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________________ तत्त्वज्ञान स्मारिका जिस प्रकार गुड-आटा आदि में पहले न अतः नैरात्म्यदर्शन से ही कामतृष्णा, रहनेवाली मद-शक्ति उसी के सुरारूप में परिणत | भवतृष्णा और विभावतृष्णा का क्षय होकर होने पर आ जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि निर्वाण की प्राप्ति होती है। भूतों के शरीर के रूप में परिणत हो जाने पर बौद्ध क्षणभंगवादी होने के कारण उनके चैतन्य प्रादुर्भूत हो जाता है। मत से किसी भी वस्तु की स्थायी सत्ता नहीं है। ___ अन्त-समय में व्याधि आदि के कारण | सतत प्रवहमानता, अनवरत परिवर्तनचैतन्य का विनाश होकर मृत्यु की अवस्था प्राप्त शीलता ही है। होती है। जब तक चैतन्य रहता है तब तक अस्थायी Becoming के सिद्धान्त के स्मृति-अनुसंधान आदि व्यवहार चलते रहते हैं। अनुसार ह्यूम के समान बौद्ध दार्शनिक भी आगम का प्रामाण्य कल्पित होने से उसके ज्ञान (आत्मा) को मानसिक प्रक्रियाओं का क्रम मात्र अथवा विज्ञान सन्तान मात्र मानते हैं । आधार पर भी आध्यात्मिक आत्म-तत्त्व की सत्ता ___ उनके अनुसार आत्मा पञ्चस्कन्ध है, यह का प्रतिष्ठापन नहीं किया जा सकता। अस्थायी मनोदशाओं तथा शारीरिक प्रक्रियाओं वैसे आगम भी भूत-चैतन्यवाद का समर्थन का संघातमात्र है। करता है । अतः चार्वाक-मत के अनुसार नित्य यह रूपस्कन्ध, वेदना स्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, आध्यात्मिक सत्ता की स्थापना न होने से पर संस्कारस्कन्ध तथा विज्ञानस्कन्ध का संघात है। लोकादि की भी कल्पना निराधार है। __इन पाँच प्रकार के स्कंधों का संघात ही बौद्ध मत : यथार्थवादियों का अहंप्रत्ययवेद्य आत्मा है । प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम के समान ____ आत्मा का यह विचार ह्यूम के विचार के ही बौद्ध-दार्शनिक भी आध्यात्मिक आत्मतत्त्व समान है, परन्तु बौद्धों का आत्मा का प्रत्यय की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं । शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार की ___ वे अनात्मवाद या नैरात्म्यवाद के सिद्धान्त क्रियाओं को भी अपने में सम्मिलित करता है । को स्वीकार करते हैं। परन्तु ह्यूम का प्रत्यय मात्र प्रत्यय है। उसमें बौद्धों की मान्यता के अनुसार आत्मदर्शन मानसिक तथा शारीरिक क्रियाओं का समावेश ही सभी दुःखों का मूल कारण है । [ नहीं है। १ विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येनानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्नि । २ तथा च लौकायतिकाः परलोकापवादिनः । चैतन्यखचितात् चित्तात्कायान्नात्माऽन्योऽस्तीते मन्यते ॥ न्या. म. व्र, प्र ननु चाश्रितमिच्छाऽऽदि देह एव भविष्यति । भूतानामेव चैतन्यमिति प्राह बृहस्पतिः || वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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