SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ मूलतः नाद अव्यक्त ध्वनि है जिसका स्थान नाभिकमल | नाभि - मंडल में सोलह दलों का कमल है, जिस से स्वरमाला अ आ वगेरे उत्पन्न हुई है । स्वर स्वयं प्रकाशमान है । "स्वयं राजन्ते इति स्वरा : " । एवं संसार की सभी भाषाओं में इनकी व्याप्त है । नवजात शिशु और गुंगे स्वरों को उच्चारित करके स्वरों के माध्यम से अपनी स्थिति का बोध कराते हैं । नाद बिन्दु कला नाभि हमारी ज्ञानवाहिका परंपरा का मूल है । गर्भ धारण से अर्थात् माता से जुडा हुआ रहता है । मानवसृष्टि से आज तक जो ज्ञान का प्रवाह एक के बाद दूसरी पीढी को सौंपा गया है, उसके मूल में नाभि ही है । अतः नाभि के षोडश दल कमल के पराग के रूप में नाद निवास करता है। यह नाद दो प्रकारका है। सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म रूपसे यह नाद संसारकी सारी वस्तुओं के मूल ॐ में, अईं में व्याप्त है, तो स्थूल रूप में यह संसार की सारी ध्वनियों में व्याप्त है । यह नाद चार रूपों में व्यक्त होता हैसंसार की समस्त ध्वनियों में इसकी व्याप्ति [ २३ वैखरीरूप हैं, और उनमें मूल ध्वनि परारूप है । मध्यमा वाणी का स्थान कंठ है-मध्ये तिष्ठति सा मध्यमा । पश्यन्ती वाणी का स्थान हृदय है । नाभि परा वाणी का स्थान है । मुख वैखरी वाणी का स्थान 1 इसे कह सकते है कि जब अव्यक्त नाद अभिव्यक्त होना चाहता है तो वह हृदय तक आता है, एवं सारे विकल्पों को पार कर कंठ (बिन्दु) से घोषारूप प्राप्त कर मुख से वैखरीरूपा-वर्णरूपा के कला के रूप में व्यक्त होगी। Jain Education International 99 कंठ संसार में सेतुरूप है, यानी अहे मंत्र रूप, क्योंकि यह वह सेतु है जहाँ से हम मंत्रोउच्चार मात्र द्वारा अच्छी सृष्टि का निर्माण कर सकते हैं । एवं उच्चाटन मंत्रों द्वारा बुरी सृष्टि का निर्माण कर सकते है । यह विष्णु - रूप है, यानि सृष्टि का पालनकर्ता । यह कंठ - काव्य संसारका प्रवर्तन करता है अपनी इच्छानुसार । मम्भटाचार्य ने अपने काव्यप्रकाश में कहा है अपारे संसारे कविरेव प्रजापतिः । यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं प्रवर्तते ॥ १ ॥ अर्थात् अपार संसार में कवि ही प्रजापति है। उसे जैसा अच्छा लगता है वैसा ही संसार बना देता है | जो नाद केवल ज्ञान से जाना जाता है और जो बिना संघर्ष या स्पर्श के पेदा हो जाए उसे अनाहत नाद कहते है । जैसे दोनों कान जोर से बन्द करने पर सन् सन् की अस्पष्ट आवाज आती है वह अनाहत नाद है । योगियों को वह स्पष्ट सुनाई पड़ती है । जो आवाज संघर्ष से उत्पन्न होती है एवं कानों से सुनाई पड़ती हैं उसे आहत नाद कहते हैं । जैसे कंठ में प्राणवायु के संघर्ष से क वर्ग, तालु से जीभ टकराकर च वर्ग आदि पैदा करती है । आहत नाद भूमिदाता एवं अनाहत नाद मुक्तिदाता माना जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy