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________________ " नाद बिन्दु कला" [२५ कलयन कर रहा है तो उसके तमो गुण की सृष्टि | "अग्निज्वाला समं नाद बिन्दु रेखा समन्वितम्"। होगी । और यदि उसकी प्रवृत्ति रागात्मक है (ऋषिमंडल स्तोत्र ) तो रजो गुण की सृष्टि, एवं यदि उच्चावस्था में नाद-बिन्दु-कला को वर्णो में स्वर-व्यंजन हो तो सतोगुण की प्रतिष्ठा होगी। और वर्ण के रूप में देखे जा सकते हैं, जिसका .. यह नाद बिन्दु से कला तक पहुंचकर | स्थान नाभिमंडल है, व्यंजन बिन्दु है, जो अकापुनः शुद्ध, स्वरूप में कैसे सुस्थित रहता है ? | रादि स्वरों से मिलकर कंठ में आ कर ग्रहण इसका उत्तर वेदान्त में उर्णनाभि (मकडी) के करते हैं । एवं वर्ण उनका कलारूप प्रकटन है। दृष्टान्त से दिया गया है __यह नाद सूर्यरूप प्रकाशित तत्त्व है, जो " यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च ।" चराचर संसार को प्रकाशित करता है। जिस प्रकार मकडी अपने जाल को बुनती जपसूत्र के ७८वे श्लोक में कहा हैहै, एवं स्वयं उसे समेट भी लेती है, वैसे ही यह "सूयते ऋध्यते येन ते जो भुवन–नाभिषु । नाद ऊर्णनाभिवत् संसार का निर्माण भी करता सवितेति च तं विद्धि पूषेति भर्गरूपिणम् ।। है एवं संहार भी करता है। अर्थात् निखिल-भुवन की नाभि में जो तेज नाद बिन्दु-कलात्मक ॐ अ--उ-म अरि- | शक्ति रहती है, उस तेजः-शक्ति को जो उत्पन्न हत आचार्य उपाध्याय एवं मुनिरूप है। करता है और पोषण करता है, उसी साक्षात् नाद अरिहंत रूप है। भर्गरूपी देवता को सविता और पूषा कहआचार्य एवं उपाध्याय बिन्दुरूप है, क्योंकि कर जाने । वे गीतार्थ हैं और वे द्वादशांगरूप वर्ण मातृका | बिन्दु इस सूर्यको किरणें हैं, जिनके माध्यम और उसके सार अहँ का उपदेश देते हैं। से वह सकल पदार्थों ( कलाओं) का लय एवं तथा मुनि कलारूप हैं, क्योंकि वे संसार | उदय करता है । के प्राणियों को नाना भाँति उपदेश देकर पापा- | इस प्रकार यह नाद उत्पाद-व्यय-प्रौव्यापहाररूप संवर की शिक्षा देते हैं। स्मक भी है। नवकार मंत्र का सार है ॐ ( अरिहंत, अतः नाद ही साधक का परम ध्येय आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ) नमः (णमो का | होना चाहिये । अन्यय रूप ) और सिद्धम्--जो “ॐ नमः साधक को कलारूप शरीर को शक्ति के सिद्ध " के रूप में पंचाक्षर पंचमंगलरूप बनता | अनुसार बिन्दुरूप शून्य में ध्यान अवस्थित कर है। इसका सार है ' अहँ '। नादरूप ॐ अहँ में परा-मातृका का ध्यान अहँ में अ से ह पर्यन्त वर्ण–मातृका समाई | करना चाहिए। हुई है; जो नाद सरल रेखा, बिन्दु एवं कला | इस ध्यान की उच्चावस्था में यह नाद वक्र रेखा से उत्पन्न है । कहा गया है कि---- ! अनाहत-ध्वनि का अनुगंजन करेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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