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________________ २४ तत्त्वज्ञान स्मारिका कवि के संसार-प्रवर्तन का माध्यम कंठ है, | ॐकारमय है । ॐ गणेशरूप मंगलमय आकृतिजो बिन्दु-रूप है। रूप ॐ यही ॐ स्वस्तिकरूपम भी है। कंठ--प्रदेश से निसृत नाद मुखकमल से निश्चल परावारूप प्रणवात्मक नादरूप वर्ण मातृका का रूप धारण करता है । तो नाद | कुण्डलिनी शक्ति ही प्रकृति है । के वर्ण मातृका रूप ५२ स्वर-व्यञ्जन है। उच्चारण से पूर्व यह नाद पर प्रणवरूप इस मातृका-स्मरण का फल मुनि मेरु- | में नाभिमंडल में व्याप्त रहता है। सुंदरकृत बालावबोध में कहा गया है ___ जब वह जागृत होता है, तो भ्रमर के "ध्यायतोऽनादि संसिद्धान् वर्णानेतान् यथाविधि। समान गुञ्जन करता हुआ हृदयकमल के व्यनष्टादिविषये ज्ञानं ध्यातुरुत्पद्यसे क्षणात् ॥" | अनों से मिलकर कंठ मार्ग में आ कर निश्चित अर्थ :-इन अनादिसिद्ध वर्गों का यथा | रूप एवं आकृति ग्रहण कर मुखकमल से स्थूल विधि अर्थात् सिद्धचक्र की उपासना और ऋषि- | संसार में प्रवेश करता है। मंडल की उपासना-पूर्वक करने से ध्याता को इस प्रकार यह नाद-चैतन्य नाभिप्रदेश समग्र ज्ञान प्राप्त हो जाता है। में सुषुप्त अवस्था में रहता है, और बिन्दुरूप इस वर्ण-मातृका का परा रूप अ से ह कंठ में स्वप्नवत् आचरण करता है । पर्यन्त अग्निबीज युक्त अहं है। जिस प्रकार स्वप्न में हम न जागृत होते तो यह सिद्ध हुआ कि अहंमय नाद नाभि- हैं और न सोए हुए, वैसे ही बिन्दु में संकल्पाकमल में अव्यक्तरूप से विद्यमान है। त्मक-विकल्पात्मक स्थिति रहती है, एवं मुँह से - जब वह व्यक्त होता है, तो मातृका के | | निकलकर जागृत होकर शब्दोच्चारण करते हैं । साधक से बिन्दुरूप कंठ से निकलकर कलारूप नाद-बिन्दु-कला को हम ब्रह्मा-विष्णु एवं मुख से प्रकट होता है और उसके पीछे जैसी | शिव की संज्ञा भी दे सकते है । भावना होती है वैसा ही स्फोट उत्पन्न होता है, ब्रह्मा अव्यक्त मूल-रूप, विष्णु परावर्तित और उससे उद्भूत ध्वनि-तरंगे सृष्टिक्रम में | रूप, एवं अन्तिम शिवरूप कला है। आलोडन–प्रत्यालोडन उत्पन्न कर नवोन्मेषमय अहं का 'अ' अव्यक्त का नादरूप, संसार का सर्जन करती है। 'र' अन्तर का बिन्दुरूप, एवं 'हं' प्रकट नाद बिन्दु का यह सृष्टिक्रम है। कला रूप है। नाद बिन्दु-कला को अमात्र अहँ मात्र नाद में सत्त्व, रज व तमकी साम्यावस्था ( अर्धमात्र एवं त्रिमात्ररूप भी) कह सकते है। है, तो बिन्दु में उनका विचयन और कला में नाद अमात्र है, बिन्दु अर्धमात्रा सेतुरूप है, । उनका प्रकटन है। एवं कला त्रिमात्र त्रिगुणात्मक संसाररूप है। जैसे यदि साधक के मनमें बुरी भावना इस प्रकार यह नाद-बिन्दु-कला प्रणवाक्षर । है और वह नादात्मक अहं मंत्र का उच्चारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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