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३ तीसरा ]
ॐ नमः सिद्धं "अकारादि क्षकारान्तानां पञ्चाशत् सिद्धत्वेन | वान होता है। इसी अर्थ में समग्र संसार का प्रसिद्धानां यच्चक्रं समुदायस्तत् सिद्धचक्रम् । । ज्ञान-विज्ञान सिद्धपद निहित है।
सिद्धहेम शब्दानुशासन बृ. वृ. वर्णमातृका को लिपिमयी देवी भी कहते हैं, इनमें एक चन्द्र बिन्दु मिला दिया जाय | यह वर्णमातृका का लौकिक रूप है। सूत संहिता तो ये ५१ हैं । शरीर में इक्यावन ही शक्ति- | के टीकाकार माधवाचार्य ने तात्पर्य दीपिका में पीठ हैं और मातृका न्यास भी तदनुरूप ही | लिखा है किहोता है, इसीलिए सिद्ध चक्र एवं ऋषिमंडल यंत्र । ___मातृका का पररूप परा और पश्यन्ती से की आकृति पुरुषाकार है।
परे बिन्दु नादात्मक है। __ ये वर्ण ही मातृका हैं, एवं इनके पठन, वर्णमातृका सृष्टि का लौकिक रूप है और पाठन, स्मरण तथा विचिन्तन का फल योगशास्त्र | इसमें अकार से हकार पर्यन्त समस्त वर्णों का में इस प्रकार बताया गया हैं :
पाठ हो जाता है और यही ' अहं ' सूक्ष्म से ध्यायतोऽनादि-संसिद्धान् वर्णानेतान्यथा विधि । | लेकर स्थूल पर्यन्त अविल सृष्टि का वाचक है। नष्टादि विषयं ज्ञानं ध्यातुरूत्पद्यते क्षणात् ॥५॥
'अहं' सांसारिक बन्धन, ममता एवं आवर्त का अर्थात् अनादि काल से भली प्रकार से सिद्ध
इसी मातृका का पर रूप 'अहं' है, जो वर्णो का यथाविधि ध्यान करते हुए ध्याता को
संसार से मुक्ति, वीतरागता एवं माध्यस्थ्य का नष्टादि विषयक ज्ञान अल्प समय में उत्पन्न
प्रतीक है क्योंकि इसमें अग्नि बीजरूप रेफ होता है । सारस्वत व्याकरण में "सिद्धो वर्णः"
का सन्निवेश है। कह कर वर्ण का सिद्ध स्वरूप बताया गया है। इन्हीं सिद्ध वर्गों में समग्र ब्रह्ममय संसार
जब व्यक्ति (अहं) अ से ह पर्यन्त सभी व्याप्त है
सांसारिक वासनाओं एवं इच्छाओं को अग्नि
बीज स्वरूप उर्ध्वगत्यात्मक 'र' से जला देता या सा तु मातृका लोके पर तेजः समन्विता ।
है तब वह अहं बन जाता है। तया व्याप्तमिदं सर्वमा ब्रह्म भुवनान्तरम् ॥
'र' अन्तस्थ है, अर्थात् संसार-नाश की ब्रह्म के दो रूप हैं एक ''शब्द ब्रह्म" एवं | भावना सुप्त अग्नि के रूप में सांसारिक आत्माओं दूसरा “अर्थ ब्रह्म" । सृष्टि भी दो प्रकार की
| में विद्यमान रहती है, पर भौतिक-आडम्बर है-शब्दमयी एवं अर्थमयी । इस प्रकार सिद्ध | में वह लुप्त रहती है तब तक व्यक्ति अहं के वर्ण के दो रूप हुए—पदमय एवं पदार्थमय । | रूप में केवल व्यष्टि में ही आविष्ट रहता है।
___ महर्षि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में लिखा | जब “अकारादि हकारान्तं" कामनाओं के है "अर्थवन्तो वर्णाः” अर्थात् प्रत्येक वर्ण अर्थ- मध्य उर्ध्वगतिमय रेफात्मक अग्नि बीज का वपन
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