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जैन साहिय में भूगोल उल्लेख किया गया है उसमें सम्भव है सर्वनंदि६ व्यन्तर लोक, ७ ज्योति लोक, ८ देव लोक, कृत लोक विभाग का उल्लेख हो।
९ सिद्ध लोक । ग्रन्थ में ५६७७ गाथाएँ हैं। तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रंथ में लोक विभाग इस प्रन्थ के कर्ता यतिवृषभाचार्य हैं, जो का अनेक बार उल्लेख किया गया है। कषायप्राभृत की चूर्णि के लेखक से अभिन्न
सिंहसूरि ने यह भी लिखा है कि उन्होंने । ज्ञात होते हैं । अपना यह रूपांतर उक्त ग्रंथ से संक्षेप में त्रिलोकसार किया है।
इसके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त--चक्रवर्ती है। रचना जिस रूप में प्राप्त हुई है, उसमें
यह ग्रन्थ १०१८ प्राकृत गाथाओं में पूरा २२३० श्लोक हैं और वह जम्बूद्वीप, लवण |
| हुआ है । इसमें लोकसामान्य, भवन, व्यन्तर, समुद्र, मानुष क्षेत्र, द्वीप समुद्र, काल ज्योतिर्लोक,
ज्योतिष वैमानिक और नर-तिर्यक् लोक ये छ भवनवासी लोक, अधोलोक, व्यन्तर लोक, स्वर्ग
अधिकार पाये जाते हैं। लोक और मोक्ष इन ग्यारह विभागों में
त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार ही संक्षिप्त में विभाजित है।
विषम वर्णन किया गया है। इसका रचनाकाल ग्रंथ में कहीं-कहीं तिलोयपण्णत्ति, आदि- |
ई० ११वीं शताब्दी हैं। पुराण, त्रिलोक सार, एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथों के अवतरण या उल्लेख पाये जाते हैं, | जम्बूदीवपण्णत्ति जिसके आधार पर यह अनुमान किया जा इसके रचयिता पद्मनन्दि मुनि है। सकता है कि इस ग्रंथ की रचना ११वीं शताब्दी
इसमें २३८९ प्राकृत गाथाएँ हैं और के पश्चात हुई हैं।
इसकी रचना तिलोयपण्णत्ति के आधार पर की तिलोयपण्णत्ति
त्रैलोक्य सम्बन्धी समस्त विषयों को पूर्णतः __इसका समय १०वीं शताब्दी है और और सुव्यवस्थित रूप से प्रतिपादित करने वाला | रचना कोटा राज्य के बारां नामक स्थान पर उपलब्ध प्राचीनतम ग्रंथ है।
की गई । इस ग्रंथ की रचना प्राकृत गाथाओं में | इसके तेरह उद्देश्य इस प्रकार हैं-१ उपोद
घात २ भरत-एरावत वर्ष ३ शैलनन्दीभोगग्रंथ नौ मताधिकारों में विभाजित है, यथा | भूमि ४ सुदर्शन मेरु ५ मंदिर जिनभवन ६ १ सामान्य लोक, २ नारक लोक, ३ भवन- | देवोत्तर कुरु ७ कक्षा विजय ८ पूर्व विदेह ९ वासी लोक, ४ मनुष्य लोक, ५ तिर्यक् लोक, | अपर विदेह १० लवण समुद्र ११ द्वीप सागर
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