SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ तीसरा ] 61 'दुग्धे सारं यथा सर्पिः, पुष्पे परिमलस्तथा ॥ तथा लोकेऽपि चैतन्यं । तस्मिन् कैवल्यमुत्तमम् ॥” २०-८ इसी सिद्ध- पद को समझाते हुए अर्हदगीता में आगे कहा गया है कि ॐ नमः सिद्धं 46 ' सर्व संगविनिर्मुक्तः, सिद्ध-केवल - बोधनात् । स एव परमेष्ठीति, गेयोऽर्ह तात्विकैः जनैः ॥ १ ॥” 66 'तेनैव मातृका - पाठेऽपि ॐ नमः सिद्धमुच्यते" ॥२॥ अर्थात् सभी प्रकार के संग से रहित केवल ज्ञान के कारण इसी सिद्ध की हो परमात्मा, परमेष्ठी या अह ँ के रूप में तत्त्वविद् जनों को उपासना करनी चाहिए । मातृका पाठ में उसे सिद्धम् " कहा गया 1 वाचक है। " ॐकारः Jain Education International ही “ ॐ नमः "ॐ भी सिद्ध का सिद्ध-वाचकः ( अर्हद्गीता २५/६ ) [ ११ अतः सभी साधकों को सिद्ध पद की ओर बढने के लिए “ ॐ नमः सिद्धम् " की उपासना करनी चाहिए, जिसका बीज अर्ह है । श्री अर्हद्गीता में प्रत्येक वर्ण का सविस्तर विवेचन किया गया है, एवं उन सब में गूढार्थों का सन्निवेश प्रदर्शित किया है । " छन्दशास्त्रानुसार गणों का (न गण, भ गण, स गण, आदि) भी सविस्तार विवेचन उसमें हुआ है। ॐ शब्द नमः शब्द, एवं सिद्ध शब्द की विविधात्मिका व्याख्या अर्हद्गीता में की गई है, जो इस ॐ नमः सिद्धम् के विवेचन से भी एक बृहत् विवेचन है । यहाँ उसके विवेचन को अधिक उद्धृत इसलिए नहीं किया कि मेरा यह विवेचन तो उसकी पुष्टि के लिए एक परिशिष्ट मात्र है । R For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy