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रात्रान् संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु ।
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अर्थात्- “ ॐ मेरी वाणी में स्थिर हो । हे स्वयंप्रकाश आत्मा ! मेरे सम्मुख तुम प्रकट हो ओ । हे वाणी और मन ! तुम दोनों मेरे ज्ञान के आधार हो, अतः मेरे ज्ञानाभ्यास की रक्षा करो | मैं इस ज्ञानाभ्यास में रात-दिन व्यतीत करता हूँ। मैं ऋत का उच्चारण करता हूँ, सत्य का उच्चारण करता हूँ । "
इस उद्धरण से ज्ञात होता है कि ऋत और सत्य दोनों अलग अलग हैं । ऋत शब्द का प्रयोग वेद काल के पश्चात् भौतिक नियमों के लिए होने लगा और बाद में तो ऋत में आचार सम्बन्धी नियमों का भी समावेश हो गया ।
ऋग्वेद में उषा, सूर्य एवं पूषा को ऋत का पालन - कर्ता कहा गया है ।
इस ऋत के परे जाना असम्भव है, क्योंकि वरुण ऋत के रक्षक है।
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तत्त्वज्ञान स्मारिका
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ऋतस्त गोपा ” (ऋग्वेद) और द्यौ और पृथ्वी ऋत पर स्थित है ( १०. ताओं से प्रार्थना की जाती
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[ खंड
मात्र को ऋत के मार्ग पर ले चलें व अनृत के मार्ग से दूर रखें |
१२१. १) देवथी कि वे प्राणी
यह अमृत सत्य का विलोम झूठ नहीं था । ऋत को सत्य से पृथकू माना जाता था । ऋत वस्तुतः सत्य का नियामक तत्त्व है और ऋत के माध्यम से ही सत्य की प्राप्ति स्वीकृत की गई है ।
इसीलिए आचार्यश्री ने अर्ह के पूर्व ॐ के उच्चारण की व्यवस्था की । जिस प्रकार परवर्ती वैदिक साहित्य में ऋत का स्थान सत्य ने ले लिया, वैसे ही परवर्ती जैन साहित्य में ॐ का स्थान केवल अर्ह ने ले लिया ।
पर शास्त्रीय - - परम्परा में आज भी 'अर्ह * : का उद्घोष किया जाता है, और 'ऋतं च सत्यं च' की भावना का साक्षात्करण कर जगत् के धौव्य तत्त्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा प्रत्येक कार्य के लिए प्रारम्भ में की जाती है |
यह धौव्य पद सिद्ध पद है जिसका नमन 'ॐ नमः सिद्धम् ' में किया गया है ।
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