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________________ ४] तत्त्वज्ञान स्मारिका [ खंड - हस्व, दीर्ध एवं प्लुत भेद से यह स्वयं यह उ पुष्टिदाता भी है, एवं मुक्तिदाता तीन प्रकार का है, जो क्रमशः सत्त्व, रज एवं भी । तमो गुणों का प्रतीक है। म वर्णमाला का २५ वाँ अक्षर है, एवं - इसका अर्थ सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, | अनुनासिक हैं। अव्यय, एक, अखण्ड, निषेध, अभाव आदि यह हृदयकमल की कर्णिका में स्थित है। होता है और ये सब अनादिसिद्ध पुरुष के इसकी आकृति, बिन्दु एवं कलामय है गुण अथवा विशेषण हैं। एवं आहत से अनाहत की ओर बढनेवाला है। ४. यह कंठ से उच्चरित है जो नादका-केन्द्र- इसके चन्द्र एवं बिन्दु, सूर्य एवं चन्द्र के प्रतीक स्थान है। माने जा सकते हैं। 'उ' पांचवाँ स्वर है, जो पंच भूतात्मक इसके चारों ओर स्थित २४ दलों में क संसार का रूप अपने में समाविष्ट करता है। से म पर्यन्त २४ वर्ण हैं, जो जैनों के २४ . इसमें दो बलय हैं, एक ऊपर का, एवं तीर्थंकर, हिन्दुओं के २४ अवतार, एवं बौद्धों दूसरा नीचे का, दोनों के बीच में एक बिन्दु के २४ बुद्धों के प्रतीक माने जा सकते हैं। है । ऊपर का वलय उर्ध्व लोकों का, एवं नीचे पाणिनीय शिक्षा के अनुसार " कादयो का वलय संसार का प्रतीक है। बीच का बिन्दु | मान्ता स्पर्शाः ” अर्थात् ' क ' से लगाकर 'म' यह बताता है कि ब्रह्म की बिन्दु रूपात्मक | पर्यन्त वर्ण स्पर्श हैं । आकृति से ही द्विभावात्मक संसार का सर्जन दार्शनिक भाषा में स्पर्श का अर्थ है इन्द्रियहोता है। संवेद्य वस्तु । इस प्रकार 'म' दृश्यमान संसार संगीत में पंचम स्वर प्रमोद एवं हर्ष का का प्रतीक हुआ । सूचक माना जाता है, अतः पंचम स्वर होने के | अ का अर्थ है अतीन्द्रिय जगत् , एवं उ कारण यह उ भी प्रमोद एवं हर्ष का सूचक है। का अर्थ है सतत गमन । यह पंच परमेष्ठियों का भी अनुव्यञ्जन | अब पूरे ॐ का अर्थ हुआ इन्द्रिय-संवेद्य करता है, एवं पंचम होने के कारण पाँचों में ज्ञान से अतीन्द्रिय जगत की ओर सतत गमन सर्वोपरि अरिहंत का रूप है। करवानेवाली बीज वस्तु । ___ यह 'उ' अत्+ड धातु-प्रत्यय से बना अर्थात् दृश्य एवं अदृश्य, संसार का आदि है, जिसका अर्थ होता है ' सतत गमन'। एवं अन्त, इसी में व्याप्त है यानी यह ब्रह्मस्व अर्थात् यह व्यक्ति को सतत गतिशील | रूपी है। बनाता है, एवं अ-अव्यक्त की ओर " चरैवेति । ___ अ से प्रारम्भ, उ से गमन, एवं म में चरैवेति "-" चलते रहो, चलते रहो" (ऐतरेय मापन, क्योंकि म् मा (मापना) धातु का ब्राह्मण ग्रंथ) का संदेश देता है । प्रतीक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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