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________________ [ ९ ३ तीसरा ] ॐ नमः सिद्धं यह अहं प्राणायाम-मय है, इसका प्रथमा- | उस पिण्डस्थ रूप में वर्णमाला का ध्यान क्षर अ पूरक है, ह रेचक है, एवं म कुम्मक है। करना पदस्थ ध्यान कहलाता है । म को बिन्दु रूप में भी व्यक्त करते हैं । यह पदस्थ ध्यान का मूल अथवा सार “अकाबिन्दु सभी प्राणियों के नासाग्र भाग में स्थित राधं हकारान्तं बिन्दु रेखा समन्वितं" अर्ह हैं। है, एवं योगियों द्वारा चिन्तनीय है । श्री सिद्ध- । श्री जयसिंहदेवसूरि विरचित धर्मोपदेशचक्र यंत्रोद्धार पूजन-विधि में इसकी पुष्टि की माला विवरण में अहं रूप सिद्ध - मातृका का महत्त्व प्रतिपादित किया गया हैआह्वानं पूरकेणैव, रेचकेन विसर्जनम् ।।२२।। । " अकारादि हकारान्तं प्रसिद्धा सिद्धमातृका" तो यह स्पष्ट हुआ कि सिद्धचक्र जिसको इस-सिद्ध मातृका की अपनी एक लिपि नवपद भी कहते हैं, सिद्ध वर्णों का समुदाय है, जिसका न्यास मंत्र जपादि में प्रत्येक साधक है, जिसके मूल में अ से ह पर्यन्त तेजोमय अर्ह । के करना चाहिए । स्थित है। जपादौ सर्वमंत्राणाम् विन्यासेन लिपेविना । ॐ ही स्फुटानाहत मूल मंत्रं, कृतं तन्निष्फलं विद्यात् तस्मात् पूर्व लिपि न्यसेत् ॥ स्वरैः परीतं परितोऽस्ति सृष्टया ॥ ___अनादि सिद्ध मातृका को पद भी कहते यत्राहमित्युज्ज्वलमाद्यबीजं, हैं। पद वाचक है एवं उसका अर्थ वाच्य है। श्रीसिद्धचक्रं तदहं नमामि ।। अर्ह पद परमेष्टी भगवान का वाचक है, तांत्रिक भाषा में जिसे बिन्दु नवक कहते हैं, | एवं पंच परमेष्ठी उसके वाच्य हैं । उसे बिन्दु, अर्द्वन्दु, निरोधिनी, नाद-नादान्त, संसार के समस्त पदाथों के साक्षात्कार शक्ति, व्यापिनी, समना उन्मना, समाहित हैं । हेतु अर्ह पद की उपासना, शरण एवं प्रति____ आगमिक भाषा में इसे अरिहंत, सिद्ध, ष्ठापना आवश्यक है । अर्ह के तीन पद अ = आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान चारित्र उत्पाद, र = व्यय. एवं ह = ध्रौव्यात्मकता एवं तप अर्थात् नवपद की संज्ञा से अभिहित कर के प्रतीक हैं। सकते हैं। मांत्रिक भाषा में से इसे स्वर (अ वर्ग) 'अ'- अव्यक्त होने से बिन्दु रूप है, क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, अन्तस्थ कलात्मक है, एवं 'हं' की गूंज नादाऊष्म एवं क्ष वर्ग कह सकते हैं। कहा गया है त्मक है। " ननु क्षकारेण सह नव वर्गाः " अर्ह ' का व्याकरण शास्त्रानुसार अर्थ (तंत्रालोक ६ अध्याय) | है “ योग्य" । अहँ जब तप की पावन अग्नि श्री सिद्धचक्र यंत्र आकृत्यात्मक है, एवं में हं की हुंकृति को भस्म कर देता है, तब वह उसकी स्थापना पिण्डस्थ रूप में की गई है। अ - अशेष यानी सम्पूर्ण बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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