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ऋतं सत्यं च
ॐ अर्ह -तात्तिक रहस्य वैदिक ऋचा का समन्वयात्मक रहस्य
ले. सोहनलाल पटनी
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___ दृश्य एवं अदृश्य इस संसार में एक स्थायी इसी ऋत से बने शब्दों पर यदि हम विचार व्यवस्था है, जिसके कारण इसकी प्रत्येक वस्तु | करें तो हमें ऋत का स्वरूप समझ में आ का अस्तित्व है। इस व्यवस्था के कारण ही | जायेगा । जैसे 'ऋ' का अर्थ है देवताओं की सृष्टि में गत्यात्मकता दिखाई पड़ती है, एवं सत्य माता अदिति एवं 'क्त' (त) का अर्थ है युक्त । के कारण ही गत्यात्मकता में भी उसका ध्रौव्य देवताओं की माता से युक्त का तात्पर्य है पद विद्यमान रहता है।
प्रकाशक तत्त्व जो समस्त चराचर सृष्टि के मूल प्रकृति अथवा संसार की व्यवस्था की जो | में विद्यमान है, एवं जिसके कारण ही संसार की सतत् प्रक्रिया चल रही है, उसके मूल में कोई | गत्यात्मकता संसरण-शीलता विद्यमान है। देवता शक्ति अवश्य है-ऐसा विज्ञान भी मानता है। का अर्थ यास्क ने अपने निरुक्त में बताया है
नास्तिक उसे केवल व्यवस्था कहकर ही “ देवो दानाद् दीपनाद् वा” प्रकाशित करने चुप हो जाता है, पर वेदों में इस व्यवस्था को के कारण अथवा प्रिय वस्तु देने के कारण देव 'ऋत' नाम से अभिहित किया गया है । ऋत | कहा जाता हैं। शब्द में ऋ (गमनादि) धातु है, एवं क्त प्रत्यय है। इसीलिए ऋतम्भर का अर्थ होता है सत्य
ऋत का शास्त्र-सम्मत अर्थ है सृष्टि का | (अस्तित्व) का धारण-पोषण करनेवाला परमेश्वर ! धारक तत्त्व, ईश्वरीय नियम, ब्रह्म, आदित्य, इसी प्रकार ऋतम्भरा का अर्थ है चराचर कर्मफल ।
सृष्टि ! जो 'ऋत' याने परमात्म-तत्त्व से परिपूर्ण इसके इन अर्थों में भारत के सभी दर्शनों है अथवा सदा एक रूप रहनेवाली समाधि की को अपना शास्त्र-सम्मत अर्थ मिल जाता है। वह मूर्ति जिसमें सत्य का ही धारण होता है
सांख्य और योग इसे सृष्टि का धारक और 'ऋति' का अर्थ गति, आक्रमण, मार्गतत्त्व कहेंगे तो न्याय इन्हें ईश्वरीय नियम। मंगल, अभ्युदय, स्मृति, आदि होता है । कहेगा।
इसके ये शब्द परमात्म-तत्त्व की ओर वेदान्त ब्रह्म कहेगा तो वैशेषिक एवं संकेत करते हैं। 'ऋत' का अर्थ है निश्चित व्य. मीमांसा इसे कर्मफल-दाता कहेंगे । वस्था और 'ऋत' का अर्थ है पुष्ट-वीर्य परमात्मा।
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