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३ तीसरा ]
'ऋद्ध' का अर्थ समृद्ध होता है, जो परमात्मा का ही एक गुण है और उस से बना 'ऋद्धि' शब्द परमात्मा की शक्ति की ओर संकेत करता है । 'ऋत-धामा' शब्द का अर्थ है जगत् की व्यवस्था करनेवाले विष्णु । शिव ऋतध्वज कहे जाते हैं और ब्रह्मा को ऋतवादी एवं ऋतव्रत कहा जाता है
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ऋतं सत्यं च
तो यह ऋ त्रिदेवात्मक है और इसके उच्चारण भी हस्व, दीर्घ एवं प्लुत ऐसे तीन प्रकार के हैं ।
स्व से संसार की सूक्ष्मावस्था, दीर्घ से स्थूलावस्था एवं प्लुत से रुपातीतावस्था का संकेत लिया जा सकता है ।
इन तीनों अवस्थाओं का पर्यवसान ॐ में किया जा सकता है ।
अब सत्यं की बात करें । सत् पद सत्य का आधार है ।
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मूलतः सत् अस्तित्व का सूचक है एवं सत्य का वाचक भी । ' सत्य पद को सिद्ध करने के लिए इसमें ' यत् ' प्रत्यय जोडना पडता हैं यह ' यत् ' सत्य की भव्यता ( अस्तित्व ) एवं कार्यता का द्योतक है ।
वैदिक - दर्शन में प्रायः सत्य का प्रयोग, कार्य-सत्य के अर्थ में होता है और ऋत के शाश्वत सत्य से उसको पृथक बताया जाता है । सत् का प्रयोग श्रेय के अर्थ में भी होता है । ' सत् ' मंगलमय भाव व्यवस्था है, सद्भावे साधुभावे सदित्येतत्प्रभुः । सद् का अर्थ शुभ में भी माना जाता है जैसे सद्गति और अच्छे के अर्थ में भी; जैसे सज्जन, सदाचार ।
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'यत् ' के योग से सत्य वर्तमान (अस्तित्व) का ही नहीं वरन् कार्य, अत एव भावि भी है इस अर्थ में वह भव्य (होनेवाला) भी है ।
इसीलिए परमात्मा को परम सत्य कहते हैं । परमाणु की सत्ता से लेकर ईश्वरीय सत्ता तक सत् निवास करता है, अतः यह धौव्यात्मक है । यही ध्रौव्यात्मक परम सत्य शिव है, है इसीलिए कलिकाल आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने 'ॐ अर्ह ' मंत्र के रूप में सृष्टि के मूल तत्त्व ऋतं सत्यं' की धौव्यात्मकता एवं शाश्वतता की अभ्यर्चना की है ।
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यह ईश्वरवादी दर्शनों में ईश्वर, शैवदर्शन में शक्ति एवं जैन-दर्शन में कर्मफल है । ऋग्वेद की ४ - २१-३ ऋचा में कहा गया
है
ऋत सबका मूल कारण है । ऋतू से ही मरुत् की उत्पत्ति हुई है । मरुत् वायु का देवता है और प्राण, अपान, व्यान, उदान तथा समानादि पंचवायु ही शरीर को गति एवं अस्तित्व प्रदान कर उसे प्रकाशित करते हैं ।
ॐ भी शरीर में व्याप्त है एवं ॐ में शरीर व्याप्त है ।
इसी प्रकार पंच प्राणात्मक संसार में शरीर समाया हुआ है एवं शरीर में पंच प्राण समाए हुए हैं ।
मुद्गलोपनिषद् में कहा गया है - “ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता, मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्य एव वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेना धीतेनाहो
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