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तत्वज्ञान स्मारिका
होता है तो वही साधारण आत्मा अह बन अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म वाचक परमेष्ठिनः ।
जाती है ।
यही अहँ पर रूप मातृका का सार है 1
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'ॐ नमः सिद्धम् ' में पर रूपमातृका के सारभूत इसी अह की उपासना है । श्री सिद्धचक्रयंत्रोद्धार पूजन विधि की प्रथम चौबीशी में इसी भाव की पुष्टि की गई है :--
"अर्हमात्मानम अग्निशुद्धं, मायामृत प्लुतं, सुधा कुम्भस्थ माकष्ठं, ध्यायेच्छांतिककर्मणि” ॥२४॥
अर्हद्गीता में भी कहा गया हैरेफोग्निबीजं प्रकृतिर्विसर्गस्य निसर्गति ॥ ॥३३॥१६ ॥
ऋषिमण्डल स्तोत्र में भी कहा गया हैआद्यन्ताक्षर संलक्ष्य - मक्षरंव्याव्य यत् स्थितम् । अग्निज्वाला समं नादबिन्दु रेखा समन्वितम् ॥ १ ॥
अहं मनोमल का प्रतीक है, और अर्ह मनोमल का विशोधक है ।
अहं 'जीव' है तो अर्ह 'शिव' |
अ अहं का प्रतिपक्षी है । यही अ 'ब्रह्म' है, परमेष्ठि का वाचक है, वर्णमातृका रूप सिद्धचक्र का बीज है
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सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणिदधमेह ||३|| ऋषिमण्डल स्तोत्र
. सिद्धम् में पाँच वर्ण हैं स्+इ+द्+ध्+अं, एवं मात्रा ४ हैं । ये पांच वर्ण भी पंच परमेष्ठियों के सूचक हैं, एवं ४ मात्राएँ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को देनेवाली हैं ।
[ खंड
यह 'सिद्ध' शब्द अर्ह का वाच्य है । [ मंत्र को प्राणवान्, चैतन्यवान् एवं फलदायी बनाने हेतु उसमें सृजन शक्ति का समावेश . करना अत्यन्त आवश्यक होता है ।
ह पुरुषाकार है, तो 'अ' प्रकृति रूप; ये दोनों मिलकर अहं बनते हैं और जब तक पुरुष तथा प्रकृति का भाव रहेगा तब तक सृष्टि में कर्मों का सर्जन होता रहता है । जब अग्नि बीज र के द्वारा पुरुष तथा प्रकृति का भेद समाप्त कर दिया जाता है, तब आत्मा का अहं रूप अर्ह बन जाता है ]
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यही 'अ' नवपद सिद्धचक्र का बीज रूप है जो जैनागम में विशुद्ध ज्ञान मार्ग का 'अहं' का अर्थ है 'शरीर संज्ञानी', तो प्रतीक है । श्री सिद्धचक्र के पूजन के द्वितीय " का अर्थ है 'आत्म संज्ञानी' । वलय में वर्ग से अ आदि १६ स्वर, क वर्ग से पर्यन्त २५ व्यञ्जन, ४ अन्तस्थ, ४ ऊष्माक्षर तथा एक अनाहत नाद की अर्चना की गई है।
अहं यदि 'व्यष्टि' है तो अहे " ' समष्टि' हैं ।
उसके दूसरे मंत्र इन्हीं वर्णों की विविधा - मिका व्याख्या है यह 'अहं' ही दूसरे मंत्रों में वर्णमाला के आकार को ग्रहण कर व्याप्त है ।
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