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________________ ३ तीसरा ] माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है ॐ नमः सिद्धं " यह अध्यक्षर रूप परमात्मा त्रिमात्रिक ऊँकार है ।" अकार; उकार एवं म कार इसके तीन पाद हैं, और ये पाद ही मात्राएँ हैं । प्रथम मात्रा अकार सर्वव्यापक और आदि होने के कारण जागृत अवस्था की द्योतक है द्वितीय मात्रा उकार श्रेष्ठ और द्विभावात्मक होने से स्वप्न अवस्था, एवं तृतीय मात्रा म कार मापक और विलीन करनेवाली होने से सुषुप्ति अवस्था की द्योतक हैं । ये ही तीन मात्राएँ क्रमशः विश्व, तैजस एवं प्राज्ञ नामक तीन चरणों की द्योतक हैं । मात्रा रहित ॐकार अव्यवहार्य, प्रपंचातीत एवं कल्पनारुप है यही ब्रह्म का चतुर्थ चरण है । तांत्रिक परिमाषा में बिन्दुनवक अर्द्धमात्रा रूप है । यह ॐकार त्रिमात्ररूप है, इसलिए जैनागमों में ॐ के प्रणिधानपूर्वक नवपद की आराधना अनिवार्य बताई गई है । Jain Education International [५ प्र= प्रपंच न=नहीं है वः = तुम में अर्थात् आत्मा में कोई प्रपंच नहीं है, एवं उसका सदैव स्मरण आत्मा के रहे - सहे कलुष को भी समाप्त कर देता है | श्री पंच परमेष्ठि वाचक यह ॐकार अ+अ + आ + उ + आदि ५ वर्णों के योग से बना है । जिन्हें क्रमशः अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का प्रतीक कह सकते हैं । यह परमेष्ठी- भगवन्तों का एकाक्षरी मंत्र है । ' पंचनमस्कृतिदीपक' नामक ग्रंथ में पूज्यपाद समन्तभद्रसूरि ने इसकी महिमा इस प्रकार गई है कि " श्वेत वर्ण से ध्यान करने से यह ॐ शान्ति, तुष्टि, पुष्टि आदि प्रदान करता है, लाल वर्ण से ध्यान करने से यह वशीकरण करता है, एवं कृष्ण वर्ण से ध्यान करने से शत्रु का नाश, तथा धूम्रवर्ण के ध्यान से यह स्तम्मन करता है । " 6 'नमः' में चार वर्ण एवं एक विसर्ग है, जिनके अर्थ है न्-नहीं, अ-अभाव, मू- नापना, अ-पूर्णता, विसर्ग-विशिष्ट सृष्टि यानि सचराचर सृष्टि की पूर्णता के गायन - मूल्याङ्कन में अपूर्णता नहीं होनी चाहिए । नव पद, सिद्धचक्र का रुढि - प्रयुक्त नाम 'है । 'प्रयोग क्रम दीपिका' में कहा गया है। अकारो भूरुकारस्तु भुवो, मार्ण स्वरीरितः ॥ ११ ॥ अर्थात् अ, उ, म् में भूः, भुवः स्वः तीनों का समावेश हो जाता है । ॐकार को प्रणव भी कहते हैं । शिव पुराण में कहा गया है"नूतनं वै करोतीति प्रणवं तं विदुर्बुधाः " । नित्य नवीनता उत्पन्न करनेवाला होने से पण्डित - जन इसे प्रणव कहते हैं । वेदों में कहा गया है " तन्नम इत्युपासीत " अर्थात् "वह नमः ही है उसकी (अर्ह) उपाप्रणव का अर्थ है - प्रकृति से उत्पन्न हुए सना करो । नमः की छन्द शास्त्रानुसार तीन संसार के लिए यह नौ= नौका रूप है । अथवा | मात्राएँ प्रणव की त्रिमात्रता की सूचक हैं । For Private & Personal Use Only सचराचर सृष्टि का भौतिक प्रतीक वर्णमातृका है एवं परा प्रतीक 'अर्ह" है जो मातृका कासाररूप है । www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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