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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४५ नहीं बनते हैं, स्कन्ध के अभाव में प्रदेश-प्रच- को व्याप्त करता है, अतः उसमें विस्तार है, यत्व की कल्पना सम्भव नहीं है, अतः वे अस्ति- । वह अस्तिकाय है । काय द्रव्य नहीं है।
हमें इस भ्रान्ति को निकाल देना चाहिए ___ काल द्रव्य को अस्ति काय इसलिए नहीं | कि केवल मूर्त-द्रव्य का विस्तार होता है और कहा गया कि उसमें स्वरूपतः और उपचारतः | अमूर्त का नहीं। दोनों ही प्रकार से प्रदेश-प्रचय की कल्पना । आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया का अभाव है।
| है कि अमूर्त द्रव्य का भी विस्तार होता है, यद्यपि पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने पुद्गल | वस्तुतः अमूर्त द्रव्य के विस्तार की कल्पना उसके ( Matter ) का गुण विस्तार (Extention) | लक्षण या कार्यो (Functions) के आधार माना है, किन्तु जैन दर्शन की विशेषता तो वह पर की जा सकती है, जैसे धर्म द्रव्य का कार्य है कि वह आत्मा, धर्म, अधर्म और आकाश | गति को सम्भव बनाना है, वह गति का माध्यम जैसे अमूर्त द्रव्यों में भी विस्तार की अवधारणा माना गया है । करता है। इनके विस्तारवान (कायत्व से युक्त | अतः जहां जहां गति है या गति का सम्भव होने) का अर्थ है वे दिक् ( Space ) में प्रसा- है, वहीं धर्मद्रव्य की उपस्थिति एवं विस्तार रित या व्याप्त है।
है, यह माना जा सकता है। धर्म एवं अधर्म तो एक महास्कन्ध के रूप इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंच में सम्पूर्ण लोकाकाश के एक सीमित असंख्य- सकते हैं कि किसी द्रव्य को अस्तिकाय कहने प्रदेशी क्षेत्र में प्रसारित या पर्याप्त है। का तात्पर्य यह है कि वह द्रव्य दिक् में प्रसारित
___ आकाश तो स्वतः ही अनन्त (लोक एवं | है या प्रसारण की क्षमता से युक्त है। अलोक ) में विस्तरित है, अतः इनमें कायस्व की
विस्तार या प्रसार (Extention) ही अवधारणा की सम्भव है।
कायत्व है, क्योंकि विस्तार या प्रसार की उपजहां तक आत्मा का प्रश्न है, देकार्त उसमें स्थिति में ही प्रदेश–प्रचयत्व तथा सावयवता 'विस्तार' को स्वीकार नहीं करता है, किन्तु जैन | की सिद्धि होती है। दर्शन उसे विस्तारयुक्त मानता है, क्योंकि आत्मा अतः जिन द्रयों में विस्तार या प्रसार का जिस शरीर को अपना आवास बनाता है, तब लक्षण है, वे अस्तिकाय हैं। उसमें समग्रतः व्याप्त हो जाता है । ____ हम यह नहीं कह सकते हैं कि शरीर के | हमारे सामने दूसरा प्रश्न यह है कि जैन अमुक भाग में आत्मा है और अमुक भाग में दर्शन में जिन द्रव्यों को अस्तिकाय माना गया नहीं है, वह अपने चेतना-लक्षण से सम्पूर्ण शरीर है उनमें प्रसार (कायत्व) नहीं मानने पर क्या
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