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३ तीसरा
ॐ नमः सिद्ध जा सकता है कि क से म पर्यन्त २४ व्यञ्जन । “ॐ क्या है ? यह अ, उ, म् आदि तीन हैं एवं कर्णिका का 'म' अनुनासिक है, जो वर्णों से बना है ? इन २४ दलों में अनुगुंजित है।
यह 'अ' वर्णमाला का प्रधान या बीजायोग शास्त्रानुसार नाभिकमल में १६ पत्र | क्षर है । पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है :-- हैं, जो १६ स्वर रूप में प्रकाशमान हैं । स्वयं "सर्वमुख स्थानं वर्णमित्येके " * अर्थात् राजन्ते इति स्वराः अर्थात् वे स्वयं प्रकाशमान हैं, मुख-उच्चारित सभी वर्गों में केवल एक 'अ' सिद्ध हैं, एवं व्यञ्जनात्मक प्रकाशमान-दृश्यमान
। ही प्रधान है। संसार का आधार है । इन स्वरों के बिना व्यञ्जन
समस्त शब्द-समूह, और समस्त ध्वनि अपूर्ण हैं, अनुच्चरणीय हैं।
समूह, स्थान-प्रयत्न भेद से उसी एक आकार वैसे ही मुख में अष्टदल कमल है, जो
का ही रूपान्तर है। अन्तस्थ एवं ऊष्म रूप में (य-र--ल-व-श-प
यही आकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित स-ह) वर्णमालामें प्रसिद्ध है।
रहता है, एवं बिना उसकी सहायता के न तो
कोई वर्ण कहते बनता है, एवं न उसे समझा ही इस वर्णमाला को शाश्वत-ज्ञान का प्रतिक
जा सकता है। माना जाता है, एवं यह प्राणी-मात्र के लोक
यह 'अ' अपने प्रबल अस्तित्व के कारण निर्माण तथा परलोक-साधना में आधारभूत है ।
अन्य वर्णों का अभाव एवं अपनी पूर्णता सूचित इसकी साधना के बल पर ही श्रुतसागर करता है, अतः यह बिन्दुरूप है। में अवगाहन किया जा सकता है । इसके महत्त्व सभी वर्गों को यह स्तम्भ बन स्थायित्व का प्रतिपादन करते हुए योगशास्त्र के अष्टम प्रदान करता है, एवं दण्डरूप में उनका नियमन प्रकाश में यह उल्लेख किया गया है कि- करता है, यह उसका कला रूप है। इमां प्रसिद्ध सिद्धान्त-प्रसिद्धाम् वर्णमातृकाम् ।। इसी कलामय रूप से यह हलन्त अथवा ध्यायेद् यः स श्रुताम्भोधेः पारं गच्छेच्च तत्फलात्॥ अपूर्ण वर्णों को उच्चारणों में सुकर करता है,
अर्थात् जो ज्ञानी पुरुष इसी वर्णमातृका | अतः यह उसका नादात्मक कार्य है। ... का ध्यान करता है वह अवश्य ही श्रुतसागर का
एक ही वर्ण में बिन्दु कला एवं नादरूप पार पा सकता है।
ब्रह्म की त्रिविधात्मिका शक्ति सन्निविष्ट है । यही वर्णमाला या मातृका मंत्रशास्त्र, तंत्र
यही 'अ' प्रधान है, प्रमुख है, प्रथम है,
| एवं अनादि, अनन्त तथा अमृतरूप भी है। शास्त्र, तथा योग शास्त्र का मूल बीज हैं।
श्रीमद् भगवद्गीता में कहा गया है" ॐनमः सिद्धम् ” में इसी सिद्ध पद । “अक्षराणामकारोस्मि" अर्थात् “ अक्षरों में मैं की उपासना, अर्चना एवं वन्दना की गई है।। अकार हूँ।
*अकारादेव सर्वेषामक्षराणां समुद्भावः । स्थान प्रयत्नादि भेदेन, स्याद्विशेषः प्रकाशते ॥ अहंदगीता २६४
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