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________________ तत्त्वज्ञान स्मारिका [ खंड त्रिमात्र का अर्थ है संसार अर्थात् नमने- नमः का विलोम मनः है, 'मन' संसार का वाले को संसार की सभी वस्तुएं आसानी से प्रतीक है, तो नमः मोक्ष का प्रतीक है । मन से उपलब्ध हो जाती हैं। चलोगे तो बन्ध होगा, एवं उसके विपरीत चलोगे __ ये न और म दोनों अनुनासिक है, एवं | तो मोक्ष होगा-"मनः एव मनुष्याणां कारणं विसर्ग प्राणध्वनि है । ये दोनों प्राणायाममय बन्धमोक्षयोः ।" हैं। विसर्ग का उच्चारण-स्थान नाभि है । नमः अष्टांग योग का प्रतीक है । आठों प्राणायाम में नाभि नीचे का अंग, एवं नासिका ही अंगों का जब हम द्रव्य-भाव रूप से संकोच उर्व अंग माना जाता है। करते हैं, तभी किसी को नमस्कार होता है । ये इस प्रकार यदि 'नम्' को नासिकादि उर्ध्व आठों अंग अ वर्गादि श वर्ग पर्यन्त आठों वर्गों अंगों, एवं विसर्ग को नाभि आदि अधो अंगोंका | के प्रतीक हैं, जिनका न्यास ऋषिमण्डल स्तोत्र प्रतीक माना जाय तो यह शरीर के द्रव्य-संकोच में शरीरांग में किया गया है :का प्रतीक हो जाता है। | आद्यं पदं शिखां रक्षेत् , परं रक्षेत् तु मस्तकं, साथ में यदि आन्तरिक भावनाओं का तृतीयं रक्षेत् नेत्रे दे, तुर्य रक्षेत् च नासिकां; भी संकोच कर दिया जाय तो यह भाव-संकोच | पंचमं तु मुख रक्षेत् , षष्ठं रक्षेत् च घण्टिकां, का प्रतीक बन जाता है, यही योगरूप है क्योंकि नाभ्यन्तं सप्तमं रक्षेत् , रक्षेत् पादान्तमष्टमम् वह भी तो चित्तवृत्तियों का विरोध-नियमन ॥६-८॥ ही है-"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" । 'नम्' धातु से ' नमः' बना है, जिसका नमः पद सर्वोत्कृष्ट शरणागति का सूचक अर्थ है झूकना, अर्थात् यह नम्रता, विनय एवं | है, है, क्योंकि जिसे नमस्कार किया जाता है उसकी सरलता का प्रतीक है। शरण का स्वीकरण होता हैं। उसमें शरीरांग - किसी के गुणों को हम नीचे झुक कर | एवं-आत्म प्रदेशों का समर्पण है । इस प्रकार या शिष्यत्व ग्रहण कर ही ले सकते हैं। "ॐ नमः सिद्धम्" का अर्थ हुआ (मैं) अ-उ- पाणिनीय व्याकरण की “ नमः योगे म् व्यक्त संसार से अव्यक्त सिद्ध पद (ब्रह्म) की ओर गमन करने के लिए सर्व समर्पणपूर्वक सिद्ध चतुर्थी " की दार्शनिक व्याख्या इस प्रकार की पद वाचक अर्ह की शरण स्वीकार करता हूँ। जा सकती है कि ननः से चतुर्थी अवस्था मोक्ष | की प्राप्ति होती है । मोक्ष की पूर्वावस्थाएँ धर्म, अब रही 'सिद्धम्' की बात । अ से क्ष अर्थ, काम आदि तो सहज ही प्राप्त होती हैं। पर्यन्त पचास वर्ण सिद्धरूप में प्रसिद्ध हैं, तो नमः यह बताता है कि सिद्धत्व को प्राप्त उनका ही चक्र (समुदाय) सिद्ध-चक्र कहा करने के लिए सिद्ध को नमस्कार करो। | जाता हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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