल ज्योतिर्लोक,
ज्योतिष वैमानिक और नर-तिर्यक् लोक ये छ भवनवासी लोक, अधोलोक, व्यन्तर लोक, स्वर्ग
अधिकार पाये जाते हैं। लोक और मोक्ष इन ग्यारह विभागों में
त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार ही संक्षिप्त में विभाजित है।
विषम वर्णन किया गया है। इसका रचनाकाल ग्रंथ में कहीं-कहीं तिलोयपण्णत्ति, आदि- |
ई० ११वीं शताब्दी हैं। पुराण, त्रिलोक सार, एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथों के अवतरण या उल्लेख पाये जाते हैं, | जम्बूदीवपण्णत्ति जिसके आधार पर यह अनुमान किया जा इसके रचयिता पद्मनन्दि मुनि है। सकता है कि इस ग्रंथ की रचना ११वीं शताब्दी
इसमें २३८९ प्राकृत गाथाएँ हैं और के पश्चात हुई हैं।
इसकी रचना तिलोयपण्णत्ति के आधार पर की तिलोयपण्णत्ति
त्रैलोक्य सम्बन्धी समस्त विषयों को पूर्णतः __इसका समय १०वीं शताब्दी है और और सुव्यवस्थित रूप से प्रतिपादित करने वाला | रचना कोटा राज्य के बारां नामक स्थान पर उपलब्ध प्राचीनतम ग्रंथ है।
की गई । इस ग्रंथ की रचना प्राकृत गाथाओं में | इसके तेरह उद्देश्य इस प्रकार हैं-१ उपोद
घात २ भरत-एरावत वर्ष ३ शैलनन्दीभोगग्रंथ नौ मताधिकारों में विभाजित है, यथा | भूमि ४ सुदर्शन मेरु ५ मंदिर जिनभवन ६ १ सामान्य लोक, २ नारक लोक, ३ भवन- | देवोत्तर कुरु ७ कक्षा विजय ८ पूर्व विदेह ९ वासी लोक, ४ मनुष्य लोक, ५ तिर्यक् लोक, | अपर विदेह १० लवण समुद्र ११ द्वीप सागर
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८८ ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका अधः उर्ध्व सिद्ध लोक १२ ज्योतिर्लोक और इसमें ९०० गाथाओं द्वारा कर्मभूमि, भोग१३ प्रमाण परिच्छेद ।
| भूमि, आये-अनार्य देश, राजधानियां, तीर्थंकरों श्वेताम्बर परम्परा में इस विषयक आग- | के पूर्वमत, माता-पिता, स्वप्न, जन्म आदि एवं मान्तर्गत सूर्य, चन्द्र व जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तियों के | समवसरण, गणधर, अष्टमहाप्रातिहार्य, कल्कि, अतिरिक्त क्षेत्रसमास एवं संग्रहणी उल्लेखनीय है। शक व विक्रम काल गणना दश निन्हव, ८४ इन दोनों ही रचनाओं के परिमाण में क्रमशः | लाख योनियों व सिद्ध इस प्रकार नाना विषयों बहुत परिवर्द्धन हुआ है और उनके लघु और | का वर्णन है । इस ग्रंथ पर आ. माणिक्य सागर बृहद् रूप संस्करण टीकाकारों ने प्रस्तुत की है। | सूरि कृत संस्कृत छाया उपलब्ध है। बृहत्क्षेत्रसमास
लोकविन्दु क्षेत्रसमास वृत्ति ___ इसमें ६५६ गाथाएँ हैं जो पांच अधि- इसके रचयिता आ. हरिभद्रसूरि हैं और कारों में इस प्रकार विभक्त है। १ जम्बूद्वीप | समय ८वीं शताब्दी है। २ लवणोदधि ३ धातकीखण्ड ४ कालोदधि और
| क्षेत्रसमास वृत्ति ५ पुष्कराई । बृहत् संग्रहणी जिसका दूसरा नाम त्रैलो
पूर्व में इन नाम के ग्रंथ का उल्लेख किया क्य दीपिका है।
चुका है । प्रस्तुत ग्रंथ उससे भिन्न लेखक विजयइसके संकलनकर्ता मलधारी आ. हेमचन्द्र
सिंह द्वारा लिखित है। सूरि के शिष्य आ. चन्द्रसूरि है । जिनका समय |
जो कि १४वीं शताब्दी में पाली (राज१२वीं शताब्दी है।
स्थान ) में लिखा गया था । ____ इस ग्रंथ में ३ ४९ गाथाएं हैं। इसमें लोकों
चन्द्रविजय प्रबन्ध की अपेक्षा उनमें रहने वाले जीवों का ही अधिक
ग्रंथ के रचयिता का नाम मंडन है । जो विस्तार से वर्णन किया गया है।
| कि मालवा के सुलतान होशंग गोरीका प्रधानलघुक्षेत्रसमास
मंत्री था । इसके रचयिता आ. रत्नशेखरसूरि हैं। जिनका समय १४वीं शताब्दी है। इसमें कुल
इसी कारण लेखक मंत्री मंडन के नाम से ४८९ गाथाएं हैं । इनमें अढ़ाई द्वीप प्रमाण
प्रख्यात है। मनुष्य लोक का वर्णन है।
इस ग्रंथ की रचना तिथि सं. १५०४ है। विचारसार प्रकरण
इस ग्रंथ में चन्द्रमा की कलाएँ, सूर्य के साथ .. रचनाकार आ. देवसूरि के शिष्य आ. | चन्द्रमा का युद्ध और अन्त में चन्द्रमा की विजय प्रद्युम्नसूरि हैं । समय. १३वीं शताब्दी है। | आदि का वर्णन दिया गया है।
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जैन साहित्य में भूगोल
[८९ नम्बूद्वीप-प्रज्ञप्तिका
। संस्कृत और अपभ्रंश के पुराणों में जैसे इसके रचयिता पुण्यसागर महोपाध्याय हैं, हरिवंश पुराण, महापुराण, त्रिषष्टिशलाका पुरुष स ग्रन्थ की रचना ई० १५८८ जैसलमेर में चरित्र, चउपण्णमहापुरिस यदिगुणालंकार में की थी।
भी त्रैलोक्य का वर्णन पाया जाता है । म्बूिद्वीपप्रज्ञप्ति-टीका क्षेमेन्द्रकीर्ति के शिष्य सुरेन्द्रकीर्ति ने सन्
विशेषकर जिनसेनकृत संस्कृत हरिवंश ७७६ में संस्कृत में लिखी थी।
पुराण (८वीं शताब्दी) इसके लिये प्राचीनता ये कुछ प्रारम्भिक स्फुट ग्रन्थ हैं, जिनमें और-विषय विस्तार की दृष्टि से उल्लेखनीय है । गोल-सम्बन्धी मान्यताओं का उल्लेख विस्तार
हरिवंश-पुराण के ४थे से सातवें सर्ग तक किया गया है।
इसके अतिरिक्त ज्योतिष के अन्यों में भी क्रमशः अधोलोक, तिर्यग्लोक, और उर्ध्वलोक गोल-विषय से सम्बन्धित जानकारी उपलब्ध और काल का विशद् वर्णन किया गया है, जो ती है।
प्रायः तिलोय पण्णत्ति से साम्य रखता है। PECTERISRAERASANSAR
तत्त्वज्ञान की गंभीरता
@RECORRECRACHA
इन्द्रिय-मन एवं बुद्धि से समझे जाने वाले पदार्थों के पेले ॐ पार आत्म तत्त्व की संवेदना पूर्वक वस्तु-स्वरूप का निर्णय ४ तत्त्वज्ञान की आधारशिला है।
उसमें इन्द्रिय, बुद्धि मन का सहयोग है, परंतु ये तीनों ५ 2 सीमित होने से तत्त्वज्ञान का प्रतिपाद्य अतीन्द्रिय स्वरूप का ६ निर्णय करने में समर्थ नही ।
अतः विनीतभाव से आत्म-समर्पण पूर्वक गुरु-चरणों में से बैठकर बडी निष्ठा-गंभीरता के साथ तत्त्वज्ञान के हार्द को % पाने की चेष्टा करना विवेकी जनों का पवित्र कर्त्तव्य है।
SASARAS
MORENVIRORAKAM
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सुख-मीमांसा कर
AR
SHRJ लेखक : परमपूज्य अध्यात्मयोगी पंन्यास SER/
प्रवर श्री भद्रंकर विजयजी
गणिवर्य के शिष्य मुनि रत्नसेनविजय
- OMGORRUCRI-NCREACROCHAKADHARASHTRA दुःखद्विद सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । समस्या बडी ही जटिल है ! इच्छा और यां यां करोति चेष्टां, तया तया दुःखमादत्ते ॥ | प्रयत्न का सुमेल होने पर भी सफलता क्यों नहीं ?
प्रशमरति गाथा सं. ४० | बस ! इसी बात का समाधान हमें प्रशमरतिकार अर्थ :--मोह के अन्धत्व के कारण गुण और | उमास्वातिजी म. करते हैं, वे कहते हैं किदोष को नहीं जानने वाला, दुःख का द्वेषी और | संसारी जीव ज्यों ज्यों सुख के लिए प्रयत्न करता सुख का प्रेमी जीव ज्यों ज्यों प्रवृत्ति करता हैं, । है, त्यों त्यों दुःख को ही प्राप्त करता है, क्यों त्यों त्यों दुःखको ही प्राप्त करता हैं. कि वह मोह से अंध होने के कारण वस्तु के
इस विशाल जगत में रहे हुए समस्त गुण-दोषों से अनभिज्ञ हैं। प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, मौह अर्थात् बुद्धि का विपर्यास-मिथ्यामति इस विषय में किसी भी दर्शनकार अथवा व्यक्ति अथवा अज्ञानता ! को भापत्ति नहीं हैं ! मात्र सुख की इच्छा हैं, बुद्धि के विपर्यास के कारण व्यक्ति, गुणीइतना ही नहीं, परन्तु जीव मात्र का प्रयत्न भी जन के गुण नहीं देख सकता हैं और अवगुणी सुख के लिए ही होता है । सुख का राग और
के दोष को भी नहीं पहचान सकता है ! दुःख का द्वेष त्राणीमात्र में देखने को मिलता है।
अर्थात् गुण में दोष का तथा दोष में गुण का सुख की तीव्र इच्छा और सुख के लिए आरोपण करता है, और इस विपर्यास के कारण अथाग प्रयत्न होने पर भी जगत में सुखो व्यक्ति
उसकी प्रवृत्ति दुःखदायी ही बनती हैं। कितने देखने को मिलते है ? तियेचों को जाने
जैसे उदाहरण के तौर पर अहमदाबाद
निवासी श्री राम को बम्बई जाने की इच्छा है, दें, मनुष्य की ही बात करें ! मनुष्य में दिखने
वह स्टेशन पर आकर बम्बई की टिकिट खरीद वाले अमीर-गरीब, राजा-नौकर, डॉक्टर-रोगी,
कर, अपनी अज्ञानता के कारण दिल्ली की ओर वकील-बेरिस्टर तथा शिक्षक-विद्यार्थी आदि । जाने वाली गाड़ी में बैठ जाता है । गाडी अपनी किसी को भी पूछेगे तो वास्तविक जवाब यही तीव्र गति से आगे बढती है। परन्तु क्या श्रीराम मिलेगा कि 'मैं दुःखी हूँ !' सभी के पास सम- बम्बई पहँच जायेगा ? कदापि नहीं ! यह बात स्याएँ हैं, परन्तु समाधान किसी के पास नहीं! तो छोटा सा बालक भी समझ सकता है।
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सुख मीमांसा? अतः सफलता का आधार मात्र 'इच्छा अनंतज्ञानी तीर्थकर परमात्मा फरमाते हैं और प्रयत्न' ही नहीं हैं, परन्तु इसके साथ ही | हैं कि अनुकूल जड-पदार्थ के संयोग में सुख वह प्रयत्न सम्यग् भी होना आवश्यक हैं। मानना यही संसारी जीव की घोर अज्ञानता ___बस ! इसी बात को हमें समझने का है, । है । क्योंकि सुख यह आत्मा का धर्म है-जड़ सुख की इच्छा है, सुख के लिए प्रयत्न भी हैं, का नहीं ! जिस वस्तु में जो धर्म अथवा स्वभाव अब मार्ग का भी सम्यग् होना आवश्यक है। होता है, उस धर्म अथवा स्वभाव का अनुभव
ज्ञानी पुरुषोंने सुख के तीन लक्षण बताये हैं- हमें उसी वस्तु से संभव है-अन्य वस्तु से नहीं ! (१) शाश्वत (२) निरपेक्ष अर्थात् स्वाधीन और जल में शीतलता का धर्म है और अग्नि में (३) अनंत और अव्याबाध !
उष्णता का ! अतः यदि आपको शीतलता का उपरोक्त तीन विशेषणों से युक्त सुख को
अनुभव करना हो तो पानी में हाथ डालना ही ज्ञानियोंने वास्तविक सुख कहा है । दुनियाँ ।
चाहिये, अग्नि में नहीं ! अग्नि में नहीं रहे हुए में रहे किसी भी बुद्धिमान पुरुष को पूछा जायेगा
शीतत्व धर्म की प्राप्ति, यदि कोई अग्नि से प्राप्त तो वह इसी प्रकार के सुख को चाहेगा !
करना चाहे, तो वह व्यक्ति मूर्ख-शिरोमणि इस प्रकार के सुख की इच्छा होने पर भी
ही कहलायेगा ! संसारी जीव का प्रयत्न क्या होता है ? वह भी
तैल की प्राप्ति मूंगफली के दानों के पीसने हम देख लें। ___ मोह की अंधता के कारण संसारी जीव
से हो सकती है, परन्तु मूंगफली के छिलकों को
पीसने से नहीं । अर्थ तथा काम की पूर्ति में ही सुख की कल्पना करता है ! इन्द्रियों के वैषयिक सुख (जिसे
उपरोक्त दृष्टांत द्वारा ज्ञानी भगवंत हमें यही ज्ञानियों ने दुःख रूप कहा है) में ही वह सुख
| समझाते हैं कि सुख की प्राप्ति आत्मा से ही हो की कल्पना करके उसी की प्राप्ति के लिए वह
सकती है, जड़ से नहीं । जड स्वयं अचेतन हैं, आकाश-पाताल एक करता है । धन की प्राप्ति
अतः उसके धर्म अन्य हैं, परन्तु सुख देने का
धर्म जड में नहीं हैं। के लिए वह तन-तोड महेनत करता है और उसके फल स्वरूप रसवती भोजन, सुगंधी पुष्पों
शरीर, इन्द्रिय तथा आहार आदि जड की सुगंध, रूपवती स्त्री का रूप-दर्शन, मधुर पदार्थ हैं, उनमें से सुख-प्राप्ति की इच्छा यही व कर्णप्रिय संगीत और मैथुन-सेवन में ही वह अपनी अज्ञानता हैं । अनंतज्ञानी-महापुरुषों ने सर्वस्व सुख मान बैठता है ! अनुकूल विषय की
| वैषयिक-सुख को दुःख रूप ही माना है, क्योंकि प्राप्ति होने पर राग करता है और प्रतिकूल
वह सुख (१) क्षणिक हैं, (२) सापेक्ष अथवा विषय मिलने पर द्वेष करता है । विषय के संग
पराधीन हैं और (३) अल्प और बाधायुक्त हैं । में आनंद अनुभव करता है और उसके विरह में | (१) जड पदार्थ क्षण-भंगुर हैं अर्थात् प्रतिअत्यंत दुःख को अनुभवता है ।
क्षण उनमें परिवर्तन होता ही रहता है ! नवीन
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वस्तु में रूप-रस- गंध तथा स्पर्श आदि सानुकूल होने से वह वस्तु अपने को सुखदायी लगती है परन्तु समय के परिवर्तन के साथ उस वस्तु के रूप - रसादि में न्यूनता आती है, तब वही वस्तु अपने लिए दुःखदायी बन जाती है, अतः स्पष्ट हो जाता है कि वैषयिक सुख क्षणिक हैं । (२) वैषयिक सुख सापेक्ष और पराधीन भी है। आपको मधुरता का अनुभव करना होगा तो ईख के रस की अपेक्षा रखनी पडेगी और इसके साथ ही उस अनुकूल वस्तु की प्राप्ति भी पुण्य के आधीन हैं । पुण्य का Balance होगा, तब तो विषयानुकूल सामग्री मिल जायेगी, परन्तु ज्यों ही पुण्य क्षीण होगा, त्यों ही हताशा ही हाथ लगेगी ।
तत्त्वज्ञान - स्मारिका
विचार करें कि उसका यह विकास किस दिशा में है ? ज्यों ज्यों भौतिकता के साधन बढते जा रहे हैं, त्यों त्यों मानव समाज पराधीनता के सिकंजे में जकडा जा रहा है । भौतिक सुखसमृद्धि मानव को कभी तृप्त नहीं कर सकती है, क्योंकि उसका स्वभाव ही क्षण-भंगुर है ।
क्षणभंगुर सुख के लिए विज्ञान का यह अथाग प्रयत्न ! अब हम इसे विकास कहें अथवा विनाश कहें ? यही प्रश्न खडा हो जाता है ! विज्ञान भौतिकता के विकास में सुख की कल्पना करता है, यही उसकी भ्रांति है ।
सुख आत्मा का धर्म है, आत्मा का स्वभाव है। आत्मा अजर और अमर है । सर्व कर्मों से मुक्त आत्मा शाश्वत, निरपेक्ष- स्वाधीन और अनंत सुख का अनुभव करती है ।
(३) वैषयिक सुख अल्प और बाधायुक्त है । विषय के भोग में क्षणभर के लिए आनंद अनुभव होता है और विषय-भोग के बाद भी सदा अतृप्ति ही रहती है । इतना ही नहीं वैषयिक - सुख प्रारम्भ में आनंद देता है, परन्तु उसके परिणाम अति कटु हैं। विषय-राग के कारण आत्मा इस प्रकार के गाढ कर्मों का बंध करती हैं कि जिसके फल स्वरूप आत्मा दीर्घ काल तक भयंकर दुःखों का ही अनुभव करती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि वैषयिक - सुख वास्तव में सुख रूप नहीं है ।
क्या इस सुख को प्राप्त करने की इच्छा है ? तो अपने हृदय मंदिर में कषायों के दाह का शमन करो, विषय - विराग की शीतलता प्रगट करो । सम्यग् - दर्शन से मिथ्यात्व रूपी कचरे को दूर करो, सम्यग्ज्ञान के दीप को प्रज्वलित करो, मैत्री आदि भावनाओं से अपने मन को भावित करो और सम्यग् चारित्र का बराबर पालन करो ।
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आज का विज्ञान मानव समाज के कल्याण के नाम पर दिन-प्रतिदिन नये नये आविष्कार कर रहा है । भौतिकता के प्रत्येक क्षेत्र में वह आगे बढ रहा है, परन्तु इतना होने पर भी
उपरोक्त प्रभु - आज्ञा के पालन से आत्मा अवश्य निर्मल बनेगी ! आत्मा के प्रशम-भाव के सुख का साक्षात्कार होगा और क्रमशः आत्मा सर्व कर्मों से मुक्त बनकर शाश्वत - निरपेक्ष स्वाधीन - अव्याबाध और अनंत सुख की भोक्ता बनेगी।
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भावना वर्गीकरण लेखक-पं. रमेशमुनि शास्त्री
प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-मन, वचन, बार-बार चिन्तन को एक विषय पर और काया ।
केन्द्रित करके, अर्थात् यों कहा जा सकता है ___ कभी प्रवृत्ति-स्रोत शुभ की ओर प्रवहमान | किसी एक वस्तु को केन्द्र बनाकर उस का पुनः होता है और कभी अशुभ की ओर भी। | पुनः चिन्तन करना।
भावना ही प्रवृत्ति स्रोत को शुभ-अशुभ यही स्थिति "ध्यान" की बनती है । की ओर मोड देनेवाली है । इस के द्वारा ही अतः स्पष्ट है कि भावना का अग्रिम रूप कार्य की प्रवृत्ति होती है। तथ्य यह है कि । ध्यान है। भावना जीवन के प्रत्येक मोड पर प्रहरी के रूप इसी लिये आगम के अतिरिक्त भावना के में खडी रहती है।
स्थान पर "अनुप्रेक्षा" शब्द का प्रयोग देखा ___ आगम-साहित्य में भावना के स्थान पर गया है। अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग भी प्राप्त होता है।
भाव शब्द से "भावना" की निष्पत्ति हुई वहाँ अनुप्रेक्षा का अर्थ व्यक्त करते कहा है। भाव का अर्थ है-चित्त का अभिप्राय । गया है कि
अन्तःकरण की परिणति-विशेष विचार अथवा ईक्षा का अर्थ दृष्टि अथवा देखना, इस अभिप्राय जब-जब भी मन में बार-बार उठने के पूर्व प्र उपसर्ग लगने पर अर्थ हुआ गहराई । लगते है, रमने लगते हैं तब वह भाव अर्थात् से किसी वस्तु पर चिन्तन करना।
भावना का रूप धारण करता है यह भावना ___ जब चिन्तन आत्मा आदि उदात्त विषयों | शब्द चिन्तन, अध्यवसाय वासना और संस्कार के सम्बन्ध में चलता है, तब उसको अनुप्रेक्षा
| आदि के रूप में भी व्यवहृत हुआ है। कहा जाता है। अनुप्रेक्षा का एक अर्थ यह भी किसी भी विषय का मनोयोग पूर्वक चिन्तन उपयुक्त है कि
करना भावना है। चिन्तन करते करते वहीं १-क स्थानाङ्ग ४।१। ख-उत्तराध्ययन सूत्र-२९।२२। २-तत्त्वार्थ सूत्र ९७। ३-आचारांग टीका श्रत० १ अ० २ ऊ० ५ । ४-सूत्रकृतांग टीका अ० १ अ० १५ । ५-क अभिधान राजेन्द्र कोष भाग-५ पृ. ३९७ । ख आचारांग अ० १ अ० ८ ऊ. ६ टीका ।
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९४ ]
संस्कार रूप बन जायेंगे, बद्धमूल हो जायेंगे, इसलिये यह कहना सर्वथा संगत होगा कि भावना एक प्रकार का संस्कार है, वासना हैं, अध्यवसाय है ।
यह भावना पूर्वकृत - अभ्यास के द्वारा बनती है । अभ्यास ही धीरे-धीरे भावना के रूप में परिणत होता है
संक्षेप में भावना के दो प्रकार प्रतिपादित हैं: शुभ- भावना और अशुभ- भावना |
आगमीय भाषा में इन्हें असंक्लिष्ट भावना और संक्लिष्ट भावना भी कहा गया है । अशुभ भावना
तवज्ञान- स्मारिका
अशुभ भावना जो कि सर्वतोभावेन हेय है । उस के नौ और पाँच भेदों का वर्णन मिलता हैं। नौ भेद इस प्रकार हैं
९ हिंसानुबन्धी भावना
२ मृषानुबन्धी भावना
३ स्तेयानुबन्धी भावना ४ मैथुन सम्बन्धी भावना
६ लोभानुबन्धी भावना |
५ परिग्रह सम्बन्धी भावना
७ क्रोधानुबन्धी भावना
८ मानानुबन्धी भावना
९ मायानुबन्धी भावना
ये भावनायें अव्रत एवं कषाय से सम्बन्धित है, यदि कोई भी इन अप्रशस्त भावना का आचरण करता है तो वह अपनी आत्मा को दूषित है।
इतना ही नहीं इन अनुसार देव - दुर्गति को वहां से व्यवकर अनन्त करता है ।
अशुभ- भावना के पाँच भेद ओर भी है। जिन का प्रतिपादन आगमों एवं उत्तरवर्ती साहित्य में इतनी गहराई में उतरकर किया गया है कि देखते ही बनता है, उनका पर्यालोचन करने पर भावना - विषयक चित्र सुस्पष्ट हो जाता है । पाँच अशुभ- भावनाएं इस प्रकार हैं"
१ कंदर्पी भावना २ – किल्बिषी भावना ३ - अभियोगी भावना ४ - आसुरी भावना ५सम्मोही भावना |
६ - हरिभद्र का ध्यान शतक ३० ।
१०
८- बृहत्कल्प भाष्य ९- बृहत्कल्प भाष्य-गाथा १३२७ । बृहत्कल्प भाष्य, भाग-२ गाथा १२९३ । ग- भगवती आराधना मूल १७९ । ३६९ ॥ ११- क- स्थानाङ्ग सूत्र ४।३.४ सूत्र ३५४
मलिन - भावनाओं के प्राप्त होता है और भव - सागर में पर्यटन
आगम - साहित्य में कहीं-कहीं चार चार भावनाओं का काफी - विस्तार के साथ विवेचन मिलता है और उनके अवान्तर भेदों का भी वर्णन प्राप्त होता है । चार भावनाओं का उल्लेख इस प्रकार है"१ - कन्दर्प भावना
२ - आभियोगी भावना
३- किल्बिषी भावना ।
४ - आसुरी भावना |
७ - बृहत्कल्प भाष्य भाग-२ गाथा १२९० वृत्ति ।
ख- मूलाचार गाथा - ६३ । घ- ज्ञानार्णव ४१४१
ख - उत्तराध्ययन सूत्र ३६ | गाथा २६१ से २६४ ।
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भावना वर्गीकरण यह एक ज्ञातव्य तथ्य है कि आगमों में पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का जहाँ चार प्रकार की भावनाओं का वर्णन | काफी विस्तृत वर्णन भी मिलता है । मिलता हैं, वहाँ भेदों की समानता में अन्तर हम उनकी विस्तार से विचार चर्चा प्रस्तुत नहीं है पर उनके नाम और क्रम में कुछ
| नहीं करेंगे । यहाँ तो इनका नामग्राही परिचय भेद भी है।
देना ही अभीष्ट-कार्य है । ये अशुभ भावनायें आत्मा को पतन की
प्रथम-महाव्रत की पांच भावनायेंओर ले जाती है। इनसे मन दूषित एवं अशान्त
१ ईर्या समिति रहता हैं,
२ मनपरिज्ञा ___अतः ये हेय हैं। जो इनका आचरण करता
३ वचनपरिज्ञा हैं वह अपने अन्तःकरण रूप मंदिर को सजाता
४ आदान-निक्षेप-समिति नहीं हैं, संवारता भी नहीं है।
५ आलोकित-पानभोजन शुभ-भावना
द्वितीय महावत की पांच भावनायेंभागमों तथा आगमोत्तर-साहित्य में शुभ
१ अनुवीचि भाषण भावना के सन्दर्भ में बहुत ही विस्तार के साथ
२ क्रोध प्रत्याख्यान विवेचन-विश्लेषण उपलब्ध होता है, शुभ भाव
३ लोभ प्रत्याख्यान नाओं के द्वारा व्रतों के परिपालना में अविचलता
४ अभय प्रत्याख्यान आती है। ज्योतिर्मयप्रभु महावीर ने अति
५ हास्य प्रत्याख्यान स्पष्ट शब्दों में कहा है कि"जो श्रमण पाँच महाव्रतों की पच्चीस
तृतीय महाव्रत की पाँच भावनायेंभावनाओं में निरन्तर यत्नशील रहता है, मनो
१.-अनुवीचि मितावग्रह याचन योगपूर्वक उन का चिन्तन-मनन करता है, उस २-अनुज्ञापित-पानभोजन को संसार में परिभ्रमण भी नहीं करना
३-अवग्रह का अवधारण पड़ता है।"
४-अभीक्ष्ण अवग्रह-याचन
५-साधर्मिक के पास से अवग्रह-याचन ___पंच महाव्रत रूप चारित्र से सम्बधित होने के कारण इन भावनाओं को चारित्र-भावना चतुर्थ महाव्रत की पॉच भावनायेंभी कहा जा सकता है,
१-स्त्रीकथा का वर्जन १२-तत्त्वार्थ सूत्र ७।३। १३-उत्तराध्ययन ३१॥१७॥ १४-क-आचारांग-भावना अध्ययन ख-समवायांग समवाय २५ वाँ
ग-प्रश्न व्याकरण सूत्र संवर द्वार अध्ययन ६ से १० तक । घ-तत्त्वार्थ सूत्र ७३।
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९६ ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका २-स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग का अवलो- की पच्चीश-भावनाओं का जो वर्णन आता है कन-वर्जन
वह भी अत्यधिक विस्तार के साथ भावपूर्ण है ३-पूर्वभुक्त-भोग की स्मृति का वर्जन अत्यन्त-सरस और जीवनस्पर्शी है । ४--अतिमात्र प्रणीत पान-भोजन का वर्जन इस संन्दर्भ में यह भी जानने जैसा तथ्य
५-स्त्री आदि संसक्त शय्यासन का वर्जन। | है कि कहीं-कहीं नामभेद और कहीं-कहीं पंचम महाव्रत की पाँच भावनायें
शब्द-शैली का भेद भी दिखाई देता है," फिर १-मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव ! | भी पच्चीश भावनाओं के स्वरूप के विषय में २-मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव ! सर्वत्र समानता का संदर्शन होता है । ३–मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव ! अतिसंक्षिप्त-शैली में भावना के वर्गीकृत४-मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव ! | रूप का परिचय दिया गया है । ५-मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव ! इस सम्बन्ध में जैन-साहित्य के प्रकाश में
यह सच है कि आगम-साहित्य भावना जितना गहरा और अति-सूक्ष्म विचार करने के विषय में कुछ शाब्दिक-भेद अवश्य है, कहीं | पर एक शोधात्मक-दृष्टि लिये हुये ग्रन्थ का -कहीं क्रम की भिन्नता भी परिलक्षित होती है, प्रणयन भी हो सकता है । किन्तु भावना के रूप-स्वरूप, प्रकार-परिवार मेरा इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह मत आदि के विषय में प्रतिपाद्य-सम्बन्धी कोई है कि “जैन-मनीषियोंने 'भावना' के सन्दर्भ अन्तर नहीं है !
में जितना विचार-चिन्तन किया है, व्यापक और यह एक ज्ञातव्य तथ्य है कि आगम- | सूक्ष्मदृष्टि से भावना-योग का वर्णन किया है साहित्य के उत्तरकालीन वाङ्मय में भी चारित्र' वह वस्तुतः अपूर्व है, अनूठा है ।"
१५-क-चारित्रप्राभृत-३२ ।
ग-तत्त्वार्थसूत्र ७७)
ख-तत्त्वार्थराज वार्तिक ७५। घ-सर्वाथसिद्धि पृ. ३४५ ।
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प्राचीन भारत की जैन शिक्षा-प्रणाली लेखक : महोपाध्याय डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन रीडर, संस्कृत - प्राकृत एवं पालि - विभाग, विक्रमविश्वविद्यालय, उज्जैन,
शिक्षा का उद्देश्य :
भारत में प्राचीन काल में, शिक्षा का उद्देश्य, सदाचार की वृद्धि, व्यक्तित्व का विकास, प्राचीन संस्कृति की रक्षा, तथा सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों की शिक्षा देना था ।' छात्र जीवन :
प्रायः छात्र अपने अध्यापकों के घर पर ही रहकर अध्ययन किया करते थे । कुछ धनी लोग नगर में भी छात्रों को भोजन तथा निवास देकर उनके अध्ययन में सहायक होते थे।
अवकाश के समय आश्रम बंद हो जाते । अकाल मेघों के आ जाने पर, गर्जन, बीजली का चमकना, अत्यधिक वर्षा, कोहरा, धूल के तूफान, चन्द्र-सूर्यग्रहण आदि के समय प्रायः अवकाश हो जाया करता था। दो सेनाओं अथवा दो नगरों में आपस में युद्ध द्वारा नगर की शांति भंग हो जाने पर, मल्ल - युद्ध अथवा नगर के सम्मान्य नेता की मृत्यु हो जाने पर भी अध्ययन बन्द कर दिया जाता था। कभी, बिल्ली द्वारा चूहे का मारा जाना, रास्ते में अण्डे
का मिल जाना, जिस जगह स्कूल है उस मुहल्ले में बच्चे का जन्म होना आदि तुच्छ कारणों से भी विद्याध्ययन का कार्य कुछ समय के लिए बन्द कर दिया जाता था।
3
जब छात्र अध्ययन समाप्त करके घर वापिस आते थे, तब अत्यन्त समारोह के साथ उसे सम्मान दिया जाता था । जैसे कि आर्य 'रक्षित' जब पाटलिपुत्र से अध्ययन समाप्त करके घर वापिस आया तो उसका राजकीय सम्मान किया गया। सारा नगर पताकाओं तथा वन्दवारों से सुसज्जित किया गया | आर्य 'रक्षित' को हाथी पर बिठाया गया तथा लोगों ने उसका सत्कार किया । उसकी योग्यता पर प्रसन्न होकर लोगोंने उसे दास, पशु, सुवर्ण- आदि द्रव्य दिया । आचार्य :
अध्यापक का बहुत ही सम्मान किया जाता था । ' रायपसेणिय' में ३ प्रकार के आचाय का वर्णन है :
१ कला के अध्यापक (कलायरिय)
१- " एज्युकेशन इन एंशियेंट इंडिया” डॉ. आल्तेकर, पृष्ठ-३२६
२- उत्तराध्ययन टीका-८ पृ० १२४ । ४- उत्तराध्ययन टीका २ - १०२२ अ ।
१३
३- ववहार भाष्य - ७-२८१-३१६ ।
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९८]
तत्वज्ञान स्मारिका २ शिल्प के अध्यापक (सिप्पायरिय) न करने की प्रतिज्ञा कर गुरु को शान्त करने ३ धर्म के अध्यापक (धम्मायरिय) का प्रयत्न करता था।
यह विधान था कि प्रथम दो आचार्यों के यह आवश्यक था कि छात्र कभी भी गुरु शरीर पर तैल मर्दन किया जाय, उन्हें पुष्प भेंट | के बगल में, सामने अथवा पीछे न बैठे, स्वाट किए जाय, उन्हें स्नान कराया जाय, उन्हें अथवा मंच पर बैठकर प्रश्न न करे किन्तु अपने सुन्दर-वस्त्रों से सुसज्जित किया जाय, उन्हें | आसन से उठकर गुरु के पास आकर दोनों योग्य पारिश्रमिक एवं पारितोषिक दिया जाय; |
हाथ जोड़कर गुरु से प्रश्न करे। इसी प्रकार धर्माचार्य का भी भोजन पान आदि अयोग्य विद्यार्थी भी हुआ करते थे । वे द्वारा योग्य सम्मान कर के उन्हें विविध प्रकार | गुरु से हमेशा हस्तताडन तथा पादताडन के उपकरणों से संतुष्ट किया जाय । । (खड्ड्डया, चपेड़ा) प्राप्त किया करते थे। वे वेत्र___आचार्य को ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण योग्य ताडन भी प्राप्त करते थे तथा बड़े कठोर शब्दों होना आवश्यक था । यह भी आवश्यक था कि
से सम्बोधित किये जाते थे। अयोग्य विद्यार्थियों ( आचार्य, किसी छात्र द्वारा प्रश्न किए जाने पर
की तुलना दुष्ट बैलों से की गई है । वे गुरु की उसका पूर्ण सही एवं सन्तोषप्रद उत्तर दे तथा
आज्ञा का पालन नहीं करते थे । कभी कभी गुरु उसका असम्बद्ध उत्तर न दे ।
ऐसे छात्रों से थककर उन्हें छोड़ भी दिया
करते थे। योग्य छात्र वही था जो अपने आचार्य के उपदेशों पर पूर्ण ध्यान दे, प्रश्न करे, अर्थ समझे
छात्रों की तुलना पर्वत, घड़ा, चलनी, छन्ना तथा तदनसार आचरण करने का भी प्रयत्न | राजहंस, भस, भड़ा, मच्छर, जॉक, बिल्ली, करे। योग्य छात्र कभी भी गुरु की आज्ञा का
| गाय, दाल आदि पदार्थों से की गई है जो उल्लंघन नहीं करते थे, गुरु से असद् व्यवहार
उसकी योग्यता और अयोग्यता की और संकेत नहीं करते थे, झूठ नहीं बोलते थे, तथा गुरु |
करते हैं । की भाज्ञा का पालन करते थे । यदि वह देखता | - अध्ययनथा कि गुरु क्रोध में है तो दोनों हाथ जोड़कर अध्ययन दो प्रकार का था--धार्मिक और क्षमा प्रार्थनापूर्वक भविष्य में कभी भी अपराध । लौकिक । धार्मिक-अध्ययन में प्रधानतः जैन १-स्थानांग (३,१३५)
२-आवश्यक नियुक्ति (१३६) ३-वही (२२) ४-उत्तराध्ययन (१, १३, १२, ४१, १२, २२) । ५-वही (३८, ३, ६५-अ)
६-वही (२७, ८, १३, १६) ५-आवश्यक नियुक्त १३६, आवश्यक चूर्णि पृ० १२१-४, बृहतकल्प भाष्य, पृ० ३३४ ।
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आगम धर्म तथा दर्शन का अध्यापन होता था । उसकी विधि के वाचना ( पढना ), पृच्छना ( गुरु से पूछना ), अनुप्रेक्षा (चिंतन) आम्नाय (मनन) और धर्मोपदेश ये पांच अंग थे। लौकिक अध्ययन में सबसे प्रथम वेद का अध्ययन किया जाता था । स्थानांग ( ३, ३, वेदों के नाम हैं । १ - ऋग्वेद, २-यजुर्वेद, ३सामवेद |
|
१२५ ) में ३
प्राचीन भारत की जैन शिक्षा प्रणालि
निम्न प्रकार अध्ययन क्रम था ।
छह वेद :-१-ग्वेद, २ - यजुर्वेद, ३ - सामवेद, - अथर्व वेद, ५ - इतिहास (पुराण), ६- निघण्टु,
४
छह वेदांग - १ - संखाण (गणित), २ - सिक्खा (स्वरशास्त्र), ३ - कप्प (धर्मशास्त्र),
४ - वागरण (व्याकरण) ५ - छन्द, ६ - निरूक्त (शब्दशास्त्र) तथा जोइस (ज्योतिष)
छह उपांग- उनमें प्रायः वेदांगों में वर्णित विषयों का और भी अधिक विस्तार मात्र था ।' उत्तराध्ययन (३ पृ० ५६ - अ) में निम्न १४ प्रकार के पठनीय (विज्जद्वाण) विषयों का वर्णन है ।
४ वेद, ६ वेदाँग, मीमांसा, नाय, पुराण तथाधम्म सत्थ । अनुयोगदार (सू०४०) तथा नन्दी (स्०४२ पृ० १६३) में लौकिक - श्रुत निम्न प्रकार माने गए हैं -
भारह, रामायण, मीमासुरुवक, कोडिल्लय, घोडमुह, सगडिभड्डिआऊ, कप्पासिअ, नाग
r
सुहुम, कणगत्तरि, वेसिय, वेसेसिय, बुद्धसासण, कविल लगायत सहितन्त, माढर, पुराण, वागरण, नाङग, ७२ कलाएं, ४ वेद - अंग तथा उपांग सहित तेरासिय, भागव, पातज्ञ्जलि, पुस्सदेव |
स्थानांग (६-६७२) में पापश्रुतों का वर्णन है
१ - उपाय: - ( अपशकुन विज्ञान जो कि रक्त-वर्षा अथवा देश पर आनेवाली आपत्ति की सूचना दे) २ - निमित्त - (शकुन विज्ञान)
३- मन्त्र - (जादू टोना आदिक का विज्ञान) इन्द्रजाल विद्या ।
४ - आइक्खिय- (निम्न - प्रकार की इन्द्रजाल विद्या) ५ - तेगिच्छिय - ( चिकित्सा विज्ञान ) ६-७२ कला
७ - गृहविज्ञान - (आवरण)
८- मिच्छापत्रयण - (मिथ्यात्व प्रवचन ) -
७२ कलाएँ :
जैन आगमों में ७२ कलाओं का अनेक जगह वर्णन है ।
सभी छात्र इन सम्पूर्ण कलाओं को प्राप्त नहीं करते थे, किन्तु इन कलाओं का प्राप्त करना उद्देश्य आवश्यक रहता था । बहुत ही कम छात्र इन सम्पूर्ण कलाओं में निपुणता प्राप्त कर पाते थे ।
इन ७२ कलाओं का निम्न प्रकार वर्गीकरण किया गया है :
१ - भागवती (२, १ ) तथा औपपातिक दशा सूत्र (३८ पृ० १७२)
२ - णाया धम्माकहाओ - १, पृ० २१ समवायांग, पृ० ७७ अ, ओवाइय सुत्त - ४०,
रायणिय सुत्त - २९१)
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१००
तत्त्वज्ञान-स्मारिका १-पढ़ना तथा लिखना :
स्त्रियों के शरीर को सुन्दर बनाने की विधि), - लेह (लेख), गणिय (गणित)। पत्तच्छेत्ता (पत्रों से सुन्दर आभूषण बनाना) २-कविता बनाना :
तथा कडच्छेत्ता (भाल का सजाना ) पोरकल्व ( कविता बनाना ), अज्जा । ८-चिह्न विज्ञान (लक्षण) :(आर्या ), पहेलिया (प्रहेलिका) मागधिया | इसमें चिह्नों के द्वारा स्त्री, पुरुष, घोडा, (मागधी भाषा में कविता करना), गाथा ( गाथा हाथी, गाय, मुर्गा, दासी, तलवार, रत्न तथा छन्द में कविता का निर्माण, गोइय (गीतों का | छत्र के भेद को जानना सम्मिलित था। निर्माण ), सिलोय (श्लोकों का निर्माण )। ९-शकुन विज्ञान :३-मूर्ति निर्माण कला :
इसमें पक्षियों की बोली का ज्ञान आवरूव ( रूप)
श्यक था। ४-संगीत-विज्ञान :
१०-खगोल विद्या :, नष्ठ (नृत्य) गीय ( संगीत ) वाइय (वाद्य), ग्रहों के चलन (चार) तथा प्रतिचालन सरगम ( सरगम ) पुक्खरगय (ढोल-वादन), (पडिचार) का ज्ञान सम्मिलित था । ताल का ज्ञान ।
११-रसायन शास्त्र :मृत्तिका-विज्ञान :
इसमें सोना (सुवण्ण-पाग) चांदी (हिरण्ण दगमट्ठिय ।
पाग) को बनाना तथा नकली धातुओं को ६-द्यूतक्रीड़ा तथा गृहक्रीड़ा :
असली हालत में परिवर्तित करना (सजीव) तथा इसमें जुआ (धूत ), जणवाय (अन्य | असली धातु को नकली बनाना (निज्जीव) भी प्रकार का जुआ ), पासय (पासों से खेलना ) | सम्मिलित था । अट्ठाक्य ( शतरंज ), सुत्तखेड ( कठपुतलियों का | १२-गृह-विज्ञान :नाच ), वत्थ ( भोरे का खेल ) तथा नालिका- इसमें मकान बनाना (वत्थु विज्जा) नगरों खेड़ (अन्य-प्रकार के पासे का खेल) तथा जमीन को नापना (नगरारमण, खन्धार७-स्वास्थ्य, श्रृंगार तथा भोजन विज्ञान :- | मण) सम्मिलित थे।
. इसमें अन्नविहि (भोजन विज्ञान ), पाण | १३-युद्ध-विज्ञान :(पान), वत्थ (वस्त्र ), विलेपन (श्रृंगार ), सयण | इसमें युद्ध (जुद्र), कुश्ती (निजुद्ध), घोर ( शय्या विज्ञान ) हिरण्ण जुत्ति (चांदी के | युद्ध (जुद्धातिजुद्र), दृष्टियुद्ध (दिद्विजुद्ध), मुष्टिआभूषणों का परिधान), सुवण्ण ( सोने के | युद्ध (मुट्ठिजुद्ध), बाहुयुद्ध (बाहुजुद्ध), मल्लयुद्ध आभूषणों का परिधान ) आभरण विहि (अन्य (लय), तीर-विज्ञान (इसत्थ), असिविज्ञान (चरूप्रकार के आभूषणों को पहिनना ) चुण्ण जुत्ति | पवाय), धनुष-विज्ञान (धणुव्वेय), व्यूह-विज्ञान ( शृंगार चूर्ण बनाना ), तरुणी पडिकम्म (तरुण । (वूह), प्रतिव्यूह-विज्ञान (पडिवूह), चक्रव्यूह
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प्रावान भारत की जैन शिक्षा प्रणाली
१०१ विज्ञान (चक्कवूह), गरुडव्यूह (गरुड) तथा अतिरिक्त व्याकरण (सद), तर्क (हेतुसत्थ), शकट व्यूह (सगड) सम्मिलित था ।' न्याय, कामशास्त्र तथा इन्द्रजाल-विद्या का विद्या के केन्द्र :
अध्ययन भी होता था । राजधानियाँ, तीर्थस्थान, आश्रम तथा ____ प्रत्येक साधुओं के संघ चलते फिरते मन्दिर शिक्षा के केन्द्र थे । राजा तथा जमींदार विद्यालय थे। सत्य तथा ज्ञान के परीक्षण के लोग विद्या के पोषक तथा संरक्षक थे । समृद्ध
लिए प्रायः वाद विवाद हुआ करते थे । वादराज्यों की अनेक राजधानियाँ जो कि विद्वानों
विवाद करने के लिए बड़े-बड़े संघ (वाद पुरिसा) को आकृष्ट करती हुई अंत में बड़े-बड़े विद्या के
हुआ करते थे, जहां जैन तथा अन्य साधु, केन्द्रों के रूप में परिणत हुई जैनागमों में
खासकर बौद्ध साधु आकर सूक्ष्म से सूक्ष्म
विषयों पर वाद-विवाद करते थे । यदि कोई वर्णित हैं।
व्यक्ति तर्क तथा न्याय में कमजोर पाया जाता बनारस विद्या का मुख्य केन्द्र था । संख
था तो उसको किसी अन्य जगह जाकर और पुर का राजकुमार अगडदत्त वहां पर विद्याध्ययन
अधिक अध्ययन के लिए प्रयत्न करना पड़ता के लिए गया था । वह अपने आचार्य के आश्रम
था । वहाँ से अध्ययन समाप्त कर वह लौटता में रहा और अपना अध्ययन समाप्त कर | और अपने विरोधी को पराजित कर धर्म का घर लौटा ।
प्रचार करता था। सावत्थी (श्रावस्ती) विद्या का केन्द्र था।'
उत्तराध्ययन टीका (३, ७२) में एक पाटलिपुत्र भी विद्या का केन्द्र था । रक्खिय | ऐसे हठी साधु का वर्णन है जो कि अपने पेट (रक्षित) जब अपने नगर दशपुर में अपना में लोहे के एक तख्ते को बांधकर तथा एक अध्ययन नहीं कर सका तो वह उच्च शिक्षा के | जामुन (जम्बु) की शाखा को लेकर घूमा करता लिए पाटलिपुत्र गया।
था और कहा करता था कि मैं उस लोह-पट्टको प्रतिष्ठान (पइद्वाण), दक्षिण में विद्या का अपने पेट से इसलिए बांधता हूँ कि कहीं ज्ञान केन्द्र था।
की अधिकता से मेरा पेट न फट जाय और यह साधुओं के निवास स्थान (वसति) तथा जम्बूवृक्ष की शाखा इस बात की द्योतक है कि उपाश्रयों में भी विद्याध्ययन हुआ करता था। कि समस्त जम्बूद्वीप में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं
ऐसे स्थानों पर वे ही साधु अध्यापन कर जो कि वादविवाद में उसका सामना कर सके । सकते थे जिन्होंने उपाध्याय (उवज्झाय) के समीप इस प्रकार आगम साहित्य में निरूपित रहकर प्राचीन शास्त्रों के अध्यापन की शिक्षा | जैन शिक्षाप्रणाली प्राचीन काल को एक सुव्यप्राप्त की हो । १२ अंगशास्त्रों के अध्ययन के । वस्थित शिक्षा प्रणाली के रूप में प्रतिष्ठित थी।
१-लाइफ इन एंशियेन्ट इन्डिया एज डेपीक्टेड इन दि जैन कोनन्स-१, पृष्ठ-१७२ । २-उत्तराध्ययन टीका-४-पृ० ८३ ।।
३- - वही - ८, पृ० १२४ । ४- - वही - २, पृ० २२ अ।
५-बृहत्कल्प टीका-४, पृ० ९० अ। ६- - वही भाष्य-४, ५१७९ ।
७- - वही -, ४, ५४२५, ५४२१ ।
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गुजरात का सारस्वतनगर पाटन और हिन्दी
लेखक-डॉ. हरीश शुक्ल ७ बी-वनराज सोसायटी-पाटण ( उ. गु.)
ককককককককককককককককককককককককককককককককককককককককককককক্ষ
गुजरात विशेषतः जैन धर्म, संस्कृत एवं | अतः यहाँ शैव धर्म एवं वैदिक-परंपरा का साहित्य का प्रमुख केन्द्र रहा है । इस प्रदेश में | भी चरम विकास यहाँ के साहित्य, स्थापत्य आदि जैन धर्म का अस्तित्व तो इतिहासातीत कालसे | में देखने को मिल जाता है । अर्थात् यहाँ गुजरात मिलता है।
में विभिन्न धर्मो, संस्कृतियों, सम्प्रदायों एवं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रधान गणधर मान्यताओं को एक साथ फलने-फूलने एवं पुंडरीक ने शत्रुञ्जय पर्वत से निवार्ण लाभ लिया संवरने का योग्य सुअवसर प्राप्त होता रहा है । था । २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ का तो यह आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं में प्रधान विहार-क्षेत्र था । आग्रा के महाराज उग्र- | गुजराती और हिन्दी भाषा-साहित्य को इन सेन की राजकुमारी राजुल से नेमिनाथ के विवाह | | विभिन्न कवियों के हाथों महती सेवा हुई है । की तैयारी करने, भौतिक–देह और संसारी | इन भाषाओं के विकास क्रम के अध्ययन के लिए भोगों से विरत हो गिरनार पर्वत पर समाधि विशेषतः जैन ग्रंथ आधारभूत हैं । लेने का तथा तीर्थकर मुनिसुव्रत के आश्रम का इस भाषा अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता भृगुकच्छ में होने के उल्लेख मिलते हैं। है कि हिन्दी और गुजराती का उद्भव एक ही
तेरहवीं शती में वनराज चावडा, सोलंकी | स्रोत से हुआ है। राजा शिलादित्य और वस्तुपाल तथा तेजपाल | पं. नाथूराम प्रेमीजी के इस अभिप्राय से जैसे मंत्रियों ने जैन धर्म और साहित्य को पर्याप्त | भी यह बात स्पष्ट है-- प्रोत्साहन दिया । मुसलमान बादशाह भी जैन | | "ऐसा जान पड़ता है कि प्राकृत का जब धर्म के प्रति काफी सहिष्णु रहे । सम्राट अकबर अपभ्रंश होना आरंभ हुआ और फिर उसमें भी को प्रतिबोध देने जैनाचार्य हीरविजयसूरि, जिन- परिवर्तन होने लगा तब उसका एक रूप गुजचन्द्र तथा उपाध्याय भानुचन्द्र गुजरात से ही राती के साँचेमें ढलने लगा और एक हिन्दी आगरा गये थे।
के साँचे में। पाटन के शासक चावडा तथा सोलंकी ! यही कारण है कि हम ई. १६वीं शताब्दी मूलतः शैव धर्मी थे।
| से जितने ही पहले की हिन्दी और गुजराती
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गुजरात का सारस्वत नगर पाटन और हिन्दी
[ १०३ देखते हैं, दोनों में उतना ही सादृश्य दिखलाई | हिन्दी में की है और उनकी भाषाको प्राचीन पडता है।
हिन्दी अथवा अपभ्रंश कहा है । यहाँ तक कि १३वीं, १४वीं शताब्दी की इस प्रकार एक ही सामान्य-साहित्य को हिन्दी और गुजराती में एकता का भ्रम होने | हिन्दी, अथवा गुजराती सिद्ध करने के प्रयत्न लगता है।
बराबर होते रहे हैं। इसी भाषा--साम्य के कारण वि. १७वीं अलग हो जाने और उसके स्वतंत्र-रुप शताब्दी के कवि मालदेव के 'भोजप्रबंध' और | से विकसित हो जाने के पश्चात् भी गुजराती 'पुरन्दरकुमार चउपई', 'जो वास्तव में हिन्दी कवियों का हिन्दी के प्रति परम्परागत प्रेम बना ग्रंथ हैं, गुजराती ग्रंथ माने जाते रहे हैं" रहा । यही कारण है कि वे स्व-भाषा के साथनिष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि
साथ हिन्दी में भी रचनाएँ करते रहे । हिन्दी १६वीं--१७वीं शती तक भारत के पश्चिमी भू
की यह दीर्घकालीन परम्परा उसकी सर्वप्रियता भाग में बसनेवाले अधिकांश कवि अपभ्रंश
और सार्वदेशिकता सूचित करती है । मिश्रित प्रायः एक-सी भाषा का प्रयोग करते । यहाँ तक कि इस परम्परा के निर्वाह हेतु थे । हाँ, प्रदेश-विशेष की भाषा का इन पर | अथवा अपने हिन्दी-प्रेम को अभिव्यक्त करने प्रभाव अवश्य था । हिन्दी, गुजराती और राज- | के लिए, कई गुजराती कवियों ने अपने गुजराती स्थानी का विकास शौरसेनी के नागर--अपभ्रंश | ग्रंथों में भी हिन्दी अवतरण उद्धृत किये हैं। से हुआ है।
उदाहरणार्थ नयसुन्दर के 'रूपचंद कुंवररास' यही धारणा है कि १६ वीं-१७वीं शती तथा 'नल दमयन्तीरास', 'गिरनार उद्धार रास' तक इन तीनों भाषाओं में साधारण प्रान्तीय 'सूरसुन्दरी रास', खंभात के जैन कवि ऋषभदास भेदको छोड विशेष अंतर नहीं दिखता। | के 'कुमारपाल रास', 'श्रोही सूरि रास', 'हित
श्री मोतीलाल मेनारियाने शारंगधर, असा- | शिक्षा रास तथा समयसुन्दर के 'नलदमयंती हत, श्रीधर, शालिभद्रसूरि, विजयसेनसूरि, | रास' आदि दृष्टव्य हैं। विनयचन्द्रसूरि आदि गुजराती-कवियों की गणना
___कनकसोम, माधुकीर्ति, गुणविनय, लब्धिराजस्थानी कवियों में की है।
मुनि, रत्ननिधान आदिने भी जिनचन्द्रसूरि की ' तथा इन्ही कवियों और उनकी कृतियों | प्रशस्ति में जो पद लिखे हैं, उनमें से कई पद की गणना हिन्दी साहित्य के इतिहासकारोंने । 'खडीबोली' में हैं
१. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, सप्तम् हि. सा स. कार्य विवरण भाग-२, पृ. ३. . २. हिन्दी भाषा का इतिहास, धीरेन्द्र वर्मा ।
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तत्त्वज्ञान-स्मारिका .. बनी है. सद्गुरु की ठकुराई ।
गुजरात की प्राचीन राजधानी और सार. श्रीजिनचन्द्रसूरि गुरुवंदो जो कुछ हो चतुराई ॥१॥ स्वत नगरी पाटन भी इस राष्ट्रीय-सेवा से सकल सनूर हुकम सब मानति तै जिन्ह कु फुरमाई । वंचित कैसे रह सकती है ? अरू कछु दोष नहीं दल अंतरि,
सारस्वत-नगर पाटन अपने पुरातन काल तिमि सब ही मनि लाई ॥२॥ से ही धर्म साहित्य के प्रमुख केन्द्र के रूप में माणिकसूरि पाट महिमावरी लई जिन स्युं वितणाइ ।। विशेष गौरवान्वित रहा है। झिगमिग ज्योति सद्गुरु की जागी,
प्राचीन समय में पाटन और धोलका गुज' 'साधुकीरति' सुखदाइ ॥३॥' | रात के महान विद्याधाम थे। गुजराती के आदि-भक्तियुग के समर्थ यहाँ सहस्रलिंग-तालाब के किनारे एक भक्त कवि नरसिंह मेहता की भक्तिमय विशाल बहुत बडा विद्यानगर था । पद रचना में कहीं कहीं व्रजभाषा के पद भी
प्राचीन और मध्यकालीन भारत में जिन मिल जाते हैं :
जिन विद्याओं का विकास हुआ था, उन सबकी साखो-कुंजभवन खोजती प्रीत रे,
यहाँ पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। खोजत मदन गोपाल ।
इस समय पाटन में संस्कृत, प्राकृत, राजप्राणनाथ पावे नहीं तातें
| स्थानी, गुजराती तथा व्रजभाषा में भी विपुल 3 व्याकुल भई वृजबाल ॥१॥ | साहित्य सर्जना हुई। इनके अतिरिक्त भालण, भक्तकवि कृष्ण
यह साहित्य सर्जना पाटन की अमूल्य दास, प्रभास पाटन के कवि केशव, अहमदाबाद | निधि है, जो आज विस्मृत होती चली जा के परमभक्त कवि दादूदयाल, दलपतिराम, | रही है। बंशीधर, अखाभगत, शामल भट्ट, पटेल देणीदास, केवलराम नागर, आदितराम, ज्ञानीभक्त प्रीतम
पाटन के भण्डारों की अलभ्य ग्रंथ-रत्न दास, किशनदास, त्रीकमदास वैष्णव, स्वामि- राशि जो कुल मिलाकर तीस हजार हस्त प्रतियों नारायणी भक्त कवि प्रेमानंद-प्रेमसखी और ।
के रूप में सुरक्षित है, वह आज इसी पाटन के ब्रह्मानन्द, दयाराम, गौरीबाई, कवीश्वर दल.
| अतीत गौरव की मूक साक्षी बनी हुई है। पतराम आदि गुजराती भाषा के समर्थ कवियोंने पाटन को ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर हिन्दी में भी काव्य रचना कर हिन्दी भाषा की भी पाटन के साहित्य और स्थापत्य में इसके भी महत्वपूर्ण सेवा की है। .
अनेक रूप बिखरे नजर आते हैं। १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. ९७. २. रास सहस्रपदी, पद ११९. ३. राजस्थानी भाषा और साहित्य, मोतीलाल मेनारिया ।
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गुजरात का सारस्वत नगर पाटन और हिन्दी
[१०५ __वनराज, सिद्धराज, कुमारपाल तथा कलि- । व्यापी संत परंपरा, ज्ञानगरिमा एवं व्यावहारिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य की प्रतिभा और व्य- कता का परिचय दिया है। क्तित्व की झाँकी करानेवाले अनेक स्थल आज पाटण के ऐसे यशस्वी कवियों में सर्व भी हैं, जिनसे उस समय के इतिहास पर अच्छा प्रथम १५ वीं शती के भट्टारक, सकलकीर्ति प्रकाश पडता है।
और ब्रह्म जिनदास आते हैं। कुशल राजनीतिज्ञ और विद्वान श्री के. ये संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे, फिर भी एम. पाणिकरजी ने हेमचंद्राचार्य के संबंध में | इन्होंने लोकभाषा के माध्यम से राजस्थान और जो कहा है, वह योग्य ही है
गुजरात में जैन साहित्य और संस्कृति के निर्माण “ I Consider Hemchandracharya to में अपूर्व ये ग दिया । be the greatest of Gujaratis"
ब्रह्म ज़िनदास ने तो ६० से भी अधिक कच्छ-भूज की ब्रजभाषा पाठशाला के | रचनाएँ लिखकर हिन्दी साहित्य की श्रीआचार्य कनककुशल भट्टार्क, कुंवरकुशल भट्टार्क | वृद्धि की । आदि के ब्रज एवं राजस्थानी भाषा की कवि | इन रचनाओं में 'रामसीता रास' 'श्रीपाल ताओं एवं पिंगल-ग्रंथों का एक संग्रह भी यहाँ रास', 'यशोधर रास', भविष्यदत्त रास', 'परमके श्री हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञान भण्डार में सुरक्षित हंस रास', 'हरिवंश पुराण', 'आदिनाथ पुराण' है, जो विशेष महत्त्व का है।
आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। कच्छ के महाराव श्री लखपतसिंह के समय इनके 'परमहंस रास' से एक उदाहरण में ब्रजभाषा में कविता करने की शिक्षा देने- | दृष्टव्य हैवाली एक पाठशाला चलती थी, जिसमें भारत | " पाषाण मांहि सोनो जिम होई, के कोने कोने से ब्रजभाषा कविता की शिक्षा
गोरस मांहि जिम घृत होई । पाने के लिए अनेक विद्यार्थी तथा जिज्ञासु विद्वान | तिल सारे तैल बसे जिम भंग, आते रहते थे।
तिम शरीर आत्मा अभंग ॥" गुजरात के प्रसिद्ध कवि दलपतराम भी भालण और विश्वनाथ जानी पाटण के ही इस पाठशाला के विद्यार्थी रह चुके हैं । पाटन | कवि थे। के इस प्राचीन साहित्य के अध्ययन से अनेका
___इनका समय ई. सन १५०० के करीब नेक तथ्य बाहर आ रहे हैं।
रहा है। गुजराती कवियों ने भी ब्रजभाषा में अथवा पाटण के घीवटा विस्तार में कवि भालण राजस्थानी हिन्दी में समर्थ रचनाएँ कर भारत- । के नाम से 'भालणनी खडकी' आई हुई ।
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१०६ ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका भालण ने भागवत के दशम स्कंध का का जन्म भी पाटण के पास कनौडा गाँव में हुआ भावानुवाद कडवाबद्ध आख्यान के रूप में था, तथा पाटन में अधिकांश समय रहने एवं किया है।
साहित्यरचना करने के प्रमाण मिलते हैं । भालण गुजराती आख्यान का पिता माना । प्राप्त-रचनाओं के आधार पर इनका गया है। भालण ने कृष्णसंबंधी स्वतंत्र पदों की साहित्य -सृजन-काल वि. सं. १७१९ से रचना की है।
१७४३ तक माना जा सकता है। इनमें कुछ पद ब्रजभाषा के भी मिलते हैं ।
इन्होंने कुल मिलाकर ३०० ग्रंथों की रचना इसी समय (ई. सन् १५१२ ) के एक | की है, जिनमें ५-६ रचनाएँ तथा कुछ फुट कर जैन कवि लावण्यसमय ने ऐतिहासिक प्रबंध। पद हिन्दी भाषामें भी रचे हैं । काव्य ‘विमल प्रबंध ' की रचना की, जिसमें
___ उपाध्यायजी की रचनाएँ सरल भाषा में मुस्लिम पात्रों के द्वारा कहे गये वाक्यों में 'खडीबोली' का स्वरूप देखने को मिलता है । सम्भवतः
रसपूर्ण ढंग से लिखी होने पर सामग्री की दृष्टि
से अत्यन्त गरिष्ठ हैं। यह पाटन का पहला कवि है, जिसने खडीबोली का प्रयोग किया है
'आनन्दघन अष्टपदो' आनंदघनजी की हमकुं देवइ दोट वकाला,
स्तुति में लिखी गई रचना है । 'सुमति' सखी के मागई माल कोडि बिच्यारा ।
साथ मस्ती में झूमते हुए, आत्मानुभवजन्य परम
आनन्दमय अद्वैत दशा को प्राप्त अलौकिक तेज हमके हाजारि नहीं असवारा,
से दीपित योगीश्वर रूप आनंदघन को देखकर नहीं कोई वली झूझारा ॥७९॥
यशोविजयजी के मन में जो भावोद्रेक हुआ उसे हमें सूरतान समान समाने,
उन्होंने इस प्रकार प्रकट कियाहमकुं नामुं कोटि । देखे बीबी लोक लूटाउं,
मारग चलत- चलत गात, आनंदघन प्यारे, मारि कराउं लोट ॥८०॥
रहत आनन्द भरपुर । इन पंक्तियों में कई भाषाओं के मिश्रण से
| ताको सरुप भूप त्रिहुं लोक थे न्यारो, भाषा का रूप विकृत सा लगता है, फिर भी
बरखत मुखका पर नूर ॥ 'खडीबोली' का स्वरूप सहज ही पकडा जा सुमति सखि के संग नित-नित दोरत, सकता है।
कबहुं न होत ही दूर । द्वितीय हेमचन्द्राचार्य का बिरुद धारण जशविजय कहे सुनो आनन्दघन, करनेवाले, न्यायविशारद उपाध्याय यशोविजयजी |
हम तुम मिले हजूर ।।
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गुजरात का सारस्वत नगर पाटन और हिन्दी इसके अतिरिक्त 'दिक्पट-चौरासी बोल' “विरह दीवानी फिरूँ ढूँढ़ती, पीउ पीउ 'समाधिशतक', 'समताशतक', 'जसविलास' | करके पोकारेंगे।" आदि इनकी सशक्त हिन्दी कृतियाँ हैं।
यशोविजयजी की वाणी प्रभावोत्पादक, 'जसविलास' में भक्ति, वैराग्य तथा विश्वप्रेम |
भाषा प्रसाद-गुण सम्पन्न, शैली सरसता से पूर्ण के १०० पद-गीत एवं स्तवन संकलित है।
तथा छन्द शास्त्रीय राग-रागनियों में निबद्ध हैं। भक्तिरूपी निधि प्राप्त करने के पश्चात् भक्त के
___पाटन के एक ऐसे ही यशस्वी कवि और लिए हरि-हर और ब्रह्मा की निधियां भी
जैनाचार्य हो गये हैं, जिसका नाम जिनहर्ष है। तुच्छ लगने लगती हैं, उस रस के आगे अन्य
कविवर जिनहर्ष की साहित्य-साधना का सभी रस फीके लगने लगते हैं, खुले मैदान में
काल संवत् १७०४ से प्रारंभ होकर पचास वर्ष माया, मोहरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो
तक निरंतर चलता रहा। जाती है
इनकी रचनाएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं
सरस हैं। हम मगन भए प्रभु ध्यान में ।
जिनहर्ष ने जन्म से ही कवि-हृदय पाया बिसर गई दुविधा तन-मग की,
था । गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी इन तीनों अचिरा सुत गुन ज्ञान में ।
भाषाओं पर इनका समान अधिकार था । जिन हरि-हर ब्रह्म पुरन्दर की ऋद्धि,
हर्ष का व्यक्तित्व बडा ही आकर्षक तथा मोहक आवत नहिं कोउ मान में ।
था । अपने सद्गुणों, नियमादि के प्रति कठोरता चिदानन्द की मोज मची है,
तथापि स्वभाव एवं जीवन की सरलता से लोगों समता रस के पान में ॥
के हृदयों को जीत लिया था । चित्तदमन, इन्द्रियनिग्रह आदि को अन्य कवि की दृष्टि में साधु वही है, जिसके हृदय संतों की भाँति यशोविजयजी ने भी अपने काव्य में समता का भाव उत्पन्न हो गया हो । कविवर का विषय बनाया है।
| इसी समता-रस में डूबे रहते थे। कवि का "जब लग मन आवे नहि ठाम ।
| व्यक्तित्व परम भक्त और उद्बोधक का था । वे
प्रेममार्गी और नीतिज्ञ रहे हैं। तब लग कष्ट-क्रिया सवि निष्फल ज्यों गगने चित्राम।"
| उन्होंने अपने समय की सभी काव्य
| शैलियों में रचनाएँ प्रस्तुत कर साहित्य-भण्डार जान की शुष्कता ही नहीं, भक्ति की | को भरा है तथा अपने को सच्चे अर्थ में सारस्निग्धता भी इनके काव्य में है।
स्वत सिद्ध किया है। उनकी प्रेम-दिवानी आत्मा पिउकी रट | कवि की कृतियों की एक लम्बी सूची लगाये बैठी है
| 'जिनहर्ष ग्रंथावली' में श्री अगर चन्द नाहटाजी
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१०८ ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका ने दी है। यहाँ उनकी प्रमुख कृतियों का को छोडकर भगवान के चरणकमलों में समसामान्य परिचय देना संगत होगा। पित होने का उपदेश दिया है ।
"नन्द बहोत्तरी--विरोचन मेहता वार्ता" "दोहा मातृका बावनी' में जीवनोपयोगी रचना में राजा नन्द तथा मंत्री विरोचन को सद्धर्म की अभिव्यक्ति हुई हैरसप्रद कथा दी गई है।
मन ते ममता दूरि कर, समता धर चित्त मांहि । राजस्थानी हिन्दी में लिखित यह ७२ । रमता राम पिछाण कै, शिवपुर लहै क्यु नाहिं । दोहों की रचना है
कवि जिनहर्षने नेमिनाथ और राजीमती की सूरवीर आरण अटल, अरियण कंद निकंद
प्रसिद्ध कथा को लेकर दो बारहमासों की राजत हैं राजा तहां, नन्दराई आनन्द । रचना की है।
'जसराज बावनी' कवि की दूसरी महत्त्व- इन बारह मासों में प्रेम और विरह का पूर्ण रचना है।
बड़ा मार्मिक चित्रण हुआ है। इस कृति में निर्गुणी संतों की भाँति इनकी अन्य प्रमुख रचनाओ में 'सिद्धचक्र "क्षौरशुं सीस मुडावत हैं केई, लम्ब जटा सिर । स्तवन', 'पार्श्वनाथ नीसाणी', 'ऋषिदत्ता चौपई' केइ रहावै ।" कह कर कवि बाह्याडम्बर का तथा ‘मंगल गीत' महत्त्वपूर्ण हैं । विरोध करता है और अन्त में "ग्यान बिना शिव जिनहर्ष की भाषा प्रसाद-गुणसम्पन्न, पंथ न पावे" कह कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करता है।
परिमार्जित एवं सुललित है । माधुर्य और रसासंगीतात्मक गेय पदों में रचित कवि की त्मकता इनकी भाषा के विशेष गुण हैं। तीसरी प्रसिद्ध रचना है-'चौवीसी' ।
__ कवि द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा तो और भी तीर्थंकरों की स्तुतियों के माध्यम से यहां मधुर और सजीव है । साहित्यिकता कहीं स्खलित कवि के भक्त-हृदय के सहज ही दर्शन हो नहीं होने पाई है । जाते हैं
'रास' संज्ञक काव्यों के साथ कवि ने साहिब मोरा हो अब तो माहिर करो | अनेक काव्यात्मक शैलियों का प्रयोग भी
आरति मेरी दृरि करो। किया है । खाना जाद गुलाम जाणि के,
यद्यपि धर्म, आध्यात्मिकता तथा नैतिकता मुझ ऊपरि हित प्रीति धरौ ॥ इन कवियों की मूल प्रेरणा रही हैं, तथापि ___'उपदेश छत्तीसी' रचना में अन्य भक्त- इनकी रचनाओं में न तो धार्मिक संकीर्णता है, कवियों की भाँति संसार की माया-मोह आदि न उनमें नीरसता, और शुष्कता ही।
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गुजरात का सारस्वत नगर पाटन और हिन्दी इनमें काव्य-रस का समुचित परिपाक है- मित्रोंने हिन्दीमें अपनी रचनाएँ लिखने का प्रयास काव्य-रस और अध्यात्म-रस का अपूर्व समन्वय किया है। देखने को मिलता है । इस कविता की मूल !
___अन्वेषण, सम्पादन, निबंध लेखन तथा प्रकृति शांत रस की रही है।
| अन्यान्य रचना-प्रकारों की दृष्टि से आज की इस प्रकार गुजराती कवियों का हिन्दी में
पीढ़ी के पट्टनियों का भी हिन्दी-प्रेम किसी हद साहित्य रचना के प्रति परम्परागत मोह रहा है।
कम नहीं। प्रान्तीयता को लेकर भाषा के झगडे इनमें कभी नहीं उठे, उठे भी तो लोकभाषा को लेकर ही ।। __ ऐसे आज के पाटन के हिन्दी-सेवी
हिन्दी में लोकभाषा और लोकजीवन के विद्वानों में गो. पा. द्वारकादास परीख, डो. सभी गुण विद्यमान थे । अतः इन कवियों ने इसे | भोगीलाल सांडेसरा, डॉ. हरगोविन्दभाई सी. सहर्ष अपनाया ।
नायक, प्रो. कानजीभाई एम. पटेल, विष्णु कलाल इनकी हिन्दी भाषामें शिक्षा और प्रान्तीय | 'बादल', पूनमभाई ए. स्वामी आदि के नाम प्रभावों के कारण थोडा अन्तर अवश्य आया,
गिनाये जा सकते हैं। किन्तु भाषा के एक सामान्य रूप अथवा उसकी इस प्रकार गुजरात और विशेषतः पाटनके एकरूपता में कोई विकृति न आने पाई । गाँधी
साहित्यकारोंने भी १५वीं शती से आज तक जीने हिन्दी के जिस रूप की कल्पना की थी, प्राचीन हिन्दी-राजस्थानी, ब्रजभाषा, खडीबोली इन कवियों की रचनाओं में वह उपलब्ध है। आदि भाषाओं में अनेक गौरव-ग्रंथोंकी रचना
आज तो हिन्दी का राष्ट्रभाषा की दृष्टि की है। से ज्ञान सुलभ बना है, अतः उसके प्रति आदर
इससे स्पष्ट है कि हिन्दी, इन अहिन्दीस्वाभाविक है ।
भाषी साहित्यकारों पर बलात् थोपी या लादी आजकी पीढी के अनेक गुजराती कवि नहीं गई थी, उन्होंने उसे स्वयं ही श्रद्धा और दूलाभाई काग, सुन्दरम् . राजेन्द्र शाह और प्रेम से अपनाया था और अपनी अभिव्यक्तिका गद्य लेखक इन्द्र वसावडा तथा असंख्य अध्यापक माध्यम बनाया था ।
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देवलोक की सृष्टि
(विज्ञान द्वारा प्रमाणित ) [ लेखक जवाहरचन्द्र पटनी एम. ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी)
__ उपप्राचार्य श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कॉलेज, फालना]
कककककककककककककककककककक
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नाकककककककककककर
मेरु पर्वत पर इन्द्र-इन्द्राणी सहित देवकुल | आसपास जिस तरह हमारी पृथ्वी और इतर द्वारा भगवान महावीर का जन्मोत्सव मनाने का | ग्रह, चक्कर काटते हैं, वैसे इन इतर तारों के प्रसंग एक ओर भक्तिवर्धक है तो दूसरी ओर | सूर्यो के आसपास भी चक्कर काटते ग्रह एवं विज्ञान सम्मत भी है।
उपग्रह होंगे । तारक विश्व में हमारे इस सूर्य ___क्योंकि आधुनिक-विज्ञान ने अपनी खोज की भाँति करोडों सूर्य होते हैं । करोड़ों सूर्य से यह सिद्ध कर दिया है कि "इस विराद जिनमें आये हों- ऐसे तारक विश्व भी सिर्फ ब्रह्मांड में असंख्य लोक हैं।"
एक दो ही नहीं हैं --. ऐसे तो करोंड़ों तारक
विश्व आकाश में बिखरे हुए हैं"-ऐसा आधुनिक ___आधुनिक खगोल-विज्ञान के अनुसंधान ने अनेक ग्रहों तथा उपग्रहों का पता लगाया है
खगोल विज्ञान कहता है । जिससे सहज ही विश्वास हो जाता है कि उनमें , शास्त्रों ने विशाल देवविमान, देवलोक और से कतिपय--( जिनकी संख्या करोडों में हैं )- द्वीपों के जिन, अति विशालकाय क्षेत्र विस्तारों ग्रहों एवं उपग्रहों पर जीव सृष्टि है। का निर्देश किया है, उनको कुछ लोग चाहें ___ वैज्ञानिकों ने रेडियो, टेलिस्कोप और
भ्रांतिवश कपोल-कल्पित क्यों न मानें, परन्तु स्पेक्ट्रोस्कोप से विश्व के अन्तरिक्षों का अवलो
आधुनिक खगोल- विज्ञान ने अनेक तारक लोको कन किया है, वे विराट् ब्रह्मांड को स्वीकार
के विस्तृत क्षेत्रों के जो माप लिये हैं, वे विश्वसकरते हैं।
नीय हैं, क्योंकि उनका निश्चय भूमिति, त्रिकोणविराट् विश्व में देवलोक आदि भी हैं
मिति, रेडियेशन आदि द्वारा मान्य सिद्धान्त के
| आधार पर किया गया है। इसमें अब कोई सन्देह नहीं रहा है। ___ आइये ! ब्रह्मांड की विराटता के दर्शन आधुनिक खगोल-विज्ञान के अनुसार हमारी वैज्ञानिकों के शब्दों में करें-" रात्रि के समय सूर्यमाला में आये गुरुग्रह का व्यास ८०,००० हम जिस स्वर्गगंगा को देखते हैं। उसमें सूर्य मील है। हमारी पृथ्वी जैसे १३०० ग्रह इस जसे अरबों-तारें सूर्य हैं और हमारे सूर्य के | एक ग्रह में समा जाय, यह उतना बड़ा है।
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देवलोक की सृष्टि
[१११ सूर्य का व्यास आठ करोड़ मोल है और शनि के दस उपग्रहों में सबसे बड़े उपवृश्चिक में आये हुए पारिजात नामक तारे का । ग्रह 'टाइटन' पर जीवन की सम्भावना है। व्यास ३९ करोड़ मील से अधिक है। इसका इसी तरह बहस्पति के उपग्रहों के बारे में आकार इतना बड़ा है कि तीन करोड़ सूर्यो को भी यह सोचा जा रहा है। वह अपने में समेट सकता है।
बृहस्पति के १२ उपग्रहो में बड़े है -- ब्रह्मांड नामक तारामण्डल का एक तारा आइओ. यरोपा. गैनीमीड और कैलिस्टो: सबसे 'एप्सिलोन' तीन अरब पचहत्तर करोड़ किलो- छोटा उपग्रह हैं-एमाल्थियाइन । मीटर व्यासवाला है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि इन उपग्रहों में से ___ हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह
कुछ में जीवन की पूर्ण संभावना है । माप उसके क्षेत्रफल का नहीं, अपितु व्यास का है।
सन् १९६१ में-पश्चिम वर्जीनिया के 'ग्रीन वैज्ञानिकों ने एक अति विशालकाय तारे
बैंक नेशनल रेडियो आब्जर्वेटरी' में एक सम्मेलन का पता लगाया है, उसका नाम है-बी ३८१
हुआ था। वृश्चिक । इस तारे का व्यास सूर्य-व्यास से ३००० गुना है। हमारी पृथ्वी का व्यास केवल
___ यहाँ सभी वैज्ञानिक एक 'ग्रीन बैक फार्मला' आठ हजार मील है । इस तुलना से इन तारों
| पर एकमत हो गये कि केवल अपनी आकाशके विराट आकार एवं क्षेत्रफल का सहज ही
गंगा में ही पाँच करोड़ सभ्यताएँ मौजूद हैं, जो अनुमान लगाया जा सकता है।
| आपसी सम्पर्क के लिए कोशिश कर रही हैं । खगोल-विज्ञान की आधुनिक खोजें यह
कोलंबिया विश्वविद्यालय के डॉ. लियोड मोज प्रमाणित करती हैं कि-विराट-ब्रह्माण्ड में ऐसे
कहना है कि --- करोड़ों ग्रह एवं उपग्रह विद्यमान है, जहाँ जीवन __अपनी आकाशगंगा में १०० अरब तारे है; जहाँ विकसित सभ्यताएँ है। इस विराठ हैं, जिनमें २० करोड़ तारे अपने सूर्य के समान विश्व के असंख्य ग्रह-उपग्रहों में अनेक चन्द्रलोक हैं और ६० करोड़ ग्रहों पर सभ्य जीवन है । व सूर्यलोक है-इसमें कोई शक नहीं है। प्रसिद्ध मानव-विज्ञानशास्त्री आशले मौंटेगू
___ आइये ! वर्तमान विज्ञान जगत् की उन | ने विश्वासपूर्वक कहा है कि - उपलब्धियाँ का अवलोकन करें जो स्पष्ट बताती 'दूसरे ग्रहों के जीव निश्चय ही हम से है कि विराट् ब्रह्माण्ड में करोड़ों ग्रहो पर जीवन | ज्यादा विकसित और बुद्धिमान हैं।' एवं विकसित सभ्यताएँ हैं।
प्रख्यात, कथाकार श्री एच. जी. वेल्स ने कुछ समय पहले 'मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट | अपनी पुस्तक 'दि वार ऑफ दि वर्ड्स' में यह ऑफ टेक्नोलोजी' ने एक रिपोर्ट दी थी कि- । बताया है कि -
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११२ ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका 'पृथ्वी से परे दूसरे ग्रहों-उपग्रहों पर जीवन उस महिला का उक्त पुस्तक में इस प्रकार है। वहीं विकसित सभ्यता विद्यमान है।' वर्णन मिलता है :
विज्ञान की अन्तरिक्ष-जगत् की विस्मयकारी "शुक्र-ग्रह पर जीवन की कला सीखना ही खोजों ने आधुनिक तर्कवादी मनुष्य को यह मुख्य प्रवृत्ति है । वहाँ पृथ्वी के समान कोई मानने के लिए विवश कर दिया है कि - धंधा-रोजगार नहीं है । वहाँ रात-दिन नहीं हैं,
सृष्टि अति विशाल एवं विराट् है तथा सुदूर पर सदा अत्यन्त तेजस्वी प्रकाश रहता है - ब्रह्मांड में जीवनवाले अनेकानेक ग्रह-उपग्रह इतना अधिक तेजस्वी कि अधिक से अधिक हैं जिनमें विकसित सभ्यताएँ हैं ।
प्रकाशित दिन में भी हमारी पृथ्वी 'अन्धकारा____ अमरिका के प्रख्यात खगोल वैज्ञानिक डॉ. च्छन्न गृह' के समान लगती है।" कार्लसागान अन्य ग्रहों पर जीवन का अस्तित्व 1. I asked her what went on अनिवार्य मानते हैं।
venus,, and she replied that instu
dion in the art of living was the उनकी यह मान्यता अनेक वैज्ञानिक-तथ्यों
main activity, also she indicated पर आधारित है ।
that work as we know it on Earth श्रीलंका में जन्मे अमेरीकी वैज्ञानिक डॉ. did not exist on that planet. The सीरिल ने अनेक तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया
medium informed us that the light
on Venus was constant and extremely है कि -
brilliant, so brilliant, in fact, that
our Earth was described as the अस्तित्व है।"
dark planet even on its brilliant day. ___ अब जरा परामनोविज्ञान-वेत्ताओ की उन -'The Power within,' page-180 रिपोर्टों के कुछ पृष्ठों को पलटें, जिनमें देवलोक देवलोक के अस्तित्व की एक और साक्षी के अद्भुत वर्णन अंकित है।
| डॉ. केनन ने अपनी पुस्तक में इस प्रकार ये वर्णन बताते हैं कि
प्रस्तुत की हैदेवलोक की कल्पना मनगढंत नहीं है __अमरिका के प्युब्लो-कोलोरडो की एक अपितु पूर्ण सत्य है।
गृहिणी रथ सिमोन्स ने 'एज रिग्रेशन' के प्रयोग __डॉ. एलेक्झेण्डर केनन ने अपनी विश्व- | के समय अपने पूर्व जन्म का व्यौरा देते हुए विख्यात पुस्तक 'दि पोवर विहीन' ( The_ कहा किPower Within ) में एक ऐसी महिला का मैं 'एस्ट्रल वर्ल्ड' अर्थात् देवलोक में हैं। वर्णन किया है -
यहां हमें खाने की या सोने की आवश्यजो अपने पूर्व जन्म में देवयोनि में जन्मी थो। कता नहीं होती और थकान भी नहीं लगती।
उपग्रहों पर जीवन का |or Parth
was
described a
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देवलोक की सृष्टि पुस्तक में जो संवाद दिया गया है वह प्रस्तुत है : 'There was no death, there was "वहाँ तुम अपना समय कैसे गुजारती थी?' | just a passing off...you passed from
that existence to another existence. 'बस मात्र अवलोकन करना।'
That's all, there was no death.' 'कुछ काम नहीं तो, तुम को समय लम्बा
Any disease ? नहीं लगता।
No. 'समय बीतता है, ऐसा यहाँ हमें लगता
- A Search For BRIDEY ही नहीं । तुम्हारे जैसे दिन-रात यहाँ नहीं है।'
page-151 2. 'Did you ever have to
ये वर्णन न तो शास्त्रों में से लिये गये हैं
eat anything ?'
और न किसी साहित्यकार की कल्पना की "No.'
उडान है । ये तथ्य आधुनिक परामनोविज्ञान के • You never had to eat ?'
प्रयोगों की रिपोर्टी में आलेखित हैं। 'No, never, ate, never sleep, never get tired there.'
देवलोक के विषय में शास्त्र मत है : - A Search for BRIDEY' वहाँ रात-दिन नहीं है। नित्य अत्यन्त
____page-120 | तेजोमय प्रकाश चमकता है। प्रत्येक देव को 'तम वहाँ थी तब पृथ्वी पर ब्रिान के | अमुक मर्यादा में अतीन्द्रिय ज्ञान होता है जिस घर पर क्या हो रहा है, तुम जानती थी ?' ।
| से वह भूत-भविष्य में दृष्टिक्षेप कर सकता है । 'मेरा उस ओर लक्ष्य नहीं था । हम चाहे | देवों को आहार-निद्रा की आवश्यकता तो जान सकते हैं।'
| नहीं होती, आहार की इच्छा होने पर बिना ___'इच्छामात्र से-वहाँ तुम सिर्फ विचार
आहार लिये ही तृप्ति हो जाती है। करो और सब देख पाते हो ।'
__आयु पूर्ण होने से पूर्व उन्हें यह ज्ञान हो 'वहाँ देवलोक में (एस्ट्रल वेल्डे) में, वृद्धा- | जाता है कि यहाँ से अलविदा लेनी पडेगी । देवों वस्था रोग, मृत्यु जैसा कुछ है क्या ?'
को हमारी तरह नौ महिने गर्भवास में रहना 'वहाँ मृत्यु नहीं है। तुम वहाँ हो तो
नहीं पड़ता और न उन्हें हमारी तरह बाल्या. मात्र वहाँ से अन्तर्धान हो जाओगे-दूसरे जीवन
वस्था से यौवनावस्था में जाना पड़ता है; परन्तु में चले जाओगे, बस वहाँ मृत्यु नहीं है।'
वहाँ उत्पन्न होते ही युवा शरीर प्राप्त हो जाता है । 'और कोई रोग?'
___ आधुनिक परामनोविज्ञान के अनुसार ये "ना" ।'
तथ्य पूर्णतया मेल खाते हैं। 3. Was there anything, were
। 'उर्वशी' महाकाव्य में देवलोक एवं देवthere anything in the astral world such ae death, disease or old age ?' | शरीर का वर्णन 'मेनका-रम्भा संवाद' में सरस
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तत्वज्ञान-स्मारिका शैली में हुआ है । मेनका रम्भा को पूछती है : | ऐसी भयंकर पीडा होने लगी।" यह दृश्य "कौन भेद है, क्या अन्तर है धरती और गगनमें, | मृत्युलोक का है। उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे ! तेरे भी मनमे।"
देवरूप में जन्म-अचानक मेरी सारी अप्सरा रम्भा उत्तर देतो है : | वेदना दूर हो गई । मैं एक सुन्दर उद्यान में "अमिट, स्निग्ध निधूम
धने पेड़ की छाया में सोई हुई थी। मैंने आँखें . शिखा सी देवों की काया है। खोली । मेरी दृष्टि मेरे शरीर पर पड़ी। मेरा मर्त्यलोक की सुन्दरता तो
शरीर हल्का, तेजस्वी और सुन्दर था। दूर से क्षण भर की माया है ।" एक मनुष्य मेरी ओर आ रहा था। चांदनी यह वर्णन भी देवलोक का सही चित्र जैसे सफेद वस्त्र उसने पहने थे । प्रस्तुत करता है।
___ 'चलो, उठो, मैं तुमको सब बताउँ ।' मेरे ___ इस तरह आधुनिक विज्ञान, शास्त्र एवं समीप आकर उसने कहा । हम लोग चलने साहित्य देवलोक के विषय में एकमत है। लगे। सामने से सुन्दर स्त्री-पुरुषों का एक देवलोक में उत्पन्न होते ही वयस्क युवा
। समूह आ रहा था । उनमें से कुछ के हाथों शरीर की प्राप्ति होती है।
में वाद्ययंत्र थे । कुछ गा रहे थे; कुछ लोगों के इसका एक दृष्टान्त अमेरिका में जन्मे
| हाथों में अत्यन्त सुगंधित फूलोंवाली डालियों थीं। परामनोविज्ञान के प्रोफेसर श्री अरविंद जानी ने 'ये सब कौन हैं ?' मैंने इस व्यक्ति से दिया है।
पूछा। श्री सुरेश दलाल ने 'संदेश' गुजराती पत्र ' यक्ष, किन्नर, गन्धर्व ।' में ता. २ नवम्बर १९६९ के अंक में इसे । 'कहाँ जाते ?' प्रस्तुत किया था । दृष्टान्त इस प्रकार है : 'आनन्द-यात्रा पर ।'
"एक महिला ने बताया : "मुझे इस समय 'मैं उनके साथ जा सकती हूं?' मेरी मृत्यु की सुबह याद आती है। दस बजे 'हाँ ।' थे । मेरे माता-पिता-सारा कुटुम्ब मेरे बिस्तर __मैं उनके साथ साथ आनन्द-यात्रा में के चारों और था । मेरी छाती में असह्य वेदना | सम्मिलित हुई। सम्मिलित होते ही मैं पृथ्वी पर थी। लाख-लाख बिच्छू एक साथ काटते हों, की सब चीजें भूल गई।"
४. 'उर्वशी' महाकाव्य के रचयिता राष्ट्रकवि रामधारीसिंह 'दिनकर' हैं । इस काव्यकृति पर महाकवि को एक लाख रुपयों का पुरस्कार 'ज्ञानपीठ' द्वारा प्राप्त हुआ है ।
५. 'विज्ञान और अध्यात्म' : चौथा : अध्याय आधुनिक खगोल और परामनोविज्ञान द्वारा निर्दिष्ट "परलोक की झांकी' पृष्ठ-५३
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देवलोक की सृष्टि उपरोक्त वर्णन जैन शास्त्रों में वर्णित देव- वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु ने 'क्रेस्कोग्राफ' लोक के समान है।
| (Crescograph ) यंत्र का आविष्कार किया । परामनोविज्ञान की इन खोजों ने देवलोक
यह यंत्र पेड़-पौधों एवं वनस्पति के विकास आदि लोकों के प्रति विश्वास उत्पन्न कर दिया है। एवं सुख-दुःख को अनुभूति का बोध कराते है। ' श्री कल्पसूत्र में यह वर्णन है कि- | इस आविष्कार ने आधुनिक वैज्ञानिकों को
श्री देवेन्द्र ने बाल प्रभु को मेरु पर्वत पर आश्चर्यविभूत कर दिया था। ले जताते हुए अपने पाँच रूप बनाये थे--यह
मानव की उपरोक्त वर्णित सुंदर ग्रहों एवं देवों के लिए सहज है।
उपग्रहों में पहुंचने की चिरकालीन अभिलाषा देव इच्छानुसार मनोवांछित रूप धारण | हैं । वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधानों द्वारा यह कर सकते है।
बताया है कि-- __माता त्रिशला को अवस्वापिनी नींद में |
____ यदि मनुष्य ५ मील प्रति सेकण्ड की गतिसुलाना विज्ञान को दृष्टि में सामान्य बात हैं।
| वाले रॉकेट में बैठकर जाय, तो भी सब से ____ क्लोरोफार्म जैसी औषधियों के सूंघने से
| करीब के तारे ‘प्राक्सिमा सेंटारी' तक पहुंचने तुरन्त बेसुधी आती है।
में उसे ८०,००० (अस्सी हजार) साल चिकित्सा विज्ञान में ऐसी औषधियों का लगेंगे। प्रयोग सामान्य बात है।
इसी से मानव का गर्व खर्व हो जाता है। श्री जिनेश्वरदेव भाषित एवं श्री गणधर
अतः मनुष्य को चाहिये कि प्राणीमात्र के रचित शास्त्रों में जो वर्णन है, वह पूर्ण सत्य है।
प्रति प्रेम भाव रखता हुआ सदाचार के शिवपथ विज्ञान की ज्यों-ज्यों खोजें हो रही हैं त्यों-त्यों |
पर चलें और इहलोक और परलोक को सुधारें। जिन वाणी का सत्य उजागर होता जा रहा है। - वनस्पति आदि में जीवन होता है।
___ वह वैज्ञानिक खोजों द्वारा प्राणीमात्र के जैन धर्म की इस मान्यता पर पाश्चात्य,
कल्याण की भावना करें। विद्वानों ने शंका की थी। किन्तु भारत के प्रसिद्ध । ॥शिवमस्तु सर्वजगतः ।।
६. लेख-दूसरे ग्रहों से संदेश आ रहे है : लेखक-रामभूति; धर्मयुग १४ अक्टू. १९७३
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पातंजल योगशास्त्र के अनुसार भुवनों का स्वरूप - डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी, नईदिल्ली
योगसूत्र द्वारा भुवनज्ञान का संकेत
महर्षि पतंजलि ने योग-दर्शन में 'भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ' ( ३।२६ ) इस सूत्र की रचना करके अभिव्यक्त किया है कि - "सूर्य में संयम करने से समस्त भुवनों लोकों का ज्ञान प्राप्त होता है । "
इस सूत्र से पूर्व पतंजलिने सात्त्विक - प्रकाश का आलम्बन लेकर सूक्ष्म, व्यवहित एवं विप्रकृष्ट ज्ञानरूप सिद्धियों का संकेत किया है और उससे परमाणु, महत्तत्त्व आदि सूक्ष्म पदार्थों का, एवं सागर के अन्तराल में निहित रत्नादि, भूमि के गर्भ में छिपे खनिजादि तथा दूर देश सुमेरुपर्वत के दूसरी ओर विद्यमान रसायन, औषधि आदि के ज्ञान की बात सिद्ध होती है ।
अतः यह सूत्र भौतिक - प्रकाश के विषय में संयम करने का संकेत देकर उससे भुवनज्ञान - सिद्धिरूप फल की प्राप्ति बतलाती है । टीकाकारों द्वारा पल्लवित भुवन - ज्ञान
तथा अन्यान्य प्रान्तीय भाषाओं में इस ग्रन्थ के आधार पर पर्याप्त चिन्तन हुआ है और हो रहा है ।
व्याख्याकारों में - व्यासदेव, वाचस्पतिमिश्र, विज्ञानभिक्षु, नागेशभट्ट, हरिहरानन्द आरण्यक तथा नारायणतीर्थ आदि ने 'भुवनज्ञान' के बारे में विस्तार से प्रतिपादन किया है।
4
वैसे उपर्युक्त व्याख्याकारों के विचारों में भुवनज्ञान-सम्बन्धी विचार प्रायः समान ही हैं । तथापि योगसिद्धान्तचन्द्रिका' - व्याख्या के रचयिता श्री नारायणतीर्थ ने अपने पूर्ववर्ती व्यास, वाचस्पति आदि के भुवन - ज्ञान सम्बन्धी विचारों को पर्याप्त विस्तार के साथ आगे बढ़ाया है । यही कारण है कि प्रस्तुत लेख के शीर्षक में 'योगशास्त्र के अनुसार' ऐसा लिखा गया है । वैसे भुवनों का वर्णन प्रायः पुराणों में ही अधिक उपलब्ध होता है ।
योगसिद्धान्त चन्द्रिका टीका में निर्दिष्ट भुवनज्ञान
'पातंजल योगदर्शन' एक सूत्र ग्रन्थ है । अतः इसके सूत्रों की व्याख्या अत्यावश्यक मानी गई । आज तक संस्कृत भाषा में इस पर प्रायः २० टीकाएँ प्राप्त हैं । हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी । है । शास्त्रों में ब्रह्माण्ड शब्द के साथ महा शब्द
टीकाकार नारायणतीर्थ ने उपर्युक्त सूत्र के सन्दर्भ में 'भुवन' शब्द का तात्पर्य लोक माना
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पातंजल योगशास्त्र के अनुसार भुवनों का स्वरूप [११७ जोड़कर 'महाब्रह्माण्ड' को अनेक ब्रह्माण्डों का | मुखान्धकूप, कृमिभोजन, मदशत, प्रभूमिवत्र, आधार माना है। अतः इस महाब्रह्माण्ड में | कण्टक, शाल्मलि, वैतरणी, प्रमोद, प्राणरोध, अनेक संक्षिप्त ब्रह्माण्ड हैं और एक ब्रह्माण्ड | विशसन, लालाभक्षण, सारमेयादन, मदाचिरय, चौदह भुवनों की समष्टि से निर्मित है। पानक्षार, कर्दम, रक्षोगण, भोजनशूल, प्रोतदन्द,
इस दृष्टि से भूलोक को केन्द्र मानकर शूकावट, निरोधन, पर्यावर्तन, सूचीमुख आदि । 'भूरादि सत्यान्तानि उपरितनानि' कहकर उसके | | इन सब से मिलकर एक ब्रह्माण्डावयव का ऊपर छह लोक माने गये हैं।
| स्वरूप बनता है। इनके नाम हैं-(१) भुवों क, (२) स्वर्लोक,
इसी प्रकार के असंख्य ब्रह्माण्डावयव महा(३) महर्लोक, (४) जनलोक, (५) तपोलोक | ब्रह्माण्ड में समाविष्ट हैं । उक्त ब्रह्माण्डावयव एवं (६) सत्यलोक ।
का महाब्रह्माण्ड में उतना ही स्थान है जितना __ ये ऊपर स्थित होने से 'ऊर्ध्वलोक' भी
कि आकाश में जुगनूं का। कहे जाते हैं और एक दूसरे से नीचे होने से वे | ब्रह्माण्डमध्ये संक्षिप्तं ब्रह्माण्डं च प्रधासत्यलोक के नीचे वाले लोक 'अधोलोक ' भी नस्यावयवो यथाकाशे खद्योतः । (यो. सि. चं. माने जा सकते हैं।
पृ. १२८) 'अतलादिपातालान्तान्यधस्तनानि' के अनु- | भूलोक तथा उसके द्वीपादि सार भूलोक से नीचे सात लोक है जिनके नाम है- उपर्युक्त ब्रह्माण्डावयव में स्थित लोकों में (१) अतललोक, (२) वितललोक, (३) सुतललोक, | भूलोक की अपनी विशिष्टता है। इसमें सात (४) तलातललोक, (५) महातललोक, (६) द्वीप हैं । मत्स्य एवं वायु आदि पुराणों में रसातललोक तथा (७) पाताललोक ।' ये सातों | 'द्विरापत्वात् स्मृतो द्वीपः' (म. १२३॥३५) (वायु. अधोलोक हैं।
४९।१३२) कह कर स्पष्ट किया गया है कि___इनमें भी पाताललोक से ऊर्ध्ववर्ती लोक | 'जिसके दोनों ओर जल हो वह द्वीप होता है। 'ऊर्ध्वलोक' कहे जा सकते हैं।
किन्तु इन्हीं पुराणों में अन्यत्र 'द्वीपस्य मण्डली-- इन पाताललोकों के ऊपर जलावरण है। | भावात्' कह कर द्वीप को मण्डलाकार भी इनके ऊपर तथा भूमि के नीचे तामिस्र, अन्ध- | बताया है। तामिस्र, रौरव, कुम्भीपाक, मूलासिपत्र, बनसूकर, सात द्वीप क्रमशः-'जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि,
१-अन्यत्र भी पृथ्वी के नीचे चौदह लोकों का वर्णन मिलता है । यथा सबसे नीचे (१) अवीचि, (२) महाकल, (३) अम्बरीष, (४) रौरव, (५) महाशैरव, (६) महासूत्र, (७) अन्धतामिस्र आदि । कहीं पुराणो मे २८ तरक भी बनाये गये हैं वे ही ऊपर लिखे है। २-अष्ठानां तु सहस्राणां सहस्राण्ययुतानि च । ईदृशानां तथा तत्र कोटि-कोटि शतानि च ॥ (विष्णुपुराण)
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तत्त्वज्ञान-स्मारिका कुश, क्रौंच, शाक तथा पुष्कर' नाम वाले हैं। । हजार वर्ष की है । माया और मति इनके आधीन प्रत्येक द्वीप एक-एक समुद्र से आवेष्टित है तथा | रहते हैं । ये अपनी स्त्रियों सहित विहार करते हैं । वे दोनों वलयाकार हैं।
रमणक वर्ष में मनुष्यों का आवास है । वलयाकार वाले इन द्वीपों में 'जम्बूद्वीप' पुण्यकर्मों के कारण यहां के निवासी दस हजार की स्थापना मध्य में है।
वर्ष पर्यन्त प्राण-धारण करते हुए सुख से रहते ' स्वयं एक लक्ष योजन विस्तृत और दो
हैं । यह मनुष्यों की भोगभूमि है। लक्ष योजन विस्तृत लवणसमुद्र से वेष्टित इस |
सुमेरु के दक्षिण भाग में निषध, हेमकूट जम्बूद्वीप के मध्य में मेरु-सुमेरु पर्वत है।
तथा हिमशैल' नामक तीन पर्वत हैं । यहां सर्प, सुमेरु पर्वत की ऊँचाई ८४ हजार योजन
नाग, गन्धर्व आदि दिव्य योनियां रहती हैं । है। यह शिरोभाग में ३२ हजार योजन तथा
__ हेमकूट पर्वत पर गुह्य जगत के लोग रहते मूल से १६ हजार योजन विस्तारवाला है।
हैं । ये पर्वत भी दो-दो सहस्रयोजन विस्तृत हैं । सुमेरु के चार शिखर हैं-पूर्व में रजतमय,
इन पर्वतों के मध्यभाग में एक-एक वर्ष दक्षिण में वैडूर्यमणिमय, पश्चिम में स्फटिक का एवं और उत्तर में हेममणिमय हैं।
है जिनके नाम क्रमशः हरिवर्ष, किंपुरुष और सुमेरु की उत्तर दिशा में तीन पर्वत हैं |
* भारतवर्ष है । प्रत्येक वर्ष का विस्तार नौ-नौ नील, श्वेत तथा शृंगवान् । इन तीनों का
हजार योजन है । विस्तार दो-दो सहस्र योजन है । वैदुर्यमणि हरिवर्ष में ब्रह्माण्ड के अनुयायी दैत्य, को कान्तिवाले नीलपर्वत पर ब्रह्मर्षि, रजताभामय | दानव, नृसिंहादि निवास करते हैं । श्वेतपर्वत पर देवासुर तथा हेमरत्नादिमय शृंग किंपुरुष वर्ष में किंपुरुष, गन्धर्व आदि के वान् पर्वत पर सपत्नीक देवगण रहते हैं। साथ हनुमान् प्रभृति रहते हैं । ये अष्टादश ... इन तीनों पर्वतों के मध्य एक-एक वर्ष पुराण, इतिहास आदि के द्वारा श्रीराम का है जो क्रमशः रमणक, हिरण्यक तथा उत्तरकुरु | गुणगान करते हैं। नाम से विख्यात हैं । प्रत्येक वर्ष नौ-नौ हजार भारतवर्ष में निवास करनेवाले मनुष्य अपने योजन विस्तार वाला है।
शुभाशुभ कर्मानुसार स्वर्ग, नरक अथवा मोक्ष के उसरकुरु में ऐसे दिव्य वृक्ष हैं जो समस्त अधिकारी होते हैं । अन्य खण्डों की भांति यह कामनाओं को पूर्ण करते हैं । हेम तथा सुवर्ण | केवल भोग भूमि नहीं है, अपि तु कर्मभूमि भी है। कण की भूमिवाले इस वर्ष में तेरह हजार वर्ष | यहां बहने बाली गंगा आदि नदियों में की आयुवाले देवगण निवास करते हैं। स्नान करके पुण्यात्माएँ पापकालुष्य को दूर
हिरण्य वर्ष के देवताओं की आयु :ग्यारह | करती हुई अपने को कृतकृत्य मानती हैं ।
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पातंजल योगशास्त्र के अनुसार भुवनों का स्वरूप ये आत्माएँ विन्ध्यादि पर्वतों की चोटियों । अन्य द्वीप और उनकी विशेषताएँ पर चढ़कर भगवद्भक्ति में निमग्न रहती हैं। शास्त्रों में 'सप्तद्वीपा वसुन्धरा' कहा गया दूसरी ओर नारकीय दुरात्माएँ काम-क्रोधादि । है । तदनुसार प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है तथा शेष से अपनी आत्मा को मलिन करती हुई व्यभि- | अन्य पक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक एवं चार-प्रिय होती हैं जो कभी मोक्ष प्राप्त नहीं पुष्करद्वीप बतलाये हैं। इनका परिचय योग करती हैं।
शास्त्रानुमोदित इस प्रकार हैंसुमेरु पर्वत की पूर्व दिशा में दो हजार | १-क्षद्वीप- जम्बूद्वीप से दुगुने परिमाण योजन विस्तृत माल्यवान् पर्वत है । इससे आगे | (दो लाख योजन) वाला यह द्वीप है । यह चार समुद्रपर्यन्त विस्तृत भद्राश्व वर्ष है, जो इकतीस लक्ष योजनवाले इक्षुरस-समुद्र से आवेष्टित है। हजार योजन विस्तृत है, यहां शक्ति और तेजः | इसमें-शिव, वयस् , सुभद्र, शान्त, क्षेम, सम्पन्न दस सहस्रजीवी मनुष्य निवास करते हैं। अमृत तथा अभय नामक सात वर्षों से युक्त है। सिद्ध--चारण इनकी शुश्रूषा करते हैं और ये तथा इन वर्षों में मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रलोग वनविहारप्रिय हैं।
सेन, ज्योतिष्मान् , सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव तथा मेघसुमेरु के पश्चिग में दो सहस्रयोजन विस्तृत
माल नाम सात पर्वत है। गन्धमादन पर्वत हैं । इस पर अनेक सेवकों के । यहां अरुणा, तृष्णा, अंगिरसी, सावित्री, सहित कुबेर का निवास है जो अनेक सुन्दर सुप्रभाता, ऋतम्भरा तथा सत्यम्भरा नामक सात ललनाओं के साथ आमोद-प्रमोद मनाते । नदियां बहती हैं । इन नदियों का जल स्पर्शमात्र रहते हैं।
से मनुष्यों के पाप को दूर करता है । यहां के यहां इकतीस हजार योजन विस्तृत हेतु
निवासी सूर्योपासक हैं और वे एक सहस्र वर्षमाल देश है । यह भय एवं शोक रहित दश
जीवी होकर प्रजा आदि से परिपूर्ण होते हैं । सहस्रजीवी मनुष्यों की आवासभूमि है।
२-शाल्मलद्वीप-यह द्वीप प्लक्षद्वीप से सुमेरु के चारों ओर अठारह हजार योजन द्विगुणित विस्तारशाली है तथा अपने से दुगुने विस्तृत इलावृतवर्ष है।
आयामवाले सुरा समुद्र से आवेष्टित है। इस प्रकार जम्बूद्वीप में कुल नौ वर्ष एवं इसमें भी सात वर्ष, सात पर्वत और सात नौ पर्वत हैं।
| नदियां हैं। सम्पूर्ण जम्बूद्वीप पूर्व से पश्चिम की ओर जिनके नाम इस प्रकार हैं-सात वर्षअथवा उत्तर से दक्षिण की ओर एक लक्ष सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देव, पारिभद्र, आ. योजन विस्तृत है।
प्यायन तथा अविज्ञात ।
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१२. ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका सात पर्वतों के नाम हैं-स्वरस, शतशृंग, और शुक्ला नामक नदियां इस द्वीप में बहती वामदेव, कुन्द, कुमुद, पुष्पवर्ष तथा सहस्रस्तुति । | है तथा यहां के निवासी वरुण की उपासना ... अनुमति, सिनीवाली, सरस्वति, कुरु, रजनी, | करते हैं । नन्दा तथा राका नामक सात नदियां प्रमुख | ५-शाकद्वीप-दधिसमुद्र से आवेष्टित यह हैं। यहां के निवासी सोमोपासक हैं। द्वीप क्रौंचद्वीप से द्विगुणित आयामवाला है।
३-कुशद्वीप--शाल्मलद्वीप से दुगुने आयाम- तथा इसके सात वर्षों के नाम हैं-पुरोजब, वाला यह द्वीप आठ लाख योजन विस्तृत है । मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेक, बहुरूप
और सोलह लाख योजन विस्तारवाले घृतसमुद्र तथा विश्वधारा । से भावेष्टित है।
ईशान, ऊरु श्रृंग, बलभद्र, शतकेशर, सहस्र.. पूर्ववत् यहाँ-'वसु, वसुदान, दृढरुचि, स्रोत, देवपाल एवं महानस नामक सात पर्वतों नाभिगुप्त, सत्यकृत, विविक्त एवं नाभदेव' ऐसे | से यह विभूषित है। सात वर्ष हैं।
___ अनधा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, .. चक्र, चतुःशृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, पञ्चनदी, सहस्रस्तुति तथा निजधृति-ये सात ऊर्ध्वरोम और द्रविण नामक सात पर्वतों नदियां यहां प्रवाहित होती हैं और यहां के की यहां स्थिति है।
प्राणी समाधि लगाकर प्राण की उपासना .. यहां की नदियों के नाम घृतकुल्या, रस
करते हैं। कुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता
६-पुष्करद्वीप-स्वादूदक समुद्र से वलयाऔर मन्त्रमाला हैं और यहां के निवासी अग्नि कारित यह द्वीप शाकद्वीप से दुगुना बड़ा है । की उपासना करते हैं।
यहां मानसोत्तर नामवाला केवल एक ४-क्रौञ्चद्वीप-कुशद्वीप से द्विगुण आयाम
पर्वत है, जो कि एक अयुत योजन ऊंचा है। वाला यह द्वीप अपने से द्विगुणित क्षीरोदधि से
इसके चारों और इन्द्र आदि लोकपालों के परिवेष्टित है।
चार पुर हैं। यहां के सात वर्ष-आभ, मधुरुह, मेषपृष्ठ, स्वादूदक समुद्र के आगे की भूमि एक सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण तथा वनस्पति नाम | ओर से एक करोड़ सत्तावन लाख पचास हजार से विख्यात हैं और शुक्र, वर्धमान, भोजन, उप- | आयामवाली है । बर्हण, नन्द, नन्दन एवं सर्वतोभद्र नाम से यह भूमि लोकभूमि कहलाती है। इससे प्रसिद्ध सात पर्वतों की यहां स्थिति है । अभया, आगे लोकालोक पर्वत है और उससे आगे अमृतौधा, अर्वका, तीर्थवती, रूपवती, पवित्रवती । कांचनमयी अलौकिक देवताओं की क्रीडाभूमि है।
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पातंजल योगशास्त्र के अनुसार भुवनों का स्वरूप [१२१ अन्य लोक और उनके स्वरूप
__ ब्रह्मपुरोहित दो हजार, ब्रह्मकायिक चार ___ भू-लोक का परिचय हमने ऊपर दिखलाया | हजार, ब्रह्म महाकायिक आठ हजार तथा अमर है, इसके अतिरिक्त अन्य छह लोक और हैं | संज्ञक देव सोलह हजार कल्प की आयुवाले जिनके नाम-स्वरूपादि इस प्रकार हैं
| होते हैं। १-भुवर्लोक-भू-लोक के ऊपर यह लोक । ५-तपोलोक-जन-लोक से ऊपर तपोस्थित है । इसका दूसरा नाम 'अन्तरिक्ष है। लोक है, यहां अहंकार को वश में रखनेवाले १यहां ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण ज्योतिश्चक्र में अभास्वर २-महाभास्वर तथा ३-सत्य महानिबद्ध होकर सञ्चरण करते हैं ।
भास्वर-ऐसे तीन प्रकार के देव रहते हैं।
ये जन-लोक के देवताओं की अपेक्षा द्विगुण२-स्वर्लोक-अन्तरिक्ष के ऊपर स्थित इस लोक को माहेन्द्रलोक भी कहते हैं।
द्विगुण आयुष्वाले हैं और ये सभी ऊर्ध्व रेतस्
होते हैं। यहां-त्रिदश, अग्निप्वात्त, याम्य, तुषित,
-सत्यलोक-सब लोकों से ऊपर सत्यभपरिनिर्मित, वशवर्ती तथा परिनिर्मित, वशवर्ती- लोक है। ऐसी छः देवजातियां हैं।
यह योगियों की निवासभूमि है। यहां के ये समस्त देव सिद्ध संकल्प तथा अणिमा
योगी चार प्रकार के हैं-१-अच्युत, २-शुद्धआदि आठ ऐश्वयों से सम्पन्न होते हैं। निवास, ३, सत्याभ तथा ४ - संज्ञा संज्ञी । ये
चारों प्रकार के योगी क्रमशः सवितर्क सविचार, ये शरीरधारण में स्वतन्त्र हैं और एक .
सानन्द और सास्मित समाधि सिद्ध हैं। कल्प पर्यन्त जीवित रहते हैं।
प्रणवोपासक इन योगियों की आयु सर्ग३-महर्लोक-'प्राजापत्य--लोक' इस का पर्यन्त होती है। दूसरा नाम है । यह स्वर्लोक के ऊपर है । यह
भूलोक के अधोवर्ती लोक कुमुद, ऋभु, प्रतर्दन, अजनाभ, और अमिताभ-संज्ञक पांच देवजातियों की निवासभूमि
१-अतल-लोक-भूलोक के नीचे यह लोक है। ये पंचमहाभूतों को वश में करनेवाले,
स्थित है। यहां मय-पुत्रादि असुर निवास
करते हैं। ध्यानप्रिय तथा कल्प-सहस्र आयुवाले होते हैं ।
२-वितल-लोक-यह पूर्ववर्ती लोक के ४-जनलोक-इसकी स्थिति महर्लोक के ऊपर है। यहां चार प्रकार के देवसमूह हैं-१- यहां भगवान् शिव पार्वती के साथ विहार ब्रह्मपुरोहित २-ब्रह्मकायिक, ३-ब्रह्ममहाकायिक करते हैं क्यों कि शिव हाटकी नदी के अधिपति और ४-अमर । ये भूतेन्द्रिय-वशी हैं। माने गये हैं । यह नदी यहीं प्रवाहित होती है।
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१२२ ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका
यहां भूत, प्रेत, पिशाच, अवस्मार, ब्रह्म- | उपसंहार राक्षस, कूष्माल्ड, विनायक आदि निवास यद्यपि यह कहने वाले नास्तिकप्राय बहुत करते हैं।
से लोग हैं, जो ऐसे भुवन-विज्ञान को निराधार ३-सुतल-लोक-यह वितल--लोक से नीचे हैं।। अथवा कल्पना-प्रसूत साहित्य की कोटि का यहां भगवान् कृपा से अनुगृहीत, आत्म-समर्पण मानते हैं, किन्तु जैसे-जैसे विज्ञान अपने पंख के अभिलाषी, प्रभु के प्रवर भक्त अपनी भक्त
फैला रहा है, वैसे ही इस विज्ञान की सत्यता मण्डली के साथ निवास करते हैं ।
सम्मुख आ रही है । हजारों वर्षों से चली मा ४-तलातल-लोक-उपर्युक्त लोक से नीचे
रही भारतीय-संस्कृति में इस लोक-विज्ञान का इस लोक की स्थिति है।
महान् आदर है। यहां मायावी मय और उनके अनुचर
प्रत्येक आस्तिक भारतीय इन लोकों का
सादर-स्मरण अपने दैनिक और नैमित्तिक धार्मिक रहते हैं।
कृत्यों में करता आया है। ५-महातल-लोक-यह तलातल के नीचे । विद्यमान है।
भारतवर्ष की महिमा का स्मरण इन लोको
के ज्ञान के बिना अपूर्ण ही कहा जाएगा। तथा यहां तक्षकादि सर्पगणों की स्थिति है।
___ जो लोक इस आर्ष-विज्ञान को अनुपादेय ६-रसातल-लोक-इस लोक की स्थिति
मानते हैं, वे वस्तुतः दया के पात्र हैं। महातल के नीचे है।
क्योंकि उनका जीवन चार्वाक के सिद्धान्तों के यहां दैत्य, दानव, निवात, कवच प्रभृति
अनुसार केवल 'होटल में खाओ और होस्पीरहते हैं।
टल में मर जाओ' का ही अनुसरण कर रहा है। ७-पाताल-लोक-पूर्वोक्त सभी लोकों के
अस्तु ! हमारा तो यहो निवेदन है कि नीचे यह लोक है।
प्रत्येक विवेकी-मानव को ऐसे तत्वों का अनुयहां वासुकी आदि साधिराज सपरिवार | शीलन करते हुए सत्य को साधना में अग्रसर निवास करते हैं।
होना चाहिये।
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54.
एक अमेरिकन विद्वान की खोज पृथ्वी गोल नहीं, चपटी है !!! लेखक : श्रीयुत हरिराम नागर
उज्जैन (म. प्र.) Mara t URRRRORSCOS.
यह एक नई शोध है, जो जैन मान्य- स्वीकृत किये गये हैं; वे हमारी पृथ्वी पर भी ताको प्रमाणित करती है। वैज्ञानिक दृष्टि से लागू होंगे। ऐसी दशामें जिन आधारों पर इस आज तक पृथ्वीको गोल मानी जाती है, पर | सिद्धांतकी स्थापना की गई है, वे सब अकाट्य पृथ्वी चपटी है, यह वैज्ञानिक दृष्टिसे लेखकने | और अप्रत्यक्ष हैं। कितने ही प्रमाण देकर अपने विषयको स्पष्ट इसमें सन्देह नहीं कि खोज निकट भविष्य करनेका प्रयत्न किया है । यह प्रयत्न जैन | में समस्त वैज्ञानिक-जगतमें उथल-पुथल मचा सिद्धांतको सच्चे-रूपमें प्रगट करता हैं । संपा०] | देगी। पाठकोंके मनोरंजनार्थ कुछ चुने हुए
हम पृथ्वीकी गोलाईसे इतने अधिक परिचित | प्रमाण दिये जाते हैं-- हो गये हैं कि इसके विरुद्ध कही जानेवाली | (१) प्रत्येक आधुनिक वैज्ञानिक इस बातको किसी भी बात पर हम सहसा विश्वास नहीं | स्वीकार करता है कि चन्द्रमा और अन्य ग्रहोंका कर सकते।
एक मुख सदैव पृथ्वीकी ओर रहता है । यदि वे इस कारण कन्दुकाकार-पृथ्वीको चपटा | ग्रह कंदुकाकार होते और अपनी धुरी पर घूमते कहकर एक अर्वाचीन-सिद्धांतने सचमुच हमें | तो निश्चय ही प्रत्येक दिवस अथवा प्रत्येक मास आश्चर्यमें डाल दिया है । हो सकता है, भविष्य | या प्रत्येक सालमें उनके भिन्न २ धरातल पृथ्वी में किसी दिन पृथ्वी 'रकाबी' आकारकी बताई | की ओर होते । जाने लगे।
इससे सिद्ध है कि चन्द्रमा और अन्य ग्रह "श्री जे० मेकडोनाल्ड" नामक अमेरिकन रकाबीकी भांति है, जिनके किनारे केन्द्रकी अपेक्षा वैज्ञानिक ने अपने एक लेखमें अनेक दृढ़ प्रमाण | कुछ ऊंचे उठे हैं । यदि सचमुच पृथ्वी भी एक देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि | ग्रह है तो अवश्य ही उसका आकार इस रकापृथ्वी नारंगीके समान गोल नहीं है। बीके समान है।
उसने कहा है कि यदि पृथ्वीको अन्य ग्रहों । (२) यदि पृथ्वी गोल होती तो सनातन की भांति एक ग्रह माना जाय, तो निश्चय ही हिमश्रेणियोंकी ऊँचाई भूमध्यरेखा से दक्षिण में जो सिद्धांत दूसरे नक्षत्रों एवं ग्रहों के अध्ययनसे ' उतनी ही होती जितनी कि उत्तरमें ।
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१२४ ]
- स्मारिका
तत्वज्ञान
दक्षिणी अमेरिका में सनातन हिमश्रेणियों की
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ऊँचाई १६ फुट है, और जैसे हम उत्तर की ओर बढते हैं, यह ऊँचाई क्रमशः कम होती जाती हैं; यहां तक कि अलास्का पहुँचने पर वह केवल २००० फुट ही रह जाती है। अधिक उत्तर की ओर जाने पर यहां ऊँचाई समुद्र तल से केवल ४०० फुट नापी गई है ।
(३) पृथ्वी गोल होती तो उत्तरी ध्रुवके समीप जैसी वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, वैसे ही दक्षिणी ध्रुवमें भी होती ।
" बास्तवमें उतरी - ध्रुवके इर्दगीर्द २०० मीलके भीतर कई प्रकारकी वनस्पतियां पाई गई हैं।"
ग्रीनलैंड, आइसलैंड, साइबेरिया आदि शीत कटिबंध के निकटस्थ प्रदेशमें आलू, मटर, जौ, तथा चनेकी फसलें तैयार होती हैं। इसके विपरीत दक्षिण में ७० अक्षांश पर ओरकेनी शेट्लैंड आदि टापुओं पर एक भी जीव नहीं पाया जाता ।
(४) यदि पृथ्वी गोल होती तो उत्तर में जिस अक्षांश पर जितने समय तक उषःकाल रहता है; उतने ही अक्षांश पर दक्षिणमें भी उतनी ही देर उषःकाल रहता । किंतु वास्तवमें ऐसा नहीं है ।
उत्तर में ४० अक्षांश पर ६० मिनट तक पका रहता है और सालके उसी समय भूमध्यरेखा पर केवल १५ मिनट और दक्षिणमें ४० अक्षांश पर तो केवल ५ ही मिनट । मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया आदि प्रदेश उसी अक्षांश पर हैं, जिन पर उत्तर में फिलाडेल्फिया है ।
यहां एक पादरी फादर जोन्सटनने इन दक्षिण- अक्षांशों को यात्रा के सिलसिले में लिखा है कि
"यहां उषःकाल और सन्ध्याकाल केवल ५ या ६ मिनट के लिये होते हैं । जब सूर्य क्षितिके ऊपर ही रहता है, तभी हम रातका सारा प्रबन्ध कर लेते हैं। क्योंकि जैसे ही सूर्य डूबता है, तुरन्त रात हो जाती है । "
इस कथन से सिद्ध हैं कि यदि पृथ्वी गोल होती तो भूमध्य रेखाके उत्तरी- दक्षिणी भागों में उषःकाल अवश्य समान होता ।
में केप्टन फ्रॉशियर के साथ यात्रा करते हुए (५) केप्टन जे० रास सन् १८३८ ई०
जितनी अधिक दक्षिणकी ओर आटलांटिक (ऐंटार्कटिक ) सरकिल तक जा सके गये ।
वहां
उनके वर्णनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने पहाड़ोकी ऊँचाई १०,००० से लेकर १३,००० तक नापी और ४५ फुटसे लेकर १,००० फुट तक ऊँची एक पक्की बर्फीली दीवार खोज निकाली ।
इस दीवारका ऊपरी भाग चौरस था और उस पर किसी प्रकार की दरार या गड्ढा न था । उस पर चार वर्ष तक ४०,००० मीलकी यात्रा हुई । किन्तु दीवारका कहीं अन्त न हुआ ।
यदि पृथ्वी गोल होती, तो इसी अक्षांश पर पृथ्वी की परिधि केवल १०, ८०० मील होती, अर्थात् ४०,००० मीलके बजाय केवल १०,८०० मीलकी यात्रा पर्याप्त होती ।
(६) यदि उपर्युक्त सिद्धांत ठीक है भूमध्यरेखा निश्चय ही भूकी मध्यरेखा ही है; क्योंकि
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पृथ्वी गोल नहीं चपटी है।
[ १२५ भू-मध्यरेखा दक्षिणमें समस्त देशांतर-रेखायें यह पश्चिमी और उत्तरी अफ्रीका, उत्तरी उत्तरी भागके समान सँकरी न होकर चौड़ाई में अन्ध महासागर, ग्रीनलेण्ड, आइसलेण्ड, उत्तरी बढ़ती ही जाती हैं। यहां कोई काल्पनिक एशिया (साइबेरिया) और ब्रिटिश अमेरिकाके आधार नहीं किन्त अवलोकनीय सत्य है। पूर्ण भागोमें स्पष्ट दिखाई पड़ा था । कर्करेखा (२३॥ अंश उत्तर, का एक
___ यदि पृथ्वी गोल होती तो अमेरिका और अंश ४५ मीलके लगभग है, किन्तु इससे विप
एशियामें कभी एकसाथ यह ग्रहण दिखाई रीत मकर रेखा २३॥ अंश दक्षिण) पर वही
न पड़ता। अंश ७५ मीलके लगभग होता है । यही नहीं,
पृथ्वीका गोला लेकर इस सरल समस्या दक्षिणकी एटलांटिक सरकिल पर तो यह माप
पर स्वयं ही विचार किया जाता है या जाना बढ़कर १०३ मील हो जाता है।
जा सकता है। और देखिये-- (७) उत्तर ध्रुवका समुद्र १०,००० से
(९) प्रयोगोंसे सिद्ध है कि ज्यों ज्यों हम लेकर १३,००० फुट तक गहरा है, किन्तु
| उत्तरी ध्रुवकी और बढ़ते त्यों त्यों पृथ्वीको आकपृथ्वी तल कहीं भी ५०० फुटसे ऊँचा नहीं है।
र्षण शक्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती प्रतीत होती है। ____ यदि केप्टन रास वर्णनसे इसकी तुलना
____ उत्तरी ध्रुवके अन्वेषकोंका यह कहना है की जाय तो ज्ञात होगा कि दक्षिणी ध्रुवके
कि वे वहां कठिनतासे १०० पौंडका भार ऊठा पहाड़ १०,००० से १६,००० फुट तक ऊँचे
सकते थे, किन्तु दक्षिणी-ध्रुवके अन्वेषक इसके
विपरीत यह कहते हैं कि उन्होंने वहां ३०० है और समुद्र की गहराई ४२३ फुट है।
पौंडसे ४०० पौंड तकका भार सरलता से इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि पृथ्वी
उठाया है। मध्यकी अपेक्षा उसका किनारा अधिक उन्नत
____ यदि पृथ्वी गोल होती तो दक्षिण ध्रुव भी हैं, पृथ्वीको तुलना रकाबीसे की जाती है।
उत्तरी ध्रुवके समान ही प्रबल होता। । इन्हीं सब बातों पर विचार करनेसे भूगर्भ- (१०) समुद्रादिमें लोहचुंबक पहाड़ ऐसे शास्त्रीयोंने नाशपाती (पीयर) से पृथ्वीकी उपमा हैं कि होकायंत्रकी चुंबक सूईके भरोसेमें हम दी है । क्योंकि उन्होंने जान लिया है कि यह | भ्रममें रहकर पृथ्वी गोल होनेका भ्रम और इतनी उत्तरी ध्रव पर चिपटी है और दक्षिण ध्रुवकी | करीब ८००० मील होनेका मान लिया हैं।
और खिंची हुई है । वे लोग स्पष्टतः क्यों नहीं | हमारी पृथ्वीको बहुत बड़ा चुंबक माना गया कहते कि पृथ्वीका आकार रकाबीके समान है ? | है और इसी चुंबक-शक्तिसे प्रभावित होकर सूई
(८) पृथ्वीके चपटेपनका एक और प्रमाण | उत्तर ध्रुवको आकृष्ट होती है। सूर्यग्रहण है। उदाहरणार्थ ३० अगस्त सन् | ऐसी दशामें यदि पृथ्वी गोल हो तो भू१९०५ ई०का ही ग्रहण लीजिये । | मध्यरेखाके दक्षिणमें जाने पर चुम्बककी सूई
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१२६ ]
· तस्वशान-स्मारिका दक्षिण ध्रुवकी ओर घूम जाना चाहिये, पर ऐसा | सार इस नहरके उभारकी गोलाई, ६१० नहीं होता।
फुट होनी चाहिये । सिरोंकी अपेक्षा मध्यका इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी अवश्य | उठाव २५६ फुट होना चाहिये ।। चिपटी है; क्योंकि चूम्बककी सूई कहीं भी रहे, | किन्तु स्टेट इंजीनियरकी रिपोर्ट के अनुसार मध्यमार्गका निर्देश करती रहती है । साथ ही | यह उँचाई ३ फुटसे भी कम है। साथ यह भी कह देना उचित होगा कि | स्वेजकी नहर लीजिये-दोनों ओर समुद्र पृथ्वीके गोलेको सबसे बड़ी परिधि भूमध्य रेखाके
| है, लेवल समान क्यों ? नीचे है और सबसे छोटी उत्तरी ध्रुव पर।
यदि पृथ्वी गोल है तो उसकी स्वाभाविक (११) यदि पृथ्वीको गोल माने और |
। गोलाई में किनारों की अपेक्षा बीचका भाग १६६६
फुट ऊँचा होना चाहिये। उसकी परिधि २४,००० मील माने तो २४
इसे दृष्टि में रख कर यदि 'लालसागर' से घंटेके हिसाबसे उसे अपनी धूरी पर एक घंटेमें
भूमध्यसागरकी तुलना करें तो भूमध्यसागर १००० मील घूम जाना चाहिये, किंतु यह तीव्र
लालसागरसे केवल ६ इंच ऊँचा होगा। गति इतनी प्रबल है कि धरातलकी प्रत्येक वस्तु
(१५) पाठशालाओंमें पृथ्वीके गोल होनेका चिथड़े होकर छितरा जायगी।
सबसे लोकप्रिय उदाहरण समुद्रमें दूर जाते हुए (१२) यदि यह कहा जाय कि पृथ्वीकी
जहाजसे दिया जाता है । इस उदाहरणमें जहाआकर्षण शक्ति ऐसा नहीं करने देती तो न्यूयोके
जके क्षितिजके पार छिपते जानेसे और केवल से शिकागो तक (लगभग १००० मील) कोई
मस्तूलके ऊपरका भाग दिखाई देनेसे पृथ्वीकी भी मनुष्य बैलूनमें घण्टेभर भी यात्रा कर सकता
गोलाई प्रमाणित की जाती है, किन्तु यह सचहै। इसी प्रकार दो-तीन घंटेमें शिकागोसे
मुच दृष्टिभ्रम है । अपनी आंखें गोल होनेसे दूरकी सान्मासिस्को तक यात्रा कर सकता है, जो | वस्तु कुछ विपरीत ही दीखती हैं। नितांत अशक्य है।
(१६) दृष्टिभ्रमके कई उदाहरण है जिसे (१३) पृथ्वी घूमती हो तो पृथ्वीमेंसे अमुक | 'पर्सपेक्टिव' कहते हैं। रेलकी पटरियां आगे स्थानसे सीधी उँचे एक मील एक बंदूक द्वारा आगे मिली हुई देखकर क्या कोई अनुमान कर गोली छोड़ी। गोली एक मिनट बाद नीचे पडे,
सकता है कि वे क्षितिजके पार जाकर मुड़ गई तो पृथ्वीकी गति ८ मील चली गई माना है; | है । वास्तवमें यह बिन्दु जो दोनों पटरियांको तो गोली उसी स्थान पर क्यों गिरती है? जोड़ता है, इतना सूक्ष्म होता है कि हमारी
(१४) अब उदाहरणार्थ “ऐरिक' नामक साधारण दृष्टि उसके पार नहीं पहुँच सकती। नहरको ही लीजिये।
इस शक्तिशाली दूरवीक्षण यंत्रसे देखा जाय यह नहर लोकपोष्टसे रोचेटर तक ६० मील तो निश्चय ही पूरा जहाज दिखाई देगा । क्या लम्बी है । "पृथ्वी गोल है" इस सिद्धांतके अनु- पानीकी सतह गोल होने पर ऐसा दृष्टिगत होता !
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पृथ्वी गोल नहीं चपटी है।
[१२७ (१७) यदि पृथ्वी गोल होती तो भू-मध्य- उत्तरीय-ध्रुवके अन्वेषक इसके विपरीत रेखाके नीचे के भागोंमें ध्रुवतारा कदापि दिखाई कहते हैं कि वे १५० से २०० मील तक आर्कन देता, परंतु दक्षिणमें ३० अक्षांश तक ध्रुवतारा । टिक प्रदेशोंमें सरलतासे देख सकते हैं। सरलतापूर्वक देखा गया है।
(२१) एक अमेरिकन साप्ताहिक पत्र 'हार(१८) यदि पृथ्वी गोल होती तो आर्कटिक | पर्स विकली' के २० वीं अक्टूबर सन् १८९४ और एटलांटिक सर्कलमें समान रूपसे तीन | ई. के अङ्कमें सरकारी विषयके अन्वेषणों के महिनेकी रात और तीन म हेने का दिन होता । | विषयमें लिखा है कि
किन्तु वोशिंगटन के 'ब्यूरो आफ नेविगेशन' उत्तरमें 'कोलोरेड़ो इलेक्शन' पेमाऊँट डनद्वारा प्रकाशित “नौटिकल एलमैनक" नामक कम्प्रेगी (१४४१८) से 'माऊँट एलन' (१४४पंचांगके अनुसार दक्षिणमें ७० अक्षांश पर स्थित १० फुट) तक अर्थात् १८३, मीलकी दूरी पर 'शेटलैंड' टापू पर सबसे बड़ा दिन १६ घण्टे
वे लोग हेलियोग्राफ (पालिश चढ़ाये शीशे) की ५३ मिनिटका होता है।
सहायतासे समाचार भेजनेमें सफल हुए। ____ उत्तरकी ७० अक्षांश पर 'हैमरफास्ट'
यदि पृथ्वी गोल होती तो उपर्युक्त प्रयोग
मिथ्या होता । नामक स्थानमें पूरे तीन महिनेका सबसे बड़ा दिन होता है।
क्योंकि १८३ मीलकी दूरीमें मध्य भागसे (१९) यदि पृथ्वी गोल होती तो उत्तरी
पृथ्वीकी ऊँचाई (गोलाईके कारण) २२३०६ तथा दक्षिणी ध्रुवोंमें व्यक्तिविषयक भिन्नता न होती।
| फुट हो जाती, जो सर्वथा असंभव है।
(२२) यदि पृथ्वी गोल होती तो इंग्लिश "एंटार्कटिक" प्रदेशमें पिस्तौलकी साधारण
चैनलके बीचमें खडे हुए जहाजकी छत परसे आवाज तोपकी आवाजके समान गूंजती है
| फ्रांसीसी तटके और ब्रिटिश तटके प्रकाशस्तम्भ और चट्टान टूटनेकी आवाज तो प्रलय-नादसे
(लाइट हाउस) दोनों ही स्पष्ट दिखाई न देते । भी भयंकर होती है । इसके विपरीत उत्तरके
(२३) इसी प्रकार बैलून में बैठे हुए मनुष्यको आर्कटिक प्रदेशमें ऐसा नहीं है।
पृथ्वी उन्नतोदर दिखाई पडती, किन्तु इसके ___ केप्टन होल नामक अन्वेषकका कहना है
विपरीत वह पृथ्वीको रकाबीकी भांति समान कि वहां बंदूकको आवाज २० फुटकी दूरी पर | देखता है। मुश्किलसे सुनी जा सकती है
सच पूछीये तो अब तक जितने मानचित्र (२०) केप्टन मिले एक स्थान पर अपनी | बनाये गये हैं उनमें कोई दोष अवश्य है और यात्राके प्रसंगमें लिखते हैं कि
उनकी प्रणालियां भी अपूर्ण हैं । आर्कटिक प्रदेशमें ४० मील अधिकसे
प्रसंगवश उनका विवरण भी नीचे दिया साधारण मनुष्य की दृष्टि नहीं पहुँच सकती। | जाता है ।
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तत्त्वज्ञान-स्मारिका . (१) मर्केटर प्रोजेक्शन-यह काफमेन नामक किनारे के भाग घने हो जाते हैं। ऊपर-नीचेके जर्मन द्वारा आविष्कृत प्रणाली है । इसमें उत्तरी- भागोंमें भी त्रुटि रहती है । भाग अपने वास्तविक आकारसे बहुत बड़े हो | (५) स्टिरिओग्राफिक प्रोजेक्शन-इसमें जाते हैं।
किनारेका क्षेत्रफल असली--क्षेत्रफलसे बहुत बढ़ (२) पोलवीड प्रणाली-यह प्रणाली मर्के- जाता है। टरसे बिलकुल ऊलट है। इसमें भिन्न भिन्न | इनके अतिरिक्त पोलीकोनिक सेन्सन प्लेभागोंका क्षेत्रफल तो दिखाई पड़ता है किन्तु में टीडके भी प्रोजेक्शन प्रसिद्ध हैं। किन्तु वे आकार बदल जाते हैं।
सब भी दोषपूर्ण है । किसीमें क्षेत्रफल, किसीमें (३) काँनिकल प्रोजेक्शन-इससे ध्रुवके | आकार, किसीमें स्थिति ही गलत हैं। निकटवर्ती उंचे आकाशोका ठीक नकशा नहीं बन
ऐसी दशामें पृथ्वी नारंगीके समान गोल पाता और ध्रुवको बिन्दु रूपमें नहीं दिखलाया है यह कहना कहां तक युक्तिसंगत है? जो कुछ जा सकता।
भी "श्री जे. मेकडोनलकी यह नई खोज ___ लोकप्रणालीमें भी यह दोष है कि ध्रुवके (जो जैनधर्मानुसार है)" शीघ्र ही वैज्ञानिक समीप पृथ्वीके भाग परस्पर निकट हो जाते हैं, जगतमें उथलपुथल पैदा करेगी। और भूमध्य रेखा पर बहुत दूर ।।
-'जीवन' से (४) आर्थोग्राफिक प्रोजेक्शन-इसमें नकशे -श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष २० अं० ४ से के बीचका भाग तो ठीक बनता है, किन्तु ।
साभार उद्धृत.
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पृथ्वी संबंधी कुछ
नवीन तथ्य मुनी नथमलजी
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जैन-दृष्टि के अनुसार भू-वलय (भूगोल) वैज्ञानिकों ने ग्रह, उपग्रह और ताराओं का स्वरूप इस प्रकार है
के रूपमें असंख्य पृथ्वीयाँ मानी हैं। "तिरछे लोक में असंख्य द्वीप और असंख्य
वैज्ञानिक जगत् के अनुसार-"ज्येष्ठा तारा समुद्र है, उनमें मनुष्यों की आबादी सिर्फ ढाई
| इतना बड़ा है कि उसमें वर्तमान दुनियां जैसी द्वीप (जम्बू, घातकी और अर्द्ध पुष्कर) में ही |
सात नील पृथ्वीयाँ समा जाती है" है। इनके बीच में लवण और कालोदधि-ये दो
__ वर्तमान में उपलब्ध पृथ्वी के बारे में एक
वैज्ञानिक ने लिखा है-"और तारों के सामने सभुद्र भी आ जाते हैं, बाकी के द्वीप-समुद्रों में
यह-पृथ्वी एक धूल के कणसमान है" न तो मनुष्य पैदा होते है और न सूर्य-चन्द्र
विज्ञान निहारिका की लम्बाई-चौड़ाई का की गति होती है, इसलिए ये ढ़ाई द्वीप और दो जो वर्णन करता है, उसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति समुद्र शेष द्वीप समुद्रों से विभक्त हो जाते है।
| आधुनिक या विज्ञानवादी होने के कारण इनको 'मनुष्य-क्षेत्र' या 'समय-क्षेत्र' कहा | ही प्राच्य-वर्णनों को कपोल-कल्पित नहीं जाता है। शेष इनसे व्यतिरिक्त है । उनमें सूर्य- मान सकता।" चन्द्र हैं सही, पर वे चलते नहीं, स्थिर हैं । जहां | नंगी आँखों से देखने से यह निहारिका सूर्य है वहां सूर्य और जहां चन्द्रमा है वहां शायद एक धुंधले बिन्दु मात्र-सी दिखलाई चन्द्रमा । इसलिए वहाँ समयका माप नहीं हैं ।
| पड़ेगी, किन्तु इसका आकार इतना बड़ा है कि, तिरछालोक असंख्य योजन का है, उसमें | हम बीस करोड़ मील व्यास वाले गोलों की मनुष्यलोक सिर्फ ४५ लाख योजन का है ।" । लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान करें-फिर भी
पृथ्वी का इतना बड़ा रूप वर्तमान की | उक्त निहारिका की लम्बाई-चौड़ाई के सामने साधारण दुनिया को भले ही एक कल्पना-सा | उक्त अपरिमेय आकार भी तुच्छ होगा औरलगे ! किन्तु विज्ञान के विद्यार्थी के लिए कोई इस ब्रह्माण्ड में ऐसी हजारों निहारिकाएँ आश्चर्यजनक नहीं।
| है । इसमें भी बड़ी और इतनी दूरी पर है कि
१-हिन्दी विश्वभारती अंक १ लेख । पृ० ५ आकाश की बातें ।
२-हि० विश्व भा० अंक १ ।
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१३० ]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका
१ लाख ८६ हजार मील प्रति सेकण्ड चलने | हैं । यह पृथ्वी एक ही है। किन्तु जल और बाले प्रकाश को वहां से पृथ्वी तक पहुँचने में | स्थल के विभिन्न आवेष्टनों के कारण यह १० से ३० लाख वर्ष तक लग सकते हैं। । असंख्य-भागों में बँटी हुई है।
वैदिक शास्त्रों में भी इसी प्रकार अनेक जैनसूत्रों में इसके बहदाकार और प्रायः द्वीप-समुद्र होने का उल्लेख मिलता है। अचल मर्यादा का स्वरूप लिखा गया है । पृथ्वी जम्बूद्वीप, भरत आदि नाम भी समान | के लध्वाकार और चल मर्यादा में परिवर्तन होते
रहते है । बृहदाकार और अचल मर्यादा के साथ - आज की दुनिया एक अन्तर-रखण्ड के लघ्वाकार और चल मर्यादा संगति नहीं होती, रूपमें है। इसका शेष दुनिया से सम्बन्ध जुड़ा
इसीलिए बहुतसारे लोग असमञ्जस में पड़े हुभा नहीं दीखता । फिर भी दुनिया को इतना ही मानने का कोई कारण नहीं।
प्रो० घासीराम जैन ने इस स्थिति का ___ आज तक हुई शोधों के इतिहास को जानने
उल्लेख करते हुए लिखा हैः-१ “विश्व की मूल वाला इस परिणाम तक कैसे पहुंच सकता है ? कि " दुनिया बस इतनी है ? और उसकी
आकृति तो कदाचित् अपरिवर्तनीय हो ! किन्तु अन्तिम शोध हो चुकी है।"
उसके भिन्न-भिन्न अङ्गो की आकृति में सर्वदा ___अलोक का आकाश अनन्त है । लोक का |
परिवर्तन हुआ करते हैं । आकाश सीमित हैं । अलोक की तुलना में लोक | उदाहरणतः भू-गर्भ-शास्त्रियों को हिमाचल एक छोटा-सा टुकड़ा है। अपनी सीमा में वह | पर्वत की चोटी पर वे पदार्थ उपलब्ध हुए हैं जो बहत बड़ा हैं। पृथ्वी ओर उसके आश्रित जीव । समुद्र की तली में रहते हैं। जैसे "सीप, शंख,
और अजीव आदि सारे द्रव्य इसके गर्भ में | मछलियों के अस्थिपञ्जर-प्रभृति" । समाए हुए हैं।
अतएव इससे यह सिद्ध हो चुका है कि पृथ्वीयां आठ है। सबसे छोटी पृथ्वी | अबसे ३ लाख वर्ष पूर्व हिमालय पर्वत समुद्र के "सिद्धशिला" है, वह उँचे लोकमें है। | गर्भ में था। (१) रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा,
| स्वर्गीय पण्डित गोपालदासजी वरैया पङ्कप्रभा. धूमप्रभा. तमःप्रभा. महातमःप्रभा-ये अपनी-"जैन जागरफी' नामक पुस्तक में सात बड़ी पृथ्वीयां है।
लिखते हैं: ... ये सातों नीचे लोक में हैं । पहली पृथ्वीका | "चतुर्थ काल के आदि में इस आर्य-खण्ड ऊपरी भाग तिरछे लोकमें है । हम उसी पर रहे। में उपसागर की उत्पत्ति होती है, जो क्रम से
१-हि० भा० अंक १ चित्र १ ।
२-यूनानी विद्वान युक्लीड रेखा गणित (दिशागणित) का प्रसिद्ध आचार्य हुआ है । युक्लीडीव-रेखा गणित का आधार यह है कि विश्वका ओर-छोर नहीं है, वह अनन्त से अनन्त तक फैला हुआ है ।
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पृथ्वी संबंधी कुछ नवीन तथ्य चारों तरफ को फैलकर आर्य-खण्ड के बहुभाग | जहां आजकल दक्षिणी अटलांटिक महासागर को रोक लेता है।
स्थित है । इस खोए गए द्वीपको गोंडवानालैंड . वर्तमान के एशिया, यूरोप, आफ्रिका और | के नाम से पुकारते हैं और इससे हमारे उपआस्ट्रेलिया ये पांचो महाद्वीप इसी आर्य- सागर-उत्पत्ति सिद्धान्त की पुष्टि होती है " खण्ड में है।
___ अर्थात् प्रो० वॉटसनने प्राणी-विज्ञान की उपसागर ने चारों और फैलकर ही इनको | अपेक्षा-दृष्टि से विवेचन करते हुए बतलाया कि द्वीपाकार बना दिया है। केवल हिन्दुस्तान को | इन द्वीप- महाद्वीपों में पाये जाने वाले कृमियों ही आर्य-खण्ड नहीं समझना चाहिए।" ( Reptijes ) में बड़ी भारी समानता है। .. - अब से लेकर चतुर्थकाल के आदि तक की
___ उदाहरण स्वरूप कारू का विचित्र सांप लगभग वर्ष संख्या १४३ के आगे ६० शून्य
दक्षिणी अमेरिका, मेडागास्कर (आफ्रिका का लगाने से बनती है । अर्थात्-उपसागर की |
निकटवर्ती अन्तरद्वीप) हिन्दुस्थान और आस्ट्रेउत्पत्ति से जो भयानक परिवर्तन धरातल पर
लिया में भी पाया जाता है। हुआ उसको इतना लम्बा काल बीत गया, और तब से भी-अब तक और छोटे-छोटे परिवर्तन
___ अतएव उन्होंने इन प्रमाणों द्वारा यह
| परिणाम निकाला है कि दक्षिणी अमेरिका, भी हुए ही होंगे। जिस भूमि को यह उपसमुद्र घेरे हुए हैं
आफ्रिका और सम्भवतः आस्ट्रेलिया तक फैला वहां पहले स्थल था-ऐसा पता आधुनिक भू
हुआ भू-मध्य-रेखा के निकटवर्ती कोई महाद्वीप शास्त्रवेत्ताओं ने चलाया है जो 'गौंडवानालैंड
अवश्य था, जो अब नहीं रहा । सिद्धान्त (Gondwanaland Theory) के
___ इसी के समर्थन में उन्होंने एक विशेष नाम से सुप्रसिद्ध है।
प्रकार की मछली का बयान किया जो जल के अभी इस गौंडवाना-लैंड के सम्बन्ध में जो | बाहर अथवा भीतर दोनों प्रकार जीवित रहती विवाद ब्रिटिश एसोशिएशन की भू-गर्भ, जन्तु रहती है । तत्पश्चात् दक्षिणी आफ्रिका के डा. व वनस्पति-विज्ञान की सम्मिलत मिटिंग में हुआ | डूरी ने अनेक प्रमाणों सहित इस बात को है, उसका मुख्य अंश हम पाठकों की जानकारी | स्वीकार किया कि-गौडवानालैंड की स्थिति के के लिए उद्धृत करते हैं।
सम्बन्ध में अब कोई विशेष मतभेद नहीं है। सिद्धान्त इस प्रकार है कि
___ समय-समय पर और भी अनेक परिवर्तन "किसी समयमें, जिसकी काल-गणना हुए हैं। यह दिखलाने के लिए "वीणा" वर्ष शायद अभी तक नहीं की जा सकी । एक ऐसा ३ अंक ४ में प्रकाशित एक लेख का कुछ अंश द्वीप विद्यमान था" जो दक्षिणी अमेरीका और उद्धृत करते हैं जिसका हमारे वक्तव्य में विशेष आफ्रिका के वर्तमान द्वीपों को जोडता था और | सम्बन्ध है :
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तत्वज्ञान-स्मारिका "सन् १८१४ में 'अटलांटिक' नाम की आधुनिक भूगोल की प्राचीन विवरण से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी । उसमें भारत- तुलना करने में अनेक कठिनाइओं का सामना वर्षके चार चित्र बनाए गये हैं:-पहले नक्शे में | होना अवश्यंभावी है और सम्भवतः अनेक विषईसा के पूर्व १० लाख वर्ष तक की स्थिति मताओं का कारण हो सकता है। बताई गई है।
दस करोड़ वर्ष पुराने कीड़े की खोज ने ___ उस समय भारत के उत्तर में समुद्र नहीं | भू-भाग के परिवर्तन पर नया प्रकाश डाला है। था । बहुत दूर अक्षांश ५५ तक धरातल ही भारतीय जन्तु-विद्यासमिति (जियोलोजिकल था, उसके उपरान्त ध्रुव पर्यन्त समुद्र था। सर्वे आफ इन्डिया) के भूतपूर्व डाइरेक्टर डा. (अर्थात् नोर्वे, स्वीडन आदि देश भी विद्य- वी० एन० चौपड़ा को बनारस के कुओं में एक मान न थे।
आदिम युग के कीड़े का पता चला जिसके दूसरा नक्शा ई० पू० ८ लाख से २ लाख | पुरखे करीब दस करोड़ वर्ष पहिले पृथ्वी पर वर्ष की स्थिति बतलाता है। चीन, लासा व | वास करते थे। हिमालय आदि सब उस समय समुद्र में थे.... वह कीड़ा एक प्रकार के झींगे (ककड़ें) दक्षिण की ओर वर्तमान हिमालय की चोटी का | की शक्ल का है। यह शीशे के समान पारदर्शी प्रादुर्भाव हो गया था । उसे उस समय भारतीय | है, और इसके १०० पैर है । यह कीड़ा आकार लोग 'उत्तरगिरि' कहते थे....।
में बहुत छोटा है। तीसरा चित्र ई० पू० २ लाख से ८० भू-मण्डल–निर्माण के इतिहास में करीब हजार वर्ष तक की स्थिति बतलाता है। १० करोड़ वर्षे पूर्व (मेसोजोइक) काल में यह ___ इस काल में जैसे-जैसे समुद्र सूखता गया,
कीड़ा पृथ्वी पर पाया जाता था।
___ अभी तक इस किस्म के कीड़े केवल वैसे-वैसे इस पर हिमपात होता गया । जिसे
| आस्ट्रेलिया, टैसमिनिया, न्यूजीलैंड तथा दक्षिणी आजकल हिमालय के नाम से पुकारा जाता है।
आफ्रिका में देखे जाते हैं। चौथा चित्रई० पू० ८० हजार से ९५६४
इस कीड़े के भारतवर्ष में प्राप्त होने से मूवर्ष पर्यन्त की स्थिति को बतलाता है। | विज्ञानवेत्ताओं का यह अनुमान सत्य मालूम
इन वर्षों में समुद्र घटते-घटते पूर्व अक्षांश | पड़ता है कि अत्यन्त पुरातन-काल में एक ७८.१२ व उत्तर अक्षांश ३८.४३ के प्रदेश | समय भारत, आस्ट्रेलिया, दक्षिणी, आफ्रिका, में एक तालाब के रूप में बतलाया गया है। । अमेरिका, टैसमिनिया, न्यूजीलैंड और एशिया
इन उद्धरणों से स्पष्ट विदित है कि- । का दक्षिणी भाग एक साथ मिले हुए थे। १-अनेकान्त वर्ष १ किरण ५ पृ० ३०८. “जैन भूगोलवाद "-ले० श्री बाबू घासीरामजी जैन S. S. C. प्रोफेसर " भौतिकशास्त्र" ।
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पृथ्वी संबंधी कुछ नवीन तथ्य
[१३३ बाबा आदम के जमाने का १० करोड़ | कुछ विद्वानों ने इस के बारे में निम्न प्रकार वर्ष बूढ़ा यह कीड़ा पृथ्वी की सतह के नीचे के | की संगति बिठाई हैं:पानी में रहता है और बरसात के दिनों में । भरत-क्षेत्र की सीमा पर जो हैमवत (लघु कुओं में पानी अधिक होने से इनके बन्धुओं | हिमवंत) पर्वत है, उससे महागंगा और महासिन्धु की संख्या अधिक दिखाई पड़ती है। ! दो नदियां निकलकर भरत-क्षेत्र में बहती हुई ___ बरसात में कुओं में यह कीडे इतने बढ़ लवणसमुद्र में पूर्व पश्चिम तक गिरी है। जहां ये जाते हैं कि कोई भी इन्हें आसानी से देख | दोनों नदियां समुद्र में मिलती है, वहां से लवणसकता है। बनारस छावणी के 'केशर महल' में | समुद्र का पानी आकर भरत-क्षेत्र में भर गया है, नहाने के लिए पानी कुएँ से मशीन से पम्प | जो आज पांच महासागरों के नाम से पुकारा किया जाता था वहां गुसलखाने (स्नानागार) | जाता है, तथा मध्य में अनेक द्वीप से बन गए के नहाने के टबों में भी ये कीड़े काफी संख्या हैं, जो एशिया, अमेरिका आदि कहलाते हैं। में उपस्थित पाये गये।
इस प्रकार आजकल जितनी पृथ्वी जानने में आई ___ यह छोटा कीड़ा इस प्रकार सुन्दरता के | हैं, वह सब भरत-क्षेत्र में है।" साथ पृथ्वी के आदिम युग की कहानी और उपर के कथन से यह बात अच्छी तरह अमेरिका, आस्ट्रेलिया और भारत की प्राचीन समझ में आ जाती है कि "पृथ्वी इतनी बड़ी है एकता की कहानी भी बहुत पटु सुनाता है। कि इसमें एक-एक सूर्य-चन्द्रमा से काम नहीं ___"ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत | चल सकता । केवल जम्बूद्वीप में ही दो सूर्य
और सुदूर पूर्व के ये द्वीप-समूह किसी अतीत | और दो चन्द्रमा है'।" काल में अखण्ड और अविभक्त प्रदेश था'"। कुछ दिन पहले जापान के किसी विज्ञान
भू-भाग के विविध परिवर्तनों को ध्यान में | वेत्ताने भी यही बात प्रगट की कि-जब भरत रखकर कुछ जैन-मनीषियों ने आगमोक्त और | और ऐरावत में दिन रहता है, तब विदेशों में वार्तमानिक भूगोल की संगति बिठाने का यत्न | रात होती है । इस हिसाब से समस्त भरतकिया है।
क्षेत्र में एक साथ ही सूर्य दिखाई देना चाहिए इसके लिए यशोविजयजी द्वारा सम्पादित | और अमेरिका, एशिया में जो रात-दिन का 'संग्रहणी' द्रष्टव्य है।
अन्तर है वह नहीं होना चाहिए, परन्तु भरत१-'आज-वर्ष २, संख्या ११ मार्च १९४७ । फिलिपाइन और उसके वासी-ले० आर. वेंकटरामन् ।
१-इंगलिशमेन ता० १६ सितम्बर १९२२ के अंक में लिखता है कि-"वैनगनुई कारखाने के स्वामी मि० वाई द्वारा न्यूजीलैंड में बनाई गई १२ इञ्ची दूरबीन द्वारा मैसर्स टाऊनलैंड और हार्टने हाल ही में हवेरामें दो चन्द्रमाओं को देखा । जहां तक मालूम हुआ यह पहला ही समय है जब न्यूजीलैंड में दो चन्द्रमा दिखाई दिए ।
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१३४]
तत्त्वज्ञान-स्मारिका क्षेत्र के अन्तर्गत आर्य-क्षेत्र के मध्य की भूमि पर प्रकाश पड़ सकता है । तथा वे स्थान ऐसी बहुत उँची हो गई है, जिससे एक ओर का | जगह पर हैं कि जहाँ पर दोनों सूर्यों का प्रकाश सूर्य दूसरी ओर दिखाई नहीं देता । वह ऊँचाई | पड़ सकता है तथा दक्षिणायन के समय सतत् की आड़ में आ जाता है । और इसलिए उधर | अन्धकार रहता है। जानेवाले चन्द्रमा की किरणें वहां पर पड़ती जैन दृष्टि के अनुसार (समस्त) पृथ्वी चिपटी हैं । ऐसा होने से एक ही भरत-क्षेत्र में रात-- है । पृथ्वी के आकार के बारे में विज्ञान का मत दिन का अन्तर पड़ जाता है । इस आर्य-क्षेत्र | अभी स्थिर नहीं है । पृथ्वी को कोई नारंगी की के मध्य भाग के ऊँचे होने से ही पृथ्वी गोल भांति गोलाकार, कोई लौकी के आकार वाली' जान पड़ती है । उस पर चारों ओर उपसमुद्र
और कोई पृथिव्याकार मानते है । का पानी फैला हुआ है और बीच में द्वीप पड़ गए हैं । इसलिए चाहे जिधर से जाने में भी
विलियम एडगल ने इसे चिपटा माना है। जहाँज नियत स्थान पर पहुँच जाते हैं।
| वे कहते हैं कि 'सभी मानते हैं कि पृथ्वी गोल सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही लगभग जम्बू
है, किन्तु रूम की केन्द्रिय--फोटोग्राफी संख्या द्वीप के किनारे-किनारे मेरु-पर्वत की प्रदक्षिणा के प्रमुख प्रोफेसर 'इसा कोम' ने अपनी राय देते हुए घूमते हैं और छह-छह महिने तक में जाहिर किया है किउत्तरायण-दक्षिणायन होते रहते है।
"भू-मध्यरेखा एक वृत्त नहीं किन्तु तीन इस आर्य-क्षेत्र की ऊँचाई में भी कोई- धुरियों की एक 'इलिप्स' है।" कोई मीलों लम्बे-चौड़े स्थान बहुत नीचे रह गए "पृथ्वी चिपटी है इसे प्रमाणित करने के हैं कि जब सूर्य उत्तरायण होता है तभी उन | लिए-कितनेक मनुष्यों ने वर्ष बिता दिये, किन्तु
१-पृथ्वी के गोलाकार होनेके संबंध में यह दलील अक्सर दी जाती हैं कि कोई आदमी पृथ्वीके किसी भी बिन्दुसे रवाना हो और सीधा चलता जाए तो वह पृथ्वी की भी परिक्रमा करता हुआ फिर उसी स्थान "बिन्दु” पर पहुंच जाएगा । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पृथ्वी का धरातल नारंगी की तरह गोल अर्थात् वृत्ताकार है । इससे सिर्फ इतना ही साबित होता है कि यह चिपटी न होकर वर्तुलाकार है । अगर पृथ्वी को लौकी की शक्ल की मान लें तो भी यह सम्भव है कि एक निश्चित बिन्दुसे यात्रा आरम्भ करके सीधा चलता हुआ व्यक्ति फिर निश्चित बिन्दु पर ही लौट आए ।
विश्व० भा०-लेखक श्रीरमाकान्त-पृष्ठ १६० २-कुछ विद्वानों की गवेषणा तथा खोजके परिणामस्वरूप पृथ्वी का एक नवीन ही आकार माना गया है जो न पूर्णतया गोल है और न अण्डाकार । इस आकार को 'पृथिव्याकार' कहें तो ठीक है, क्योंकि उसका अपना निराला ही आकार है । इस आकार की कल्पना इस कारण की गई है कि पृथ्वी का कोई भी अक्षांश-यहां तक कि विषुवृत्त रेखा भी-पूर्णवृत्त नहीं हैं । ३-क्या भू गोल है ? The Sunday-News of India 2nd May, 1954.
___ -विश्व० लेखक रामनारायण B.A. पृ० ३५ ।
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बहुत थोड़ों ने ‘सोमरसेट' के वासी स्वर्गीय 'विलियम एडगल' के जितना साहस दिखाया था । एडगल ने ५० वर्ष तक संलग्न चेष्टा की। उसने रात्रि के समय आकाश की परीक्षा के लिए कभी बिछौने पर न सोकर कुर्सी पर ही रातें बिताईं । ”
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पृथ्वी संबंधी कुछ नवीन तथ्य
उसने अपने बगीचे में एक ऐसा लोहे का नल गाड़ा जो कि ध्रुव तारे की तरफ उन्मुख था और उसके भीतर से देखा जा सकता था । उस उत्साही - निरीक्षक ने आखिर इस सिद्धान्त का अन्वेषण किया कि
"पृथ्वी थाली के आकार- चपटी है जिसके चारों तरफ सूर्य उत्तर से दक्षिण की तरफ घूमता हैं। उसने यह भी प्रगट किया कि ध्रुव ५००० माइल दूर है और सूर्य का व्यास १० माइल है ।"
जैन - दृष्टि से (समस्त) पृथ्वी को चिपटी मानी गई है - यह समग्रता की दृष्टि है । विशाल - भूमि के मध्यवर्ती बहुत सारे भूखण्ड वर्तुलाकार भी मिल सकते हैं | आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार लङ्का से पश्चिम की ओर आठ योजन नीचे पाताल लङ्का है' ।
1
काल-परिवर्तन के साथ-साथ भरत - ऐरा - वत के क्षेत्र की भूमि में ह्रास होता है - " भरतै
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रावतयो वृद्धिहासौ .... तत्त्वार्थ ३।२८ ताभ्यामपरा - भूमयोपस्थिताः... ३।२६
श्लोक वार्तिककार विद्यानन्द स्वामीने भी कहा है कि-
तात्स्थ्यात् तच्छन्दासिद्धे भरतैरावतयो वृद्धिहास योगः अधिकरणनिर्देशो वा " - तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक ३।२८ टीका पृ० ३५४
त्रिलोकसार में प्रलय के समय पृथ्वीको १ योजन विध्वस्त होना माना है
"ते हिंतो से सजणा, णस्संति विसग्गिवरिसदद्दमहो । इगि जोयणमेत्तमद्धो, चुण्णीकिज्जदि हु
कालवसा । ( ति० ८६७)
इसका तात्पर्य यह है कि भोग-भूमि के प्रारम्भ से ही जम्बूद्वीप के समतल पर 'मलवा ' लदता चला आ रहा है, जिसकी ऊँचाई अति दुषमा के अन्त में पूरी एक योजन हो जाती है । वही 'मलवा' प्रलयकाल में साफ हो जाता है। और पूर्ववाला भाग ही निकल आता है । इस बढे हुए 'मलवे' के कारण ही भूगोल मानी जाने लगी है । अनेक देश नीचे और ऊपर विषम स्थिति में आ गए हैं।
इस प्रकार वर्तमान की माने जाने वाली भूगोल के भी जैनशास्त्रानुसार अर्धसत्यता या आंशिक सत्यता सिद्ध हो जाती है, एवं समतल
कि पृथ्वी गोल है । इसकी पार्श्ववर्ती गोलाई में एक
१ (क) सु० च० ( ख ) अनेक लोगों का मत है ओर भारत स्थित है । इसके ठीक विपरीत अमेरिका है अतः उनके विचार से अमेरिका ही पाताल लोक है ।
- धर्म० - वर्ष ६ अंक ४९ दिसम्बर ४, १९५५
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तस्वज्ञान-स्मारिका की प्रदक्षिणा रूप अर्ध नारंगी के समान गोलाई | रण देते हैं । किन्तु पृथ्वी को स्थिर मान लेने भी सिद्ध हो जाती है।
पर गणित की दृष्टि से कई कठिनाइयां उत्पन्न चर-अचर:
होती है, सूर्य और चन्द्रमा की कक्षा तो अवश्य जैन-दृष्टि के अनुसार पृथ्वी स्थिर है।
गोलाकार रहती है, किन्तु सूर्य से अन्य ग्रहों वर्तमान के भूगोल-वेत्ता पृथ्वी को चर मानते हैं।
का मार्ग बड़ा जटिल हो जाता हैं जिसका यह मत-द्वैध्य बहुत दिनों तक विवाद का स्थल
सरलता से हिसाब नहीं लगाया जा सकता। बना रहा।
(इस हिसाब को जैनाचार्यों ने बड़ी सुगआइस्टीन ने इसका भाग्य पलट दिया। मता से लगाया है जिसे देख कर जर्मनी के
"क्या पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है या बड़े बड़े विद्वान् G. R. D. G. schubieng स्थिर है ?" सापेक्षवाद के अनुसार कोई निश्चित प्रभृति शतमुख से प्रशंसा करते हैं) किन्तु सूर्य उत्तर नहीं दिया जा सकता। हम Denton को स्थिर मान लेने पर सब ग्रहों की कक्षा की पुस्तक Relativity से कुछ यहां भावार्थ
| गोलाकार रहती है। जिसकी गणना बड़ी उपस्थित करते हैं :
सुगमतासे ही हो सकती है ।' __ "सूर्य मण्डल के भिन्न-भिन्न ग्रहों में जो आपेक्षित गति है उसका समाधान पुराने 'अचल ___ आइन्स्टीन के अनुसार विज्ञान का कोई पृथ्वी' के आधार पर भी किया जा सकता है, | भी प्रयोग इस विषय के निश्चयात्मक सत्य का और 'कोपरनिकस' के उस नए सिद्धान्त के
| पता नहीं लगा सकते'। आधार पर भी किया जा सकता है, जिसमें कि पृथ्वी को चलती हुई माना जाता है। ___ "सूर्य चलता हो अथवा पृथ्वी चलती हो . दोनों ही सिद्धान्त सही है और जो कुछ | किसी को भी चलायमान मानने से गणित में खगोल में हो रहा है उसका ठीक-ठीक विव- । कोई त्रुटि नहीं आएगी।"
१-'जैन०१ अक्टूबर १९३४. लेखक:-श्रीमान् प्रोफेसर घासीरामजी M.S.C.-A.P.S. लन्दन । २-ज्यो• रत्ना ०-भाग १ पृ० २२८ ले० देवकीनन्दन मिश्र ।
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________________ N : નવી પેઢીને વિજ્ઞાનવાદની અંજામણી-છાયામાંથી છોડાવવા શ્રદ્ધાને શાસ્ત્રાનુસારી બનાવવા શ્રી જમ્બુદ્વીપનું કેલમાપ પ્રમાણે 47I x ૪૭છું મેડલ તૈયાર થઈ રહેલ છે પાલીતાણા ગિરિરાજની તળેટીમાં પૂર્ણ થવાની તૈયારીમાં છે, શ્રદ્ધાળુ ભાગ્યશાળીઓને લાભ લેવા વિનંતી છે સાથે સાથે... આખા ભારત ભરમાં પ્રથમવાર સાત હાથ પ્રમાણુ કંચન વણી શ્રી મહાવીર પ્રભુની મૂર્તિ | મૂળ નાયક તરીકે ' અને 21 ફુટના મંગળ તોરણ પરિકર માં વણુ પ્રમાણે વર્તમાન ચોવીસી તથા ઇતિહાસમાં સર્વ પ્રથમવાર ( 9 ફુટના ચોવીશીવાળા શ્રી મનોરથ ક૯૫દૃમ પાર્શ્વનાથ જેના પરિકરમાં 24 વિશિષ્ટ-તીર્થોના નાયક ( શ્રી પાર્શ્વનાથ પ્રભુ ભેંયરામાં પધરાવાશે. શ્રી મહાવીર પરમાત્માના અદ્ભુત શિ૯૫કળાસમૃદ્ધ 111 ફુટ ઉચા શિખરવાળા જિનાલયના નિર્માણમાં ઉદાર હાથે લાભ લેવા સહુને વિનતિ છે. વધુ માહિતી માટે છાપેલી પત્રિકા મેળવે આગમ મંદિર પાસે | નિવેદક તળેટી | શ્રી વર્ધમાન જૈન પેઢી ભાથાખાતા પાછળ પાલીતાણા 364270 પાલીતાણા