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________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा द्रव्यों में परिवर्तन को सम्भवित बनाता है। अतः | से थोड़ा भिन्न अवश्य है, पुनश्च विश्व में केवल दोनों स्वतंत्र द्रव्य है। | स्थिति नहीं है, उसमें गति भी है । पुद्गल (मेटर) तो विश्व का मूल उपादान यद्यपि गति पुद्गल एवं जीव की अपनी है,अतः उसकी सत्ता तो निर्विवाद रूप से स्वीकार क्रियाशक्ति से ही सम्भव है, फिर भी यदि गति करनी होगी। के लिए कोई माध्यम नहीं होगा तो गति सम्भव विश्व में जीवन की उपस्थिति भी अनुभव- | नहीं होगी। सिद्ध है, अतः जीवास्तिकाय का अस्तित्व भी स्वीकार करना ही होगा । चाहे वैज्ञानिक जीवन जैन-दार्शनिकों ने इस हेतु धर्मद्रव्य की का विकास पुद्गल से मानते हो और उसे : अवधारणा को प्रस्तुत किया तो विज्ञान ने 'ईथर' स्वतंत्र द्रव्य नही मानते हो और किन्तु वे भी की खोज की। अभी तक इसे विज्ञान से सिद्ध नहीं कर पाये हैं। यद्यपि आधुनिक-खोजों के परिणामस्वरूप पुद्गल जीवन को अभिव्यक्त होने के लिए | विज्ञान में ईथर का स्वरूप बहुत कुछ बदल अवसर प्रदान करता हो, किंतु आवश्यक नहीं | गया है। है कि वह जीवन की रचना भी करता हो। आज ईथर भौतिक नहीं, अपितु अभौतिक किन्तु क्या दिक (आकाश), काल, पुद्गल बन गया है और इस रूप में वह धर्म-द्रव्य की और जीव केवल इन चार की सत्ता मानकर अवधारणा के अधिक निकट आ गया है । विश्व की व्याख्या सम्भव हो सकेगी ? जैन इस प्रकार जैन दर्शन के षट् द्रव्य-विज्ञानदार्शनिकों का प्रत्युत्तर होगा, नहीं । सम्मत ही है। प्रथम तो हमें इनसे पृथक् ऐसे तत्त्व की कल्पना करनी होगी जो विश्व को एक व्यवस्था __ आज आवश्यकता इस बात की है कि में बांध कर रखता है, पुदगल-पिण्डों एवं पर- विज्ञान की नवीन खोजों के प्रकाश में जैनदर्शन माणुओं को अनन्त आकाश में छितर जाने से | की इन अवधारणाओं को परखा जावे । रोकता है, वैज्ञानिक इसे गुरुत्वाकर्षण (ग्रेव'टेशन) आज जैन दर्शन और विज्ञान दोनों ही के नाम से जानते हैं। इस स्थिति में है कि वे एक-दूसरे का सहयोग जैन दर्शन में इसे हम अधर्म द्रव्य कहते लेकर अपनी गुत्थियों को अधिक सफलतापूर्वक हैं, यद्यपि जैन दर्शन का अधर्मद्रव्य गुरुत्वाकर्षण सुलझा सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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