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________________ दार्शनिक आलोक में आत्मा नित्य आत्मा माननेवाले सुख-दुःख आदि नैरात्म्यदर्शन का मार्ग क्षणिकता का भावनाओं के उत्पन्न होने पर उसमें विकृति का | निश्चय है । अनुभव करते हैं तो उसे धर्म-अधर्मादिके समान सभी पदार्थो को क्षणिक मानने पर ज्ञान अनित्य मानना होगा और यदि सुख आदि के | का भो कोई आश्रय सिद्ध न होने से आत्मा की उत्पन्न होने पर भी यदि वह निर्विकार है तो | कल्पना रब पुष्प तुल्य सिद्ध होती है। सुख-दुःख के रहने या न रहने से क्या विशेष सतत परिवर्तनशील शारीरिक और मानहोता है ? सिक क्रियाओं में प्रवहमान एकता है, परन्तु यदि कोई विशेष नहीं है तो कर्म का | उनके कोई स्थायो तत्त्व नहीं है। अस्थायी वैफल्य हो जाएगा, इसलिए कहा गया है कि शारीरिक तथा मानसिक क्रियाएँ अविधा के कारण भ्रमवशात् स्थायी आत्मा मान ली वर्षाऽऽतपाभ्यां किं व्योम्नः जाती है। चर्मण्यस्ति तयोः फलम् । मिलिन्द प्रश्न में बौद्ध दार्शनिक नागसेनने चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः राजा मिलिन्द को रथ के दृष्टांत द्वारा आत्मा रवतुल्यश्येदसत्समः ॥ की संघातरूपता को समझाया है। अर्थात् “जिस प्रकार वर्षा या धूप से | जिस प्रकार रथ, चक्र, ध्रुवा तथा रथ के आकाश में कोई विकृति नहीं आती है, परन्तु | अन्य अवयवों के संघात के अतिरिक्त कुछ चमडे में उससे विकृति उत्पन्न होती है। यदि | नहीं है। आत्मा चर्म के समान है तो अनित्य होगा और उसी प्रकार " मैं " आत्मा भी रूपस्कन्ध, आकाश के समान है तो वह असत् के वेटनाकन्ध. संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध तथा समान है। विज्ञानस्कन्ध के संघात के अतिरिक्त कुछ भी इस लिए मुमुक्षु को मूर्धाभिषिक्त इस आत्म- | नहीं है। ग्रहरूपी मदमोह को छोडना चाहिए। सांख्य मत :आत्मग्रह के विनष्ट होने पर आत्मीयग्रह का सांख्य का मत है कि प्रकृति कर्ता है और विनाश होता है। जब 'मैं' का अस्तित्व नहीं पुरुष या आत्मा पुष्कर-पलाश की तरह निर्लेप है तो "मेरे" का कहाँ अस्तित्व रह जाता है ? परन्तु चेतन है । इस प्रकार से अहंकार और ममाकार की चेतना पुरुष का स्वाभाविक गुण है, यह ग्रन्थि का विमोचन करनेवाला नैरात्म्यदर्शन ही न्याय-मत के समान उसका आकस्मिक गुण निर्वाणद्वार है। नहीं है। ३ ज्ञानं बौद्धगृहे तावत्कुतो नित्यं भविष्यति । अन्येऽपि सर्वे संस्काराः क्षणिका इति गृह्यताम् ।। वहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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